—अरुण माहेश्वरी
बंगाल के चुनाव का परिदृश्य अभी तक एक जटिल पहेली है । पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से ही तृणमूल कांग्रेस और वाम के परंपरागत द्वंद्व के बीच इस लड़ाई का एक तीसरा अपरिहार्य पहलू भाजपा के रूप में उपस्थित हो चुका है । तृणमूल और वाम की पूरे राज्य में ठोस उपस्थिति स्वतःप्रमाणित है । पर 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की अनोखी सफलता के बावजूद विधान सभा चुनाव में उसे अपनी प्रभावी शक्ति का प्रमाण देना अभी बाकी है । अभी वह अपनी ताकत को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के उन सभी प्रयोगों में लगी हुई है जो झूठ की ताकत के अलावा खास तौर पर उग्रवादियों के हमेशा के ज्ञात तौर-तरीके होते हैं । नग्न हिंसा की बहादुरी के प्रदर्शन के तरीके । भाजपा के हर कार्यक्रम में एक प्रायोजित हिंसा साफ दिखाई देती है । तृणमूल के कई बदनाम समाज-विरोधी नेता-कार्यकर्ता भी उसमें जोर-शोर से भरे जा रहे हैं ।
लेकिन कोई भी लड़ाई अंत तक त्रिमुखी नहीं रह सकती है । यह द्वंद्ववाद का अति साधारण नियम है । उसे अंततः द्विमुखी होना ही होता है ।
भारतीय राजनीति का अभी मुख्य अन्तरविरोध धर्म-निरपेक्षता और सांप्रदायिकता के बीच, जनतंत्र और फासीवाद के बीच है । पूरा उत्तर भारत इसका प्रमुख रणक्षेत्र है और बंगाल की अपनी सारी विशिष्टताओं के बावजूद उसकी भौगोलिकता ही उसे उत्तर भारत से जोड़ती है । उत्तर भारत की शीत लहरों के असर को बंगाल में प्रवेश से रोकने वाली कोई विंध्य पर्वतमाला की बाधा नहीं है । अर्थात् भारत की राजनीति के मुख्य अन्तरविरोध को बंगाल की राजनीति के भी मुख्य अन्तरविरोध का रूप लेने में कहीं से कोई बाधा नहीं है ।
राज्य में सत्ताधारी होने के नाते तृणमूल कांग्रेस धर्म-निरपेक्ष ताकतों के नेतृत्व का दावा सहजता से कर सकती है, पर सत्ताधारी होने की ही वजह से उसे व्यवस्था-विरोधी भावना का भी अतिरिक्त सामना करना पड़ेगा । तृणमूल के शासन को दस साल पूरे होने वाले हैं ।
इसकी तुलना में वामपंथ के साथ यह सुविधा है कि उसकी धर्म-निरपेक्ष, जनतांत्रिक छवि अटूट है और 34 साल के लगातार शासन के सभी बोझ से अब वह लगभग मुक्त हो चुका है । इसके साथ ही कांग्रेस के साथ गंठजोड़ से उसे भाजपा-विरोधी लड़ाई में और भी अतिरिक्त बल मिला है । लड़ाई के राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में यह गठजोड़ भी स्वाभाविक रूप में ताकतवर हो जाता है ।
जो भी हो, अभी तक इस लड़ाई में साफ तौर पर तीन ताकतें हैं और आगे के दिनों के पूरे घटनाक्रम से उसे क्रमशः दो के बीच की लड़ाई में बदलना है ; अर्थात् धर्म-निरपेक्ष समुच्चय के अंतरविरोधों में से एक का पृष्ठभूमि में अन्तर्धान हो जाना है । इसी उपक्रम में भाजपा के सामने चुनौती यह रहेगी कि वह पूरी तरह से तृणमूल जैसी ही दिखने के बजाय बंगाल के स्थानीय जगत में अपनी अलग पहचान को बनाए । इसके बिना वह हमेशा की तरह जैसे हवा में थी, वैसे ही हवा में ही रह जाएगी ।
परिस्थिति की यही सब तरलताएँ इस लड़ाई को अभी तक एक कठिन पहेली बनाए हुए हैं । वाम के साथ कांग्रेस का खुला गंठजोड़ इस परिदृश्य को नई दिशा देने में कितना सहायक होगा, यह भी देखना अभी बाकी है ।
हाल में कोलकाता में सीपीआई(एम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने राज्य पार्टी के नेतृत्व को संबोधित करते हुए अपनी पार्टी की रणनीति के बारे में कहा कि तृणमूल को हरा कर ही भाजपा को हराया जा सकता है । अर्थात् कहीं न कहीं वे इस लड़ाई को अंत तक त्रिमुखी ही रहते हुए देख रहे हैं । वे दो के बीच नहीं, तीन के बीच लड़ाई की ही अंत तक के लिए कल्पना किए हुए हैं ।
द्वंद्ववाद के नियम के अनुसार यह एक तार्किक असंभवता, logical impossibility है । इसके लिए बांग्ला में एक बहुत सुंदर मुहावरा है — सोनार पाथर बाटी (सोने का बना हुआ पत्थर का कटोरा)। महान मनोविश्लेषक जॉक लकान इसे एक वृत्ताकार चौकोर (circular square) की कल्पना कहते हैं । लकान अपने संकेतक सिद्धांत में, जिससे विश्लेषण में संकेतकों के पीछे चलने वाले प्रमाता (subject) की गति का संधान पाया जाता है, कहते हैं कि प्रमाता के सामने सिर्फ दो नहीं, तीन विरोधी दिशाओं के संकेतक भी हो सकते हैं । लेकिन विश्लेषण को सार्थक बनाने का तकाजा है कि उनमें से सिर्फ दो विरोधी दिशाओं के संकेतकों को पकड़ कर ही चला जाता है । जैसे ही उसमें कोई तीसरा संकेतक शामिल होता है, प्रमाता की गति का नक्शा वृत्ताकार रूप ले लेता है, अर्थात् विश्लेषण किसी दिशा में बढ़ नहीं पाता है, गोल-गोल घूमता हुआ अपने में ही फंसा रह जाता है । इसमें विश्लेषण जब पहले से निकल कर दूसरे की ओर बढ़ता है, तब तीसरे के रहते वह उसकी ओर फिसल कर पुनः पहले की ओर आ जाता है । वह तीसरे से दूसरे की ओर से होता हुआ सरल रेखा में नहीं लौटता है । ऐसे विश्लेषण में तृणमूल से असंतोष से जैसे ही वाम के समर्थन की बात आएगी, वह सामने मौजूद भाजपा की ओर भी फिसलेगा और वहां से पुनः लौट कर तृणमूल की ओर आ जाएगा । इस प्रकार, सारा विश्लेषण उहा-पोह में फंस कर रह जाएगा । प्रमाता की गति की दिशा का कोई अंदाज नहीं मिलेगा, विश्लेषण विफल होगा, वह प्रमाता की गति को कोई निश्चित दिशा के लिहाज से निर्रथक साबित होगा ।
इसीलिए रणनीतिमूलक किसी भी राजनीतिक विश्लेषण के लिए जरूरी होता है कि वह इस उलझन भरी स्थिति को साफ करने के लिए ही लड़ाई के त्रिमुखी स्वरूप के बजाय उसे दो के बीच के द्वंद्व के रूप में देखे । भाजपा इस मामले में बिल्कुल साफ है । वह इस लड़ाई में से वाम को अलग करके इसे सीधे तृणमूल वनाम भाजपा के बीच की लड़ाई के रूप में देखती है और इस मामले में वाम के अति-मुखर तृणमूल-विरोध को अपने लिये सहयोगी मानती है । इसी प्रकार तृणमूल भी वाम को इस लड़ाई से अलग करके पूरी लड़ाई को सीधे तृणमूल वनाम भाजपा का रूप दे रही है । कहा जा सकता है भाजपा और तृणमूल द्वंद्वात्मकता के शुद्ध सूत्र के अनुसार काम कर रहे हैं । लेकिन वाम की अभी अतिरिक्त परेशानी धर्म-निरपेक्ष ताकतों के समुच्चय में अपने वर्चस्व को बनाने की है, ताकि वह अंत तक सीधे भाजपा का मुकाबला कर सके ।
अपने इस अतिरिक्त, धर्म-निरपेक्ष ताकतों के समुच्चय में वर्चस्व बनाने के संघर्ष में वाम ने कांग्रेस को अपने साथ ले कर उन सवालों को प्रमुखता देने की दिशा चुनी है जो भाजपा के साथ ही तृणमूल पर भी वार करें । वह रोजी-रोटी और बेरोजगारी के उन सवालों पर बल देना चाहता है जो भाजपा के साथ ही राज्य में शासन-विरोधी भावना को भी अपने में शामिल कर सके ।
वाम की इस लड़ाई में तृणमूल और भाजपा को एक बताने वाला तर्क भाजपा के साथ तृणमूल के संबंधों के अपने इतिहास के बावजूद हमें एक कमजोर तर्क लगता है । जैसे ही कोई शक्ति अपने किसी उपस्थित रूप को छोड़ कर अपने मूलभूत चरित्र में लौट जाती है, उसका वह पूर्वकालिक रूप इतना निरर्थक हो जाता है कि उस पर वार करके कुछ भी हासिल नहीं हो सकता है । तृणमूल का भाजपा के साथ संबंध के अतीत का एक तत्कालीन रूप कुछ भी क्यों न रहा हो, अभी की राजनीति में वह अपने मूल रूप, एक धर्म-निरपेक्ष ताकत के रूप में उपस्थित है । उसे भाजपा के समान बता कर कुछ भी हासिल करना शायद कठिन होगा । इसीलिए, विश्लेषण में भाजपा की पराजय को तृणमूल की पराजय से जोड़ना हमें असंगत लगता है ।
इस लड़ाई में अंत में वाम-कांग्रेस के पक्ष में पलड़े को झुकाने में अभी का दिल्ली का किसान आंदोलन, देश-व्यापी बेरोजगारी, प्रवासी मजदूरों के दुख-दर्द और मोदी की तुगलकी नीतियों के खिलाफ कांग्रेस और वाम का समझौताहीन संघर्ष ही सबसे प्रभावशाली प्रमुख कारण बन सकते हैं । बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान क्रमशः महागठबंधन के भारी उभार के पीछे भी इन्हीं कारणों ने काम किया था । बंगाल के गांव-गांव में भी अभी से किसान आंदोलन की आवाजें तेजी के साथ प्रतिध्वनित भी होने लगी हैं ।
हमारी दृष्टि में इस चुनावी समर में यदि वाम-कांग्रेस को बढ़त लेनी है तो उसे राष्ट्रीय मुद्दों पर ही अपने को अधिक से अधिक केंद्रित करना होगा । स्थानीय मुद्दे उनके अनुषंगी हो सकते हैं, लेकिन समकक्ष कत्तई नहीं । ‘इसे हराओ, उसे अलग-थलग करो और वाम को आगे बढ़ाओ’ की तरह के असंगत सूत्रीकरणों से वाम ने काफी दिनों से अपनी सैद्धांतिक समझ और व्यवहारिक राजनीति की धार को कमजोर कर रखा है । बंगाल के चुनाव में स्थानीय मुद्दों की इस प्रकार की फिसलनों से बच कर ही इस लड़ाई को सीधे वाम-कांग्रेस वनाम भाजपा की लड़ाई में तब्दील किया जा सकता है । सीताराम येचुरी ने अपने वक्तव्य में उन बातों पर भी जोर दिया है ।
https://sablog.in/left-congress-challenge-in-bengal/10830/
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