(25 जून 2022 को नई दिल्ली के हरकिशन सिंह सुरजीत भवन में 'अथातो चित्त जिज्ञासा' के विमोचन समारोह में अरुण माहेश्वरी का वक्तव्य)
यह हमारा एक प्रत्युत्तर है । प्रत्युत्तर उस दबाव का जो लगभग तीन दशक से भी ज्यादा काल से लगातार गहरा रहे विचारधारात्मक गतिरोध के अहसास से पैदा होता है । सोवियत संघ और समाजवादी शिविर का पतन और तब से अब तक जारी यह कालखंड — कह सकते हैं उस गतिरोध का एक जीता-जागता स्वरूप । हम जैसे राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए यह उसकी कामनाओं के एक ऐसे परासत्य के गुम हो जाने की तरह है जो उसे वेग देता है, क्रियाशील बनाता है । राजनीतिक कार्यकर्ता — अर्थात् वह जिसे अपने राजनीतिक कामों की प्रकृति की वजह से ही ग्राम्शी ने एक बुद्धिजीवी ही माना था । दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियां अपने सम्मेलनों में, खास तौर पर ‘विचारधारात्मक प्रश्नों पर’ (On ideological question) की तरह के प्रस्तावों में इस गतिरोध की एक तस्वीर बनाने की कोशिश करती रहती हैं । लेकिन मामला वही है कि — ‘तस्वीर बनाता हूं तेरी, तस्वीर नहीं बनती’ । हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि अब तो ‘दिल के बहलने की भी तदबीर नहीं बनती’ । अर्थात् कम्युनिस्ट पार्टियों के अपने भाषाई औजारों से इसकी कोई वास्तविक तस्वीर बन ही नहीं पा रही है !
और जिसे भाषा में न उतारा जा सके, उस अहसास की कोई सही अवधारणात्मक समझ कैसे संभव है ! उससे उठने वाले सवालों के जवाब तो और भी बाद में आते हैं ।
आज सारे रंगों को खर्च करके भी जो तस्वीर न बन पाए, उसके सामने हम हताश यह पूछ रहे हैं कि आखिर वह ‘रंगे वफा’ कहां है जो इस तस्वीर को बनाने, विषय को समझने के लिए जरूरी है ? सच यह है कि हम जिन रंगों से, विचार के जिन सख्त ढांचों से इस परिस्थिति की सूरत समझना चाहते रहे हैं, वे रंग और कूची, वह पूरा ढांचा ही कुछ इतना बेढब या सीमित साबित हो रहा है कि उसके चलते इस सूरत को भाषा के आवरण में लाना अभी असंभव सा लगता है । अब तो लगने लगा है कि विचार की निश्चयमूलक, जड़ विश्लेषणात्मक श्रेणियों में उलझे हुए पार्टियों के गतानुगतिक राजनीतिक कर्मकांडों की तरह के प्रस्तावों से उसे शायद कभी नहीं साधा जा सकता है । ये तमाम औजार उलझनों को खोलने के बजाय गतिरोध को कहीं ज्यादा कठिन और घना बना रहे हैं !
कहना न होगा, यही वह परिस्थिति होती है जब शक्ति अर्जित करने के लिए गांधारी अर्थात् अंधकार का सामना पूरी तरह से नग्न हो कर करना होता है । इस उपक्रम में दुर्योधन की तरह शरीर पर बचा हुआ हर वस्त्र महज कमजोरी का सबब लगता है ।
मित्रो, इसी से जाहिर है कि संकट कितना कठिन और गहरा है । और अपने जिन जाने हुए सामान्य हथियारों से इस जड़ता का बाल भी बांका न होता हो, उनसे ही इसके मुकाबले की कोशिश, कोई मुकाबला ही न करने से भिन्न कोई अर्थ नहीं रखती है ! आज समस्या यह है कि जिसे हम नहीं जानते उसकी संज्ञानात्मक पहचान कायम करनी है ।
यह कहने की जरूरत नहीं है कि जब हम किसी पूरी तरह से अबूझ, कठिन से कठिन विषय को भी क्रमिक रूप में, बिल्कुल प्रारंभ से रूपायित करते हुए आगे बढ़ते हैं तभी वह स्थिति भी आती है जब वह पाठ दिन के उजाले की तरह स्वच्छ और सरल होता जाता है । इस प्रकार की एक तत्त्व मीमांसक खोज की सबसे पहली जरूरत तो यह है कि विषय के मूल को, प्रमाता (subject) की प्राणीसत्ता (being of the subject) की उपस्थिति को जानें और उसकी उपस्थिति की मांगों पर गौर करें ।
मसलन् जब दाव पर विचारधारा हो तो सबसे पहली जरूरत है कि विचारधारा की ही प्राणीसत्ता की ओर रुख किया जाए । विचारधारा की प्राणीसत्ता और कहीं नहीं, सिर्फ मनुष्य में स्थित होती है । हमारे लिए इस विषय का एक अतिरिक्त पहलू होता है, सिर्फ मनुष्य नहीं, परिवर्तनकारी मनुष्य । सर्वहारा । इसके चलते ही यहां विचारधारा की प्राणीसत्ता खुद में एक प्रमाता (subject) भी हो जाती है । प्रमाता, अर्थात् समस्त चराचर जगत से सम्बद्ध, स्वयं को बनाने-बिगाड़ने, छिपाने और खोलने वाला प्रमाता । प्रमाता की तात्त्विकता स्वयं में नहीं उसके संबंधों में निहित होती है । सर्वहारा के साथ ही जुड़ा हुआ कम्युनिस्ट पार्टियों का वह पूरा ढांचा भी उभर कर सामने आता है जो इस प्रमाता की अपनी समस्त कामनाओं तक पर, एकाधिकार की हद तक अपनी संपूर्ण दावेदारी करता है । इस प्रकार क्रांतिकारी राजनीति के लिए सर्वहारा इतिहास में एक आत्म (subject) और वस्तु (object) दोनों ही रूप में हमारे सामने आता है ।
मित्रो, यही वह बिंदु है जहां से किसी भी प्रमाता से जुड़े इतिहास की गति के थम जाने, अर्थात् एक गहरे, अभेद्य प्रकार के गतिरोध के पैदा होने का एक स्थायी खतरा भी पैदा होता है, क्योंकि किसी भी काल में आत्म और वस्तु के एकाकार होने, उनके बीच किसी फासले के न रहने को ही तो गतिरोध कहा जाता हैं । किसी भी प्रमाता और उसके वस्तु रूप के बीच की दरार से ही उसमें गति पैदा होती है । वस्तु का अभाव ही उसमें गति का कारक होता है । आत्म और वस्तु की एकात्मता तो अद्वैत के परम भाव की मानिंद है जिसकी आगे कोई गति नहीं हुआ करती है । यहां पहुंच कर सारी चीजें थम जाया करती है । यही वजह है कि हम जिस विचारधारात्मकक गतिरोध की आज चर्चा कर रहे हैं, उसके वर्तमान हालात में सर्वहारा नहीं, बल्कि उसकी भी प्राणीसत्ता से अपने विचार का प्रारंभ करना होगा । इतिहास में सर्वहारा के रूप में मजदूर वर्ग की सिनाख्त से पैदा होने वाले वैचारिक संकट पर हम पहले भी एरिक हाब्सवाम के हवाले से अपने एक लंबे लेख (हम भी अपनी एक हवा बांधते हैं) में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं । यहां हमारा तात्पर्य सिर्फ इतना है कि जब इतिहास में एक प्रकार का अभेद्य गतिरोध उपस्थित होता है, तब और भी जरूरी हो जाता है कि मनुष्य के रूप में विचारधारा की प्राणीसत्ता को केंद्र में रखते हुए विश्लेषण की उस नई धारा की खोज की जाए जो सामाजिक रूपांतरणकारी शक्ति के तौर पर सर्वहारा में मनुष्य के स्थानांतरण को भी नए सिरे से परिभाषित करते हुए, उस पर लाद दी गई अनेक वस्तुगत जड़ताओं से उसे मुक्त कर सके ।
शक्ति अर्जित करने के लिए गांधारी के सामने अपने सारे आवरणों को त्याग कर उपस्थित होने की बात का एक तात्पर्य यह भी है । यह एक प्रकार से सर्वहारा की विचारधारा के लिये ही चिन्तन को पूरी तरह से मानव-केंद्रित करते हुए आगे बढ़ने की मांग है । यह मनुष्य के शरीर की तरह ही उसके गठन के मूलभूत अवयव के तौर पर भाषा की प्रकृति को भी विचार का विषय बनाने की मांग है । पारंपरिक भाषा की बाधाओं से मुक्त होकर नई भाषा को हासिल करने की बात है । भाषा से ही यह जाहिर होता है कि कोई चिंतन क्या चिंतन कर रहा है । भाषा जो अभी एक बाधक की भूमिका में दिखाई देती है, जो अपनी तमाम कसरतों के बावजूद कुछ प्रेषित नहीं कर पा रही है, उसे ही पुनः अपने प्रभावी सहयोगी के रूप में अर्जित करने का आग्रह है । और इसी उपक्रम में आगे, मार्टिन हाइडेगर की भाषा को उधार लेकर कहें तो चिन्तन को काव्यात्मक बनाने, उसे परिस्थिति के मर्म तक ले जाने की मांग है ।
मित्रो, कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन के नियमों का उद्घाटन किया और हमें एक ऐसे विज्ञान से परिचित कराया, जिसकी अवहेलना करके आज किसी भी सामाजिक-आर्थिक परिघटना की समाजशास्त्रीय व्याख्या असंभव लगती है । इस विज्ञान की बदौलत ही सामाजिक अन्तर्विरोधों का विश्लेषण अब बहुत बड़ी समस्या नहीं रह गई है । इस अर्थ में कहा जाए तो अब सारी समस्या सामाजिक परिवर्तन को साधने की प्रक्रिया के अवयवों की परत-दर-परत समझ में सिमट गई है । इसमें मनुष्यों का पूरा समस्त जगत समा जाता है । आज के वक्त मनुष्यों के सामाजिक-सामूहिक रूप के अतिरिक्त एक अकेले मनुष्य और उसकी सामाजिकता का पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता, जो हमें सामाजिक परिवर्तन की तरह के विषय की प्राणीसत्ता के सबसे ज्यादा करीब तक ले जा सकता है ।
जब भी हम आदमी को उसकी एक निश्चित सामाजिक पहचान मात्र के रूप में देखते हैं, पिता, माता, संतान, किसान, मजदूर, कर्मचारी, आदि-आदि मात्र में सीमित करके देखते हैं तो हमारी सोच के दायरे से ऐसा बहुत कुछ अनिवार्य तौर पर छूट जाता है जो मनुष्य के रूप में उसकी प्राणीसत्ता से अभिन्न रूप में जुड़ा होता है । उसके शरीर और उसकी भाषा तथा प्रतीकात्मक जगत के अनेक पहलू हमारे दायरे के बाहर चले जाते हैं । हम यह समझने में असमर्थ हो जाते हैं कि क्यों और कैसे कोई कंगाल हो चुका, अर्थात् अपने भौतिक जगत के संग्राम में पराजित व्यक्ति भी अपने अंतर में लगातार नाना प्रकार के समर आयोजनों में खुद को विजयी मान कर जीया करता है । लू शुन का आ क्यू, भौतिक जीवन में पराजित पर आत्मिक समर में विजयी होने के भाव में जीने वाला चरित्र, सिर्फ व्यक्ति का सच नहीं होता, वह पराजित और कमजोर राष्ट्रों का भी सच हुआ करता है । नोटबंदी से अपना सब कुछ लुटा चुका व्यक्ति उसमें ही अपनी विजय देख कर आह्लादित होता है !
मित्रो, यह उस inter-subjectivity, मनुष्यों के सामूहिक व्यवहार का भी एक मामला है कि कैसे कोई एक पूरा समाज सच को देख कर भी शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाये भेड़ से भी पालतू प्राणीसत्ता का परिचय देने लगता है और कोई प्रताड़क प्रत्येक के पिछवाड़े के पंख कतर कर बटोर ले जाता है !
राजनीतिक चिंतन की संभावनाओं को बनाए रखने के लिए ही मनुष्यों के इस अंतर के सत्य को संज्ञान में लेना जरूरी है । राजनीतिक चिन्तन के केंद्र से मनुष्य को अपसारित करना वैसा ही है जैसे व्यक्ति की निजी कामनाओं को पूरी तरह से दरकिनार उसकी क्रियाशीलता पर विचार करना । पर यथार्थ में तो वे कामनाएँ कभी अपसारित होती नहीं हैं । जिसे हम अपने अंदर ही निष्काषित रखते हैं, वही हमारे अवचेतन के जरिए हमें लगातार प्रभावित करती है, हमारे तार्किक-अतार्किक व्यवहारों के कारक की भूमिका अदा करती है । इसीलिए, चिंतन के हर नए उपक्रम में उसी अपने अंदर के ही निष्काषित अंश की तलाश ही वस्तुतः प्रमाता की प्राणीसत्ता की तलाश बन जाती है ।
मित्रो, यह बेवजह नहीं है कि चिन्तन मात्र की ही चर्चा करते वक्त हमें चिन्तन और काव्य के बीच एक प्रकार के नैसर्गिक संबंध की हाइडेगर की बात याद आती है । मार्क्स का लिखा हर वाक्य अपनी सारगर्भिता की वजह से ही हमें कभी किसी कविता से कम नहीं लगता है । पचास साल पहले जिस शिद्दत से हम उन्हें पढ़ रहे थे, आज भी उसी शिद्दत से पढ़े जा रहे हैं ।
बहरहाल, विचारों की दक्षिणपंथी धारा का अर्थ ही है विचार की एक जड़, चिंतन-विरोधी धारा जो जीवन में हर परिवर्तन की धुर विरोधी, कला और साहित्य में मूलतः मूर्तिभंजक और विज्ञान तथा अकादमिक जगत में परंपरापूजक, गोबरपंथी और प्रेम के मामले में प्रभुत्ववादी, स्त्री-विरोधी होती है । पर जब वामपंथी जगत में भी हम नितांत जड़सूत्रों से गुंथी गई निर्जीव, शुष्क और सपाट भाषा का साम्राज्य देखते हैं, तो लगता है जैसे हम चिंतनशून्यता के किसी युग में ही जी रहे हैं । हम आज जिसे अपना प्रत्युत्तर कह रहे हैं वह इसी चुनौती के जवाब की तरह है । सचमुच, राजनीतिक चिंतन के बने रहने की ही शर्त है कि वह अपने सामान्य कर्मकांडों के परे की एक नई भाषा की तलाश करे ।
ऐसे ही तमाम दबावों के चलते ही हम विगत दस सालों में खास तौर पर उन विचार पल्लियों के चक्कर काटने लगे जो तब तक हमारे लिए लगभग निषिद्ध क्षेत्र बनी हुई थीं। और उन्हीं रास्तों पर, यह इत्तेफाक रहा कि लगभग एक साथ हमारी मुलाकात फ्रायड के महान शिष्य और मनोविश्लेषण की धारा को चिंतन के क्षेत्र में दर्शनशास्त्र से भी आगे ले जाने वाले फ्रांसीसी मनोविश्लेषक जॉक लकान और भारत के हजार साल पहले के चिंतक, दार्शनिक, भाषाविद्, सौन्दर्यशास्त्री और तंत्रालोक के प्रणेता अभिनवगुप्त से हुई । जैसे अभिनवगुप्त ने भारतीय चिंतन की अन्य तमाम धाराओं की सीमाओं से टकराते हुए उनके प्रत्युत्तर में अपने उस प्रत्यभिज्ञादर्शन को प्रस्तावित किया, जो मूलतः मनुष्य की आत्म-पहचान के दर्शन के रूप में पिंड से ब्रह्मांड तक, सबको अपने चिंतन के दायरे में लाता है और भारतीय चिंतन की प्रभुत्वशाली अद्वैतवादी धारा, परम के समक्ष अपनी निजी सत्ता को पूरी तरह से तिरोहित करने में ही मुक्ति के विचार को चुनौती देते हुए मनुष्य के स्वातंत्र्य को उसके परम लक्ष्य के रूप में पेश किया, ठीक उसी प्रकार लकान ने भी मनोविश्लेषण के सिद्धांतों को तत्त्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा के सभी क्षेत्रों की समस्याओं से जोड़ कर अपने व्यापक कामों से यहां तक दावा किया कि आने वाले समय में मनोविश्लेषण की भाषा ही चिंतन की मुख्यधारा के स्थान पर होगी, क्योंकि उसके केंद्र में उन्होंने मनुष्य के लक्ष्य को, स्वयं में ही निष्काषित करके रखी हुई कामनाओं के आब्जेक्ट ए (objet petit a) को, उसके अंतर की अलभ्य वासनाओं को रखा, और व्यक्ति और जगत के उनमुक्त, अनंत विकास का परिप्रेक्ष्य पेश किया । आज यहां हमें यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि यदि हमने अभिनवगुप्त के जरिए प्रत्यभिज्ञादर्शन, तंत्रालोक, सिद्धित्रयी और आनंदवर्धन के ध्वन्यालोक को न जाना होता तो हम सिगमंड फ्रायड के अनूठे शिष्य जॉक लकान को कभी नहीं जान पाते, जिनके मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर विचार करने वाला हर विचारक एक स्वर में उनके लेखन को उसमें प्रयुक्त अनेक संक्षिप्त और सूत्रमूलक संज्ञाओं तथा अनायास ही आने वाले मनोविश्लेषण की धारा से भिन्न, अन्य चिंतन प्रणालियों के संदर्भों की वजह से बेहद जटिल और कठिन बताता है । सचमुच किसी के लिये भी यह एक चौंकाने वाली बात हो सकती है कि अभिनवगुप्त और आनंदवर्धन से ही हमें लकान की तरह के इस कठिन समझे जाने वाले सर्वाधुनिक विश्लेषक के सूत्रों को समझने की भाषा मिल पाई । बाकी इनके बीच की भिन्नता का विषय अलग है, जिसे हमने अपनी किताब में बाकायदा रेखांकित किया है । हमने तो यहां तक कहा है कि यहां उत्पलदेव-अभिनवगुप्त का प्रत्यभिज्ञादर्शन अपने पैरों के बल खड़ा है ।
इस बात में हमें कभी कोई संदेह नहीं रहा है कि हर घटनाक्रम अपने साथ ही अपने अंत के गह्वर को तैयार करता जाता है । हर दृश्य को अदृश्य होना होता है और वह अदृश्यता कैसे घटित होती है, उसके लक्षण उसके नाना प्रकट रूपों के बीच से ही अपने को जाहिर करते हैं । ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ में कार्ल मार्क्स ने जब पूंजीवाद के जन्म के साथ ही सर्वहारा के रूप में उसकी कब्र खोदने वाली शक्ति के जन्म की बात कही थी तो वह पूंजीवाद के एक गह्वर की ही सिनाख्त थी, जो मूलतः प्रमाता के अस्तित्व की पहली क्रिया से जुड़ी होती है और प्रमाता की गति की नियति की सूचक भी । किसी भी घटना के नए सत्य के प्रकट होने का अर्थ है एक नए प्रमाता (subject) का जन्म, एक नए संदर्भ का प्रकट होना । इसे तलाश कर ही विचारों की दुनिया में भी सभी स्तरों पर अपनी आत्म-पहचान की कोई नई प्रक्रिया शुरू हो सकती है ।
मित्रो, अगर कोई इस पूरे, विगत दस साल से भी अधिक के दौर के हमारे लेखन को देखें तो उसे हमारी इन प्रमुख चिंताओं के सूत्र को पकड़ने में शायद कोई दिक्कत नहीं होगी । यही वह काल रहा है जब हमने ‘आलोचना के कब्रिस्तान से’ के सभी, और ‘आलोचना की नई दृष्टि की तलाश’ संकलन के प्रमुख लेख लिखें । वे सब प्रगतिशील-जनवादी साहित्य आंदोलन के पर्यवसन की एक समझ बनाने की कोशिश थी । इतिहास के एक खास क्षण, सोवियत समाजवादी क्षण से टंकी हुई साहित्य दृष्टि की पहचान की कोशिश थी । और कहना न होगा, यह उसके पतन के गह्वर की सिनाख्त भी थी ।
इसी अर्थ में ‘गह्वर अपने-अपने’ स्वयं में एक तत्त्वमीमांसक दर्शनशास्त्रीय श्रेणी है जो वस्तु के उदय और अस्त को उसके तत्त्वमूल से हमेशा जोड़ कर देखती है ।
गह्वर — सिगमेंड फ्रायड ने लगभग एक दार्शनिक श्रेणी के रूप में ही इस पद की चर्चा की है — ‘Vel’ । वह गह्वर जिसमें subject को, प्रमाता को अदृश्य होना है । फ्रायड के श्रेष्ठ शिष्य जॉक लकान ने फ्रायड के द्वारा प्रयुक्त, पर मनोविश्लेषण की परवर्ती चर्चाओं में सर्वाधिक उपेक्षित रख दिये गये, इस पद की ओर दुनिया का ध्यान खींचा था । यह प्रमाता की एक ऐसी मजबूरी है जो उसके अस्तित्व की प्रथम क्रिया से, अर्थात् उसकी तात्त्विकता से जुड़ी हुई है । यह गह्वर उसके स्व के साथ, उसके अस्तित्व की सूचना के साथ ही तैयार हो जाता है, जो उसे अन्य से अलग भी करता है । यह जीवन के साथ मृत्यु के संबंध की तरह है । हजारों शुक्राणुओं की मृत्यु के बीच से एक-दो को मृत्यु तक पहुंचने के पहले मिलने वाले काल के अंत की तरह। यही काल प्रमाता में अन्य से अलगाव का बीजारोपण भी होता है, जो प्रमाता की प्रत्येक क्रिया के साथ बढ़ता जाता है, उसकी अपनी दिशा की लकीर बनने लगती है । इसीलिए प्रमाता की गति की समझ के लिए उसकी ओर दृष्टि रखना किसी भी लिहाज से गलत नहीं है ।
जैसे हेगेल ने सभ्यता के इतिहास में दास प्रथा के जन्म का कारण बताते हुए कहा था कि जब आदमी को मृत्यु अथवा दासता के बीच एक को चुनने के लिए बाध्य किया जाता है तो दासता का गह्वर उसकी मजबूरी हो जाता है । मजबूरी के इस गह्वर में मृत्यु का पहलू ही प्रमाता को अंतिम रूप से संचालित करता है । प्रमाता का यही क्षण हेगेलियन क्षण कहलाता है । इस पर तीखी नजर रख कर प्रमाता के उस अंत का संधान पाया जा सकता है जहां उसका अदृश्य हो जाना उसकी नियति होता है ।
मित्रो, प्रमाता के विश्लेषण को इस हद तक उसके तात्त्विक सत्य से जोड़ कर देखने की प्रवृत्ति के कारण ही हम मनोविश्लेषक जॉक लकान को दार्शनिकों के दार्शनिक के रूप में पाते हैं । उन्होंने यह स्थान अपने मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के दर्शन-विरोधी दर्शन के बल पर अर्जित किया है । कार्ल मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र के दर्शन-विरोधी दर्शन की तरह ही लकान के चित्त संबंधी इस चिंतन के गहरे समंदर में हम प्लेटो से लेकर हेगेल-हाइडेगर तक की सभी दार्शनिक धाराओं को तो विलीन होते हुए देखते ही हैं, साथ ही समाजशास्त्र, विज्ञान और गणितीय चिंतन की धाराएं भी इसमें समाहित है । चिंतन की लकानियन संरचना में एक सर्वोपरि स्थान भाषाशास्त्र का भी है । कहना न होगा, हमारे तंत्रशास्त्र में भी मनुष्य के आत्म-विस्तार का यही आधार है ।
अभी सोचता हूँ तो बार-बार यही लगता है कि सचमुच लकानियन पद्धति चिंतन की गहनता का एक ऐसा रूप है जिसमें सिर्फ प्रवेश का पथ है, इससे निकलने का मौत के सिवाय कोई अन्य रास्ता नहीं है । जैसे मार्क्स से आपकी मुक्ति नहीं है । आप एक बार प्रवेश करने के बाद सिर्फ उसी प्रकार अदृश्य हो सकते हैं जैसे हमारे अभिनवगुप्त के बारे में कहावत है कि वे गुलमर्ग के रास्ते की एक गुफा में अपने शिष्यों के साथ अदृश्य हो गये थे । कोई उनके अंत के बारे में और कुछ नहीं जानता । जॉक लकान दुनिया के ऐसे ही एक दार्शनिक हैं जिनमें सिर्फ प्रवेश का पथ होता है, निकास का नहीं ।
वस्तु की तत्त्वमीमांसा का सत्य यही है, जो आपको अंततः अनिवार्य तौर पर वस्तु के पूरी तरह से अदृश्य हो जाने की हद तक ले जाता है । किसी भी कहानी का वास्तविक अंत वहीं होता है ।
मित्रो, अपनी इस पुस्तक को प्रस्तावित करते हुए हमने खुद को लगातार एक राजनीतिक कार्यकर्ता कहा है । दरअसल, यह लकान की ही शिक्षा है जिसमें वे दर्शनशास्त्र की सीमा को बताते हुए उसे अनिवार्य तौर पर दार्शनिक की प्राणीसत्ता से जोड़ते हैं । इस प्रकार वे दर्शन में एक प्रमाता (subject) और प्रमातृत्व (subjectivity) दोनों देखते हैं । सचमुच विचार के किसी भी रूप को विचारक के प्रमातृत्व से काट कर नहीं रखा जा सकता है । यही सीख हमें यहां बार-बार अपनी subjectivity की याद दिलाती है । हम इस अपने प्रकार के गहरे अकादमिक और ऊपर से जटिल से नजर आने वाले काम को भी उससे अलग नहीं कर सकते हैं ।
यह समूचा उपक्रम हमारे लिए भाषा के एक नए और किंचित भिन्न भुवन में बसने की तरह था । किसी भी नए भुवन में बसने का अर्थ होता है खुद को एक भिन्न परिवेश में रखना । अगर किसी भी वजह से ऐसा नहीं हो पाता है, हम नए परिवेश के नए जगत की अपनी पहचान नहीं कर पाते हैं, उसमें हमेशा अपने जाने हुए जगत की ही छवि देखते रहते हैं, तो कहना न होगा, ऐसा कहीं जाना, और न जाना, दोनों एक समान होता है । नए परिवेश में अपने को रखने का मतलब ही होता है, उन चीजों को देखना और उनसे परिचित होना जिनसे हम पहले परिचित नहीं होते हैं । जीवन में साहित्य कला की यही तो सबसे बड़ी भूमिका है । अन्यथा खुद के बाहर झांकने, आत्मरति से निकलने की संभावनाएँ कितनी कम हो जाती है !
बहरहाल, आज सारी दुनिया के विश्वविद्यालयों में Psychoanalysis को साहित्य आलोचना के एक सिद्धांत के रूप में भी पढ़ाया जाता है । फ्रायड के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों में साहित्य आलोचना के सिद्धांतों Theory of literary criticism के एक नये आयाम को स्थापित करने में जॉक लकान के लेखन की सबसे बड़ी भूमिका है जिसमें वे मनोविश्लेषण के केंद्र में मनुष्य के द्वारा कला और साहित्य में रचे जाने वाले दृश्यों को अतीव महत्व के स्थान पर रख पाए हैं । साहित्य मनुष्य की आत्मा का शिल्पी होता है, इस कथन के क्रियात्मक पहलू को वे मूर्त कर पाए हैं । इसीलिए साहित्य की आलोचना में फ्रायड के अध्ययनों का पहले से ही जो महत्व रहा है, उसे लकान ने अपने काम के जरिए साहित्य आलोचना के सिद्धांतों का एक अभिन्न अंग बना दिया है । हमें यह कहने में आज जरा भी संकोच नहीं है कि बिना मनोविश्लेषण के सिद्धांतों को आयत्त किए साहित्य आलोचना की ओर, जिसमें कृति के रूप में प्रमाता और लेखक के प्रमातृत्व, दोनों के विश्लेषण का ही समान रूप से महत्व होता है, शायद एक क़दम भी नहीं बढ़ाया जा सकता है । हमें लगता है कि शायद इस पुस्तक में यह हमारी एक खास उपलब्धि रही कि फ्रायड और लकान के सिद्धांतों के साथ अनायास ही भारत के श्रेष्ठतम दार्शनिक अभिनवगुप्त, स्वयं की पहचान के लिए ‘अन्य’ की उपस्थिति के अभिज्ञान पर टिके उनके प्रत्यभिज्ञादर्शन और आनंदवर्धन के ध्वन्यालोक की टीका में भाषा और साहित्य पर उनके विचार हमारे इस अध्ययन में समाहित होते चले गए हैं। आज लगता है कि जैसे यह सब अनायास ही भारतीय साहित्य आलोचना के अधुनातन सिद्धांतों की एक भाषा को हासिल करने की हमारी विकलता , लकान की भाषा में हमारे jouissance का ही परिणाम है।
अब किताब पाठकों के हाथ में है । हम जानते हैं, इसकी पहुंच की सीमाओं को । यह कोई उपन्यास नहीं है । पर जिसकी भी रुचि आलोचना के आधुनिक द्वंद्वात्मक भौतिकवादी सिद्धांत में होगी, और जो इसकी एक सक्षम भारतीय भाषा की तलाश में होगा, उसके लिए यह पुस्तक एक हद तक उपयोगी साबित हो सकती है ।
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