रविवार, 12 सितंबर 2021

एक विमर्श से खुलती गाँठों की कहानी

अरुण माहेश्वरी


 

‘सत्य हिंद’ वेब पोर्टल पर ‘आशुतोष की बात’ कार्यक्रम में दो दिन पहले की एक लगभग डेढ़ घंटा की चर्चा को सुना जिसका शीर्षक था — ‘हिंदुत्व पर बहस से डरना क्यों’ । संदर्भ था ‘विश्व हिंदुत्व को ध्वस्त करने’ के विषय में दुनिया के कई विश्वविद्यालयों का एक घोषित अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार । 


इस चर्चा में आशुतोष के अलावा जिन चार लोगों ने हिस्सा लिया उनमें दो, नरेन्द्र तनेजा और राहुल देव के भाजपा के पक्ष के रुझान को हर कोई जानता है । नरेन्द्र तनेजा ने तो खुद स्वीकारा कि वे भाजपा के अंदर के व्यक्ति है और पूरी बहस में अपनी दलीलों की प्रामाणिकता के तौर पर तर्क के बजाय अपनी इस स्थिति के प्रयोग से कोई परहेज भी नहीं कर रहे थे । राहुल देव की पहचान हमेशा से सत्ता के गलियारों में घूमने वाले पत्रकार की रही है । आज जब लंबे सात साल से केंद्र में भाजपा की सरकार है तब उनमें भाजपा में सारे गुण खोज लेने की प्रवृत्ति की प्रबलता के लक्षण न दिखने का कोई कारण नहीं है । 


बाकी दो थे —  अभय दुबे और विनोद अग्निहोत्री । दोनों ही जाने-माने पत्रकार और साफ तौर पर सांप्रदायिकता विरोधी सेकुलर विचारों के ऐसे व्यक्ति हैं जो अक्सर यथार्थ-परकता के दबाव में अपने विचारधारात्मक तात्त्विक औजारों को एक बार के लिए परे रखते हैं, पर किसी भी मौके पर भाजपा-आरएसएसस के छल-छद्म और उनकी विभाजनकारी राजनीति के मिथ्याचारों पर से पर्दा उठाने से नहीं चूकते । 


जहां तक आशुतोष का सवाल है, उनकी हमेशा की एक वैचारिक पहचान होने पर भी जब वे ऐंकर की कुर्सी पर होते हैं, अपनी बातों को कुछ इस प्रकार के गदलेपन के साथ रखते हैं कि उसके धुंधलके में अन्य प्रतिभागियों की बातों पर ऐसी तिरछी रोशनी गिरती है, जो उनकी बातों के प्रकट रूप के लिए एक वेधक का काम करती है । आशुतोष के प्रस्तुतीकरण  की तरलता से ही प्रतिभागी अपने को कहीं ज्यादा खोलने के लिए उत्साहित होते हैं, और पूरी चर्चा के अंत में या तो बदले हुए या फिर हाथ मलते हुए दिखाई देने लगते हैं ।


ऐंकरिंग की यह एक कला है जो हिप्नोटाइज करने वाले खुली बहस के आमंत्रण से रोगी को अनायास ही उसके लक्षणों के मूल स्रोत के सामने खड़ा कर देता है । प्रतिभागी उससे कितना ग्रहण करते हैं कोई नहीं जानता, पर दर्शक-श्रोता के लिए प्रतिभागियों का सच मंच के प्रहसन में साफ दिखाई देने लगता है ।


बहरहाल, इस चर्चा का मूल विषय बन गया था — हिंदुत्व । हिंदुत्व की सावरकर की अवधारणा और हिंदुत्व के नाम पर आईटीसेल और आरएसएस के अनुषंगी संगठनों की वैचारिक-व्यवहारिक गतिविधियां । इस चर्चा में हमें प्रतिभागियों के बीच तीन बिंदुओं पर एक आम सहमति दिखाई दी । 


पहला, हिंदुत्व और हिंदू धर्म एक चीज नहीं है । सावरकर ने हिंदुत्व की अवधारणा पेश की थी । आरएसएस की सावरकर से कितनी भी सहमति-असहमति क्यों न रही हो, पर उनकी यह हिंदुत्व की राजनीतिक धारणा आरएसएस के लिए एक बीज विचार के तौर पर हमेशा से रही है । उनके शासन का वर्तमान काल इसी बीज विचार की सीमाओँ और संभावनाओं की तस्वीर पेश कर रहा है । 


दूसरा, आरएसएस अपने जन्म के वक्त जो था, वह आज नहीं है । उसमें कैसा और कितना बदलाव आया है, इस पर सबकी अपनी-अपनी राय थी । लेकिन जहां तक उसके मूल स्वरूप में बदलाव का पहलू है, इसे सब आरएसएस की जमीनी गतिविधियों के बजाय उसके नेताओं की समय-समय पर अलग-अलग बातों के हवाले से बता रहे थे । हेडगेवार-गोलवलकर जिस भाषा में बात करते थे, हूबहू उसी भाषा में देवरस और भागवत नहीं बोलते हैं । पर साथ ही बहस में संघ के अंदर से पैदा होने वाली उग्रपंथी चुनौतियों के संदर्भ में प्रच्छन्न रूप से यह भी माना जा रहा था कि आरएसएस सावरकर के विचार और हेडगेवार-गोलवलकर की कार्यपद्धति से उत्पन्न अन्तरबाधाओं से अभिन्न रूप में ग्रसित है । 


तीसरा, प्रतिभागियों का मानना था कि भाजपा-आरएसएस के आकलन में पुरानी तात्त्विक बातें काम की नहीं बची है । वे जितनी पुरानी है आज का संघ उतना पुराना नहीं है ! वे आज देश की सत्ता पर है !


चर्चा में आम सहमति की इन तीन बातों के अलावा हिंदू धर्म आदि पर जो दिखावे की बातें हुई, उनका संघ के हिंदुत्व से कोई संबंध नहीं है, इसे तो शुरू में ही मान लिया गया था । ऐसे में उनके हवाले से  हिंदुत्व-विरोधी अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन के आयोजकों को जान से मार देने तक की धमकियों और अपशब्दों पर पर्दादारी की कोशिश एक प्रकार का मिथ्याचार ही था । यह जो हो रहा है उससे इंकार तो प्रत्यक्ष से इंकार की तरह है । आज आरएसएस-भाजपा की कार्यपद्धति का यह एक सर्वज्ञात-सर्वमान्य रूप है । इसी संदर्भ में हमने देवदत्त पटनायक के एक साक्षात्कार को फेसबुक पर साझा किया है जिसमें उन्होंने अपने मिथकीय तत्त्वों के आधार पर जीवन में श्रीवृद्धि से जोड़ कर सनातन धर्म के सम्यक रूप को रखा है ।


हमारी नजर में ‘सत्य हिंदी’ की इस लंबी चर्चा में विषय को परखने का जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू एक सिरे से छूट गया, वह यह था कि एक जनतांत्रिक समाज में राजनीतिक दल, वह भले आरएसएस की तरह संस्कृति के नकाब में ही क्यों न काम करें, का मायने क्या है ? वे हमेशा खास वैचारिक-सामाजिक समूहों के समुच्चय होते हैं । पूरा राजनीतिक यथार्थ इनके एक समग्र समुच्चय से बनता है । इन सबके अपने कुछ आंतरिक अन्तर्विरोध होते हैं, तो अन्य समुच्चयों के साथ भी इनके संपर्क और अन्तर्विरोध होते हैं । इनके आधार पर ही वह समीकरण तैयार होता है जिससे पूरे समाज की द्वंद्वात्मक गति का रूप तैयार होता है । सवाल है कि इस द्वंद्व में आरएसएस-भाजपा का समुच्चय किसका प्रतिनिधित्व करता है ? क्या वे समन्वयवादी धर्म-निरपेक्षता के खिलाफ विभाजनकारी सांप्रदायिकता का प्रतिनिधित्व नहीं करते ? क्या इनके इस सत्य को इनके चंद नेताओं के कुछ भाषणों से खारिज किया जा सकता है ? कोई भी राजनीतिक विश्लेषक अगर देख सकता है तो वह इन बातों से सिर्फ आरएसएस-भाजपा की मृत्यु के संकेतों को देख सकता है । इसके अलावा इन बातों का कोई दूसरा मायने नहीं हो सकता है । 

 

जो भी हो, ‘सत्य हिंदी’ की इस बहस के अंत में हमें राहुल देव जहां यह कहते हुए दिखाई दिये कि यह सब चुनाव का खेल है जिसके लिए सब प्रकार के विभाजनकारी हथकंडे अपनाए जाते हैं, तो नरेन्द्र तनेजा भाजपा के अंदर अपनी उपस्थिति का हवाला देते हुए यह विश्वास दिला रहे थे कि यकीन मानिये, भाजपा इस देश को तोड़ना नहीं, एक महाशक्ति के रूप में मजबूत करना चाहती है ! आरएसएस के सत्य को जो जानते हैं, वे यह जानते हैं कि यह अन्ततः एक गोपनीय संगठन है । ऐसे संगठनों का सच उन सभाओं में सामने नहीं आता है, जिनमें तनेजा की तरह के बौद्धिकों की भी उपस्थिति हुआ करती है ! अभय दुबे, विनोद अग्निहोत्री और खुद आशुतोष को अब और दलीलों की जरूरत नहीं रह गई थी ।  


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