शुक्रवार, 11 जून 2021

हरीश भादानी के जन्मदिन पर



आज हरीश जी का जन्मदिन है । ‘जाग जाने की घड़ी है…’, यू ट्यूब पर उनके स्वरों में इस गीत के साथ हमारी सुबह हुई है । हम नहीं जानते कि संगीत के पैमानों पर उनके इस गीत की धुन का बिल्कुल सही किस राग में वर्गीकरण किया जा सकता है । हरीश जी के बेहद सधे हुए सुरों में भी बाहरी किसी लकीर का चौखटा नहीं होता था, उनकी अपनी ही लय प्रमुख थी । पर अगर सुबह की ताजगी और आंतरिकता का कथित भैरवी राग से कोई संबंध है तो हमारे लिए यह गीत भैरवी को सुनने जैसा ही था । सुबह-सुबह हम ऐसे भाव-सिक्त हुए कि आँसू थम ही नहीं रहे थे । 

हरीश जी आज हमारे बीच होते तो नब्बे साल के क़रीब (88) के होते । जीवन के अंतिम लगभग चालीस-पैंतालीस साल में काफ़ी समय वे हमारे घर में साथ रहते थे । हमारा परिवार एक बड़ा परिवार था और घर का माहौल तो जैसे एक मेले की तरह होता था जहां आने-जाने वालों का ताँता लगा ही रहता था । एक वक्त में कम से कम पचीस-तीस लोगों से कम का खाना नहीं बनता था ।  पर वह पूरी तरह से पारिवारिक पर उतना ही एक राजनीतिक-सांस्कृतिक परिवेश था । ऐसे माहौल में भी एक अजीब बात होती है कि इतने सारे लोगों में भी आदमी कुछ अलग ही प्रकार से अकेला भी हो ज़ाया करता है । यह इसलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि उसी भीड़-भाड़ में हमने लिखने-पढ़ने, अपने में जीने की तमीज़ भी हासिल की थी, किताबों के बीच समय बिताना सीखा था । सब साथ होते थे और सब अलग भी । पर इधर के पंद्रह-बीस सालों में तो कुछ ऐसा भारी बदलाव हुआ, इतने ज़्यादा लोग गुज़रते चले गए और छँट भी गए कि इस बड़े घर में अभी जिन्हें ‘घर वाले’ कहा जाएँ, वैसे हम सिर्फ़ दो प्राणी रह गए हैं । अक्सर ऐसा भी समय आता है जब पूरे मकान में सिवाय एक दरवान और ड्राइवर तथा खाना बनाने वाली सेविका के कोई नहीं होता है । हम भी किसी यात्रा पर, या बेटे के घर पर पोती के पास गए होते हैं, तो घर में कोई नहीं होता है । सारे कमरे बंद पड़े रहते हैं । एक बड़े, स्वस्थ संयुक्त परिवार के गहरे अंदर का सबल अकेलापन अब एक अदद निखालिस ढाँचे का प्रकट रूप ले चुका है । हम हमेशा की तरह अब भी अपनी किताबों के बीच ही मगन हो कर जी रहे हैं । 

ऐसे समय में हरीश जी ! सचमुच कहना पड़ता है, अभी के इस निपट एकांत के परिवेश में हमारे परिवार का कोई शख़्स अगर हमारी अंतरंगता का अब भी संगी बनता है तो वह हरीश जी के सिवाय एक कोई दूसरा नहीं होता है । पहले जब हरीश जी हमारे साथ होते थे, उनके गीत परिवार के तमाम लोगों की ज़ुबान पर हुआ करते थे और उनके स्वर अक्सर कान में पड़ते रहते थे । वे सबके होते थे, पर एक अजीब सी बात थी कि वे जितना सब के होते थे, उतना ही, हम सब की तरह ही, अकेला भी होते थे । हमें अच्छी तरह याद है कि तब एक बार नहीं, अनेक बार उन्हें देख कर मैं सरला को कहा करता था कि यही वह व्यक्ति है जो हमें बाद के दिनों में, अपनी अनुपस्थिति में ही शायद सबसे अधिक रुलायेगा । विस्मरण की अनिवार्यताओं के बीच भी यदि किसी की कोई गूंज टीस देती रहेगी, तो वह इसी की होगी — इस शख़्सियत की पूरी गुंफित काया की । 

सचमुच हमारी कही वह बात एक भविष्यवाणी साबित हुई है । जिनकी स्मृतियाँ हमें रुलाती हैं, सरोबार करती है और जिनके गीतों में खो कर हम किसी परा-जगत में चले जाते हैं, आज उनका जन्मदिन है । जितना संभव होगा, उतना उनके गीतों को सुनेंगे, गाएँगे और उनमें डूब-उतर कर, उन्हीं के शब्दों में, खूब नहायेंगे । 

प्रणाम हरीश जी !

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