बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

मनुष्य क्या है ?

 

गांधी-गोडसे वितंडा पर असग़र वजाहत ने एक जगह अपनी सफ़ाई में लिखा है — मनुष्य मनुष्य होता है, कोई देवता नहीं होता । गांधी भी एक मनुष्य थे और गोडसे भी एक मनुष्य । 

इससे पता चलता है कि वे यह नहीं जानते कि मनुष्य क्या होता है ? वे नहीं जानते कि मनुष्य सिर्फ एक शरीर, या एक प्राणी नहीं होता । उसके शरीर के साथ जुड़ा होता है उसका भाषाई अस्तित्व । वह एक सोचने-बोलने वाला प्राणी होता है । जन्म के बाद से ही अपनी शारीरिक प्राणीसत्ता से अलग  एक सामाजिक प्राणीसत्ता। उसकी यह आदिम विच्छिन्नता उसे भाषाई भेदों के जगत का प्राणी बनाती है । इससे ही हर मनुष्य की अपनी अलग-अलग पहचान होती है । 

इसीलिए ‘ मनुष्य मनुष्य होता है’ की तरह की दलील का कोई मायने नहीं होता । जब मनुष्य की श्रेष्ठता की बात की जाती है तो मानव योनि में जन्में प्राणी के लिए नहीं, मनुष्यत्व के उन गुणों लिए होती है जो मनुष्यों के प्रतीकात्मक जगत के संकेतों से परिभाषित होते हैं । उनसे ही हम गांधी को राष्ट्रपिता के रूप में और गोडसे को एक सांप्रदायिक हत्यारे के रूप में पहचानते हैं । गांधी और गोडसे पर कोई भी चर्चा उनके अस्तित्व की इन पहचानों के साथ ही शुरू हो सकती है, उन्हें अनदेखा करके नहीं । 

हम नहीं जानते कि कोई कथाकार कैसे मनुष्यों के समाज में शुद्ध ‘मनुष्यमात्र’ की कथा लिख सकता है ! यह वैसी ही कथा होगी, जैसी पंचतंत्र की कथाएं हैं जिनमें पशु-पक्षी मनुष्यों की शिक्षा की बातें कहते हैं । वहाँ चरित्र नहीं, बातें प्रमुख होती है । अगर मनुष्यों के बीच संवाद का मसला उतना ही सरल होता तो गांधी-गोडसे के संवादों को तोता-मैना के संवाद के रूप में भी रखा जा सकता था ! 

असग़र वजाहत की तरह के आम तौर पर अभिधा में एकायामी चरित्रों की उपदेशात्मक कहानियाँ लिखने वाले लेखक ही ऐसा कर सकते हैं, और उन्होंने यही किया भी है । इसी वजह से उन्हें ‘मनुष्य’ के नाम पर मनुष्य की जटिल अस्मिताओं के विषय के कुत्सित सरलीकरण के आरोप की बात कभी समझ में नहीं आ सकती है । यह अभिधा-शैली के लेखक की ख़ास विडंबना है । इस शैली के लेखक की कथित ‘कलात्मक उड़ान’ का शायद यही हश्र हुआ करता है !

-- अरुण माहेश्वरी

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