बुधवार, 2 नवंबर 2022

विमर्श के लिए शब्द ज़रूरी नहीं होते हैं

—अरुण माहेश्वरी 




अभी चंद रोज़ पहले कोलकाता में गीतांजलि श्री जी आई थीं प्रश्नोत्तर के एक उथले से सत्र के उस कार्यक्रम में घुमा-फिरा कर वे यही कहती रहीं कि उन्हें इस बात की परवाह नहीं हैं कि कोई उनके उपन्यास के बारे में क्या राय रखता हैं । उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि ‘वे सोशल मीडिया तो देखती ही नहीं हैं’  लेकिन सच्चाई यह है कि मेनस्ट्रीम मीडिया में तो उन्हें मिले पुरस्कार की सिर्फ पंचमुख प्रशंसा वाली रिपोर्टिंग ही हुई है , उपन्यास की प्रशंसा या आलोचना की गंभीर चर्चाएँ तो अब तक सोशल मीडिया पर ही हुई हैं । 


गौर करने की बात थी कि इस मीडिया को  देखने के बावजूद इस पूरी वार्ता में वे अपने आलोचकों को ही जवाब देने मेंसबसे अधिक तत्पर नज़र  रही थीं  अपने आलोचकों के जवाब में उन ‘ढेर सारे’ पाठकों की प्रतिक्रियाओं का हवाला दे रही थीं, जो उनके उपन्यास में अपने घर-परिवार के चरित्रों को और अपनी निजी अनुभूतियों की गूंज-अनुगूँज को सुन कर मुग्ध भाव से उन तक अपने संदेश भेजते रहते हैं  अर्थात्एक लेखक के नाते उन्हें परवाह सिर्फ अपने इन आह्लादितपाठकों की हैंआलोचकों की नहीं ! 


गीतांजलि श्री जी का यह व्यवहार कि जिन आलोचनाओं को वह देखती ही नहीं हैं, उनके जवाब के लिए ही वे सबसे ज़्यादा व्याकुल हैं, यही दर्शाता है कि सचमुच किसी भी विमर्श के लिए ठोस शब्दों के पाठ या कथन का हमेशा सामने होना ज़रूरी नहीं होता है  लकान के शब्दों मेंइसे ‘बिना शब्दों का विमर्श ‘ कहते हैं। 


चूंकि हर विमर्श की यह मूलभूत प्रकृति होती है कि वह शब्दों कीकथन की सीमाओं का अतिक्रमण करता है, इसीलिए ठोस शब्द हमेशा विमर्शों के लिए अनिवार्य नहीं होते हैं  जो दिखाई नहीं देताया जिनसे हम मुँह चुराते हैंवही हमें सबसे अधिक प्रताड़ित भी किया करता है  इसे ही घुमा करखामोशी की मार भी कह सकते हैं  


गीतांजलि श्री आलोचना के जिन शब्दों को देखती ही नहीं हैंवे अनुपस्थित शब्द ही उनके अंदर ‘अन्य’ का एक ऐसा क्षेत्र तैयार कर देते हैंजो असल में ‘अन्य ‘ का अन्य नहीं होता हैवह उनके लेखन में ही निहित नाना संकेतकों के हस्तक्षेप से निर्मित एक अलग क्षेत्र होता है। जैसे होती है आदमी की अन्तरात्मा की आवाज़उसका सुपरइगो  


जो जितना सक्रिय रूप में अपने पर उठने वाले सवालों से इंकार करता हैवह उतना ही अधिक उन सवालों से अपने अंतर में जूझ रहा होता है  


अभी दिल्ली मेंहँस के साहित्योत्सव में अलका सरावगी अपने चर्चित उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाइपास ‘ के बारे में राजेन्द्र यादव के इस सवाल पर सफ़ाई दे रही थीं कि उनके इस उपन्यास में वह खुदयानी ‘स्त्री’ कहा है ? अलका जी का कहना था कि वह उपन्यास तो किन्हीं चरित्रों की कहानी नहीं हैवह तो कोलकाता के इतिहास की कथा है  


हमारा बुनियादी सवाल है कि कोलकाता का इतिहासया बांग्ला जातीयता के बरक्स मारवाड़ी जातीय श्रेष्ठता का इतिहास  ! कोलकाता का इतिहास और बांग्ला जातीयता का तिरस्कारक्या यह भी कभी साथ-साथ संभव है ! 


इसके अलावाजातीय श्रेष्ठता के प्रकल्प कमजोर और दबे हुए चरित्रों की उपस्थिति से कैसे निर्मित हो सकते हैं ? स्त्रियों का ऐसे प्रकल्प में क्या काम ! उनकी लाश पर ही हमेशा ऐसे प्रकल्प चल सकते हैं  ‘दुर्गा वाहिनी’ की कोई लेखिका क्या पूज्य हिंदू संयुक्त परिवार में स्त्रीत्व की लालसाओं की कोई कहानी लिख सकती है ? 


कहना  होगा, ‘कलिकथा वाया बाइपास‘ में लेखिका की गैर-मौजूदगी उस पूरे प्रकल्प की अपरिहार्यता थी  उसकी मौजूदगी तो वास्तव में उस पूरे प्रकल्प के लिए किसी ज़हर की तरह होता  


दरअसलअलका जी जिस बात को नहीं कहना चाहती हैउपन्यास में उनके  होने की बात नेअर्थात् उनकी अनकही बात से उत्पन्न विमर्श ने वही बात कह दी है। अर्थात्राजेन्द्र यादव के जवाब में उनकी बातों से यदि कोई विमर्श पैदा होता है तो वह असल में उनकी कही हुई बातों से नहींउन्होंने जो नहीं कहा हैउन बातों से ही पैदा होता है  


विमर्श इसी प्रकार  सिर्फ शब्दों की सीमाओं का अतिक्रमण करता हैबल्कि बिना शब्दों और बातों के भी पैदा हुआ करता है 

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