- अरुण माहेश्वरी
प्रशांत किशोर के कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा गर्म है । कोई नहीं जानता कि सचमुच ऐसा होगा । इस संशय के पीछे प्रशान्त किशोरका अपना इतिहास ही एक बड़ा कारण है । अब तक वे कई पार्टियों के चुनाव प्रबंधक रह चुके है जिनमें बीजेपी का नाम भी शामिल है ।कांग्रेस, सपा और जेडीयू के प्रबंधक के रूप में उनकी भूमिका को तो सब जानते हैं । इसी वजह से उनकी वैचारिक निष्ठा के प्रति कोईनिश्चित नहीं हो सकता है । इसीलिए तमाम चर्चाओं के बाद भी सबसे विश्वसनीय बात आज भी यही प्रतीत होती है कि वे किसी भीहालत में कांग्रेस की तरह के एक पुराने संगठन में शामिल नहीं होंगे ।
यदि इसके बावजूद यह असंभव ही संभव हो जाता है तब उस क्षण को हम प्रशांत किशोर के पूरे व्यक्तित्व के आकलन में एक बुनियादीपरिवर्तन का क्षण मानेंगे । उसी क्षण से हमारी नज़र में वे महज़ एक पेशेवर चुनाव-प्रबंधक नहीं, विचारवान गंभीर राजनीतिज्ञ हो जाएँगे ।
प्रशांत किशोर चुनाव-प्रबंधन का काम बाकायदा एक कंपनी गठित करके चला रहे थे । अर्थात् यह उनका व्यवसाय था । इसकी जगहकांग्रेस में बाकायदा एक नेता के तौर पर ही शामिल होना, तत्त्वत: एक पूरी तरह से भिन्न काम को अपनाना कहलाएगा । आम समझ मेंराजनीति और व्यवसाय, इन दोनों क्षेत्रों के बीच एक गहरे संबंध की धारणा है । लेकिन गहराई से विश्लेषण करने पर पता चलेगा कि इनदोनों के बीच सहज विचरण कभी भी संभव नहीं है । इनके बीच एक संबंध नज़र आने पर भी, इनकी निष्ठाएँ अलग-अलग हैं, इनकेविश्वास भी अलग है । कोई भी इनमें से किसी एक क्षेत्र को ही ईमानदारी और निष्ठा के साथ अपना सकता है ।
कम्युनिस्ट विचारक अंतोनिओ ग्राम्शी ने इसी विषय पर अपनी ‘प्रिजन नोटबुक’ में एक बहुत सारगर्भित टिप्पणी की है । इसमें एकअध्याय है ‘बुद्धिजीवी और शिक्षा’। इस अध्याय में वे बुद्धिजीवी से अपने तात्पर्य की व्याख्या करते हैं । वे बुद्धिजीवी की धारणा कोलेखक-दार्शनिक-संस्कृतिकर्मी की सीमा से निकाल कर इतने बड़े परिसर में फैला देते हैं जिसमें जीवन के सभी आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में बौद्धिक स्तर पर काम करने वाले लोग शामिल हो जाते हैं । बुद्धिजीवी कौन है और कौन नहीं है, इसी सवाल कीउधेड़बुन में पन्ना-दर-पन्ना रंगते हुए वे क्रमश: अपनी केंद्रीय चिंता का विषय ‘राजनीतिक पार्टी’ पर आते हैं और इस नतीजे तक पहुँचते हैंकि राजनीतिक पार्टी का हर सदस्य ही बुद्धिजीवी होता है, क्योंकि उनकी सामाजिक भूमिका समाज को संगठित करने, दिशा देने अर्थात्शिक्षित करने की होती है । इसी सिलसिले में वे टिप्पणी करते हैं कि “एक व्यापारी किसी राजनीतिक पार्टी में व्यापार करने के लिएशामिल नहीं होता है, न उद्योगपति अपनी उत्पादन-लागत में कटौती के लिए उसमें शामिल होता है, न कोई किसान जुताई की नई विधियोंको सीखने के लिए । यह दीगर है कि पार्टी में शामिल होकर उनकी ये ज़रूरतें भी अंशत: पूरी हो जाए ।” इसके साथ ही वे यहविचारणीय बात कहते हैं कि यथार्थ में “राजनीति से जुड़ा हुआ व्यापारी, उद्योगपति या किसान अपने काम में लाभ के बजाय नुक़सानउठाता है , और वह अपने पेशे में बुरा साबित होता है । … राजनीतिक पार्टी में ये आर्थिक-सामाजिक समूह अपने पेशागत ऐतिहासिकविकास के क्षण से कट जाते हैं और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय चरित्र की सामान्य गतिविधियों के माध्यम बन जाते हैं ।”
जब हम प्रशांत किशोर के कांग्रेस की तरह के एक स्थापित राजनीतिक संस्थान में शामिल होने की गंभीरता पर विचार करते हैं को हमारेज़ेहन विचार का यही परिदृश्य होता है जिसमें राजनीति का पेशा दूसरे पेशों से पूरी तरह जुदा होता है और इनके बीच सहजता सेपरस्पर-विचरण असंभव होता है ।
अब यदि हम पूरे विषय को एक वैचारिक अमूर्त्तन से निकाल कर आज के राजनीतिक क्षेत्र के ठोस परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो यह कहनेमें जरा भी अत्युक्ति नहीं होगी कि आज किसी का कांग्रेस में शामिल होने का राजनीतिक अर्थ है खुद को दृढ़ बीजेपी-विरोधी घोषितकरना । चुनाव प्रबंधन का ठेका लेने के बजाय कांग्रेस पार्टी का हिस्सा बनना भी इसीलिए स्वार्थपूर्ण नहीं कहला सकता है क्योंकि अभीकांग्रेस में शामिल होने से ही तत्काल कोई आर्थिक लाभ संभव नहीं है । प्रशांत किशोर अपने लिए पेशेवर चुनाव प्रबंधक से बिल्कुलअलग जिस बृहत्तर भूमिका की बात कहते रहे हैं, उनका ऐसा फ़ैसला उनके इस आशय की गंभीरता को पुष्ट करेगा । यह उनके उसवैचारिक रुझान को भी संगति प्रदान करता है जिसके चलते उन्होंने नीतीश कुमार से अपने को अलग किया, पंजाब में कांग्रेस का साथदेने, उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस के लिए काम करने के अलावा बंगाल में तृणमूल के लिए काम करने का निर्णय लिया । इसके अलावा, उनका कांग्रेस जैसे विपक्ष के प्रमुख दल को चुनना भी उनके जैसे एक कुशल व्यक्ति के लिए निजी तौर पर उपयुक्त चुनौती भरा औरसंतोषजनक निर्णय भी हो सकता है ।
बहरहाल, अभी तो यह सब कोरा क़यास ही है । प्रशांत किशोर के लिए अपनी योग्यता और वैचारिकता के अनुसार काम करने के लिएकांग्रेस का मंच किसी भी अन्य व्यक्ति को कितना भी उपयुक्त क्यों न जान पड़े, ऐसे फ़ैसलों में व्यक्ति के अहम् और संगठनों की संरचनाआदि से जुड़े दूसरे कई आत्मगत कारण है जो अंतिम तौर पर निर्णायक साबित होते हैं । मसलन, आज यदि हम दृढ़ बीजेपी-विरोध केमानदंड से विचार करें तो किसी के भी लिए कांग्रेस के अलावा दूसरा संभावनापूर्ण अखिल भारतीय मंच वामपंथी दलों का भी हो सकता है। लेकिन वामपंथी पार्टियों का अपना जो पारंपरिक सांगठनिक विन्यास और उसकी रीति-नीति है, उसमें ऐसे किसी बाहर के योग्यव्यक्ति की प्रभावी भूमिका की बात की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है । वामपंथी पार्टियों के सांगठनिक ढाँचे की यह विडंबना ऐसीहै कि इसमें जब बाहर के व्यक्ति के भूमिका असंभव है, तब बाहर के अन्य लोगों के लिए भी वामपंथी पार्टियों की ओर सहजता सेझांकना संभव नहीं होता है । इसके लिए कथित संघर्ष की एक दीर्घ प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य होता है, भले वह संघर्ष पार्टी के अंदरका संघर्ष ही क्यों न हो । अर्थात् उसके लिए वामपंथी मित्रों के सहचर के रूप में एक लंबा समय गुज़ारना ज़रूरी होता है । अनुभव साक्षीहै कि यह अंतरबाधा एक मूल वजह रही है जिसके चलते अनेक ऐतिहासिक परिस्थितियों में भी वामपंथ अपने व्यापक प्रसार के लिएउसका लाभ उठा पाने से चूक जाता है या अपनी भूमिका अदा करने के लिए ज़रूरी शक्ति का संयोजन नहीं कर पाता है । जब 1996 मेंज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया था तो कुछ ऐसी ही अपनी अन्तरबाधाओं की वजह से, जो सीपीएम के संविधान कीएक धारा 112 के रूप में प्रकट हुई थी, वामपंथ अपनी भूमिका अदा करने में विफल हुआ ।
बहरहाल, यहाँ अभी विषय प्रशांत किशोर के अनुमानित निर्णय का है । हम पुन: यही कहेंगे कि अव्वल तो यह बात पूरी तरह से अफ़वाहसाबित होगी । प्रोग्राम यह बात सच साबित होती है तो मानना पड़ेगा कि प्रशांत किशोर अपनी भिन्न और बृहत्तर सामाजिक भूमिका केबारे में सचमुच गंभीर और ईमानदार है ।
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