— अरुण माहेश्वरी
मोदी-अडानी, अर्थात् सरकार-कारपोरेट की धुरी का एनडीटीवी पर झपट्टा भारत केमीडिया जगत में एक घटना के तौर पर दर्ज हुआ है । एक ऐसी घटना के तौर पर जो अपनेवक्त के सत्य को सारे आवरणों को चीर कर सामने खड़ा कर दिया करती है । नंगे राजा केबदन के मांस, मज्जा को भी खींच कर निकाल देती है । आज का शासन हर स्वतंत्र आवाज़को पूरी ताक़त के साथ कुचल डालने के लिए आमादा है, इस पूरे घटनाक्रम ने इसे पूरी तरहसे पुष्ट कर दिया है ।
और, कहना न होगा, इस पूरी घटना को एक ठोस, वैयक्तिक रूप प्रदान किया है रवीशकुमार ने । एनडीटीवी पर सरकार-कारपोरेट धुरी का क़ब्ज़ा जैसे सिर्फ़ एक व्यापारिकमीडिया घराने की मिल्कियत पर एक और मालिक का क़ब्ज़ा भर नहीं, बल्कि भारतीयजनतंत्र में सच की आवाज़ का एक प्रतीक बन चुके रवीश कुमार का गला घोंटने कीकोशिश का भी सरेआम एक निर्मम, निकृष्ट प्रदर्शन है ।
इसमें शक नहीं है कि रवीश कुमार-विहीन एनडीटीवी का सचमुच स्वयं में कोई ऐसा विशेषमायने नहीं है, कि उस पर सत्ताधारियों के क़ब्ज़े को मीडिया जगत के लिए किसी अघटन केरूप में देखा जाता । पर रवीश महज़ एक एंकर नहीं रह गये हैं । वे इस समय में फ़ासिस्टदमन के प्रतिरोध और प्रतिवाद की आवाज़ के आदर्श प्रतीक के रूप में उभरे हैं ।
एक पत्रकार के रूप में उनकी कड़ी मेहनत, विषय की परत-दर-परत पड़ताल करने कीतीक्ष्ण दृष्टि, अदम्य साहस के साथ एक अद्भुत लरजती हुई आवाज और धीर-गंभीर मुद्रा मेंउनकी प्रस्तुतियों ने उनमें पत्रकारिता के एक उन श्रेष्ठ मानकों को मूर्त किया हैं जो दुनिया केकिसी भी पत्रकार के लिए किसी आदर्श से कम नहीं हैं ।
इसीलिए, आज उनका मज़ाक़ सिर्फ़ वे फूहड़ और बददिमाग़ लोग ही उड़ा सकते हैं, जोपत्रकारिता के पेशे में होते हुए भी किसी भी मायने में पत्रकार नहीं बचे हैं । वे या तो शुद्ध रूपमें सत्ता के दलाल है या ‘चतुर सुजान’ की भंगिमा अपनाए हुए महामूर्ख इंसान । वे मनुष्य केप्रतीकात्मक मूल्य के पहलू से पूरी तरह से अनजान, सिर्फ़ उसके हाड़-मांस के अस्तित्व कीही जानकारी रखते हैं और अपनी इसी जानकारी पर इतराते हुए आत्म मुग्ध रहा करते हैं ।मुख्यधारा के मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में ऐसे ‘चतुर सुजानों’ की आपको एकपूरी जमात नज़र आ जाएगी । ऐसे लोगों के लिए प्रमाता के प्रतीकात्मक मूल्य से इंकारकरके उसे लघुतर बनाना हमेशा एक खेल की तरह होता है । इसमें उन्हें कुछ वैसा ही मज़ाआता है, जैसे पौर्न के फेटिश खेल में जीवित इंसान को सिर्फ़ एक शरीर मान कर उससे मज़ालूटा जाता है ।
इस लेखक ने तीन साल पहले ही अपनी एक विस्तृत टिप्पणी में रवीश कुमार को भारतीयमीडिया की एक विशेष परिघटना कहा था । आज एनडीटीवी पर सत्ताधारियों के क़ब्ज़े केवक्त गंभीर पत्रकारिता की पूरी बिरादरी ने जिस प्रकार की भावनाओं को व्यक्त किया है, उससे भी यही ज़ाहिर हुआ है कि एनडीटीवी और रवीश कुमार की तरह की पत्रकारिता परकोई भी हमला पत्रकारिता-धर्म पर हमला है । यह जनतंत्र का एक स्तंभ कही जाने वालीएक प्रमुख संस्था पर हमला है ।
हम जानते हैं, सत्य को दबाने की जितनी भी कोशिश होती है, सत्य हमेशा नए-नए रूपों मेंसामने आने के रास्ते खोज लेता है । वह दमन की कोशिश की हर दरार के अंदर से और भीज़्यादा तीव्र चमक के साथ आभासित होता है। वह अपनी अनुपस्थिति में भी हमेशाउपस्थिति रहता है । मौक़ा मिलते ही सिर्फ़ लक्षणों में नहीं, ठोस रूप में भी प्रकट होता है ।सत्य की संभावनाओं का कभी कोई अंत नहीं होता है ।
इसीलिए रवीश की संभावनाओं का भी कोई अंत नहीं होगा । जो कीर्तिमान उन्होंने स्थापितकर दिया है, उसे शायद ही कभी कोई मलिन कर पायेगा । और इस घटना को उनकी पारीका अंत मानना भी पूरी तरह से ग़लत साबित होगा ।
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