मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

बीजेपी की संघी प्राणीसत्ता को भूल कर उसके बारे में किसी सैद्धांतिकी का कोई औचित्य नहीं है


(हिलाल अहमद के लेख पर एक टिप्पणी)



−अरुण माहेश्वरी


आज के ‘टेलिग्राफ’ में हिलाल अहमद का एक दिलचस्प लेख है – ‘जनतांत्रिक’ बीजेपी के सामने चुनौतियां : संभावित अशांति । (The challenges faced by ‘democratic’ BJP : Potential Turbulence) इस ‘संभावित अशांति’ को दूसरे शब्दों में ‘अशनि संकेत’ भी कहा जा सकता है । 

यह लेख भारत की संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था की परिस्थिति में सत्ता में जमी हुई बीजेपी के बारे में है । किसी भी प्रमाता (subject) को खास पारिस्थितिकी (topology) में कीलित (wedged) करके देखने से उसकी जो एक जड़ छवि बन सकती है, भारत की जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में आरएसएस की राजनीतिक शाखा बीजेपी की ‘जनतांत्रिक बीजेपी’ वाली छवि, वैसी ही एक छवि है ।

हिलाल अहमद अपने इस लेख का अंत इस वाक्य से करते हैं – “ इस अर्थ में, एक जनतांत्रिक पार्टी के रूप में बीजेपी का बने रहना राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और जनतांत्रिक दृष्टि से वांछनीय है ।” (The survival of the BJP as a democratic party, in this sense, is politically crucial and democratically desirable.)

‘इस अर्थ में’ ! क्या तात्पर्य है इससे ? हिलाल अहमद बताते हैं कि – “बीजेपी सिर्फ एक राजनीतिक विचारधारा की प्रतिनिधि नहीं है; वह उतनी ही इस देश के जनतांत्रिक परिवेश का अंग भी है । उसके सामने जो भी चुनौतियां हैं वे हमारे जनतंत्र की व्यवहारिकताओं से जुड़ी हुई हैं ।”

किसी भी विषय पर विचार के क्रम में यही वह ‘तात्कालिकता’ का बिंदु है जब हम अनायास ही प्रमाता को उसकी अपनी प्राणीसत्ता (being) से बिल्कुल अलग करके उसे महज उसके तात्कालिक परिवेश की उपज, उसी तक सीमित, और उसी में पूरी तरह से जकड़ा हुआ मान लेते हैं । अर्थात् उसके जन्म, जीवन और मृत्यु के वृत्तांत को, पूर्वापर विवेचन को अर्थहीन समझते हैं । हम भूल जाते हैं कि हर निकाय की स्वयं के अपने नियम-नीतियों से आबद्ध अपनी एक प्राणीसत्ता होती है । शुद्ध रूप में विवेचित किये जाने पर वह अपनी प्राणीसत्ता के नियम से ही चालित होता हुआ नजर आ सकता है । राजनीतिक दलों की बहुत सी कर्मकांडों की तरह की गतिविधियों में उसे साफ देखा जा सकता है ।

जहां तक भाजपा का संबंध है, उसके अध्ययन के लिए तो किसी के भी लिए एक अतिरिक्त सुविधा यह है कि आरएसएस के रूप में उसका शुद्ध रूप सबके सामने बिल्कुल जीता-जागता, ठोस रूप में विद्यमान है । आरएसएस के तमाम राजनीतिक लक्ष्य हो सकते हैं, पर वह इसीलिए अपने को समग्र राजनीतिक परिवेश से अछूता रखे हुए हैं, क्योंकि उसने अपने को एक ऐसी स्थिति में रख छोड़ा है जब राजनीति के जगत की अन्य शक्तियों से सीधे अन्तर्क्रिया करने की उसके सामने कोई अनिवार्यता नहीं है । पर उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा को निश्चित तौर पर यह सुविधा नहीं मिली हुई है । राजनीतिक दल के नाते उसे समग्र राजनीतिक परिवेश में ही काम करना पड़ता है । इसीलिए, वह यह जानती है कि जनतंत्र में राजनीतिक दल क्या नहीं होता है; राजनीतिक दल अपनी पहचान को राजनीतिक दलों के बीच ही पाते हैं; और वह अपने को इसीलिए जनतांत्रिक राजनीतिक दल कहती है क्योंकि अन्यथा अन्य राजनीतिक दल उसे राजनीतिक दल ही नहीं मानेंगे ।

यही वजह है कि आरएसएस का जो एकचालिकानुवर्तित्व का सिद्धांत उस संगठन के समग्र क्रियाकलापों और सिद्धांतों पर लागू होता है, भाजपा के मामले में वह सिद्धांत कुछ हद तक पीछे छिप जाता है । चुनाव आयोग के कायदे-कानून और राजनीतिक गंठजोड़ों की जरूरतों के तमाम नीति-नियम स्वाभाविक तौर पर उस पर लागू होने लगते हैं । यहां तक कि उसे धर्म-निरपेक्षता की भी कसमें खानी पड़ती है । इस अर्थ में देखें तो वह अपने मूल संगठन, आरएसएस से विच्छिन्न हो जाती है ।  

यह प्रमाता की विच्छिन्नता का एक सामान्य नियम है । प्रमाता का अपना परिवेश उसके अवचेतन का स्थान होता है । जिस क्षण प्रमाता में इस अवचेतन का, अर्थात् उसके अंदर का अप्रकट प्रकट होता है, उसी क्षण उसमें एक विच्छिन्नता पैदा होती है । वह अपनी मूल प्राणीसत्ता से कटता जाता है । इसके अलावा, प्रमाता में अन्य के साथ संपर्क से एक क्षति भी पैदा होती है । वह जब अन्य में अपने को पाने की कोशिश करता है, तब वह वहां अपने को क्षतिग्रस्त अंश के रूप में ही पा सकता है । 

मनोविश्लेषण की भाषा में, आरएसएस बीजेपी का master signifier है, प्रमुख संकेतक, उसका एक ईश्वर । ईश्वर के नाते आरएसएस किसी न किसी रूप में बीजेपी को petrified, जड़ीभूत करता है। इससे भी राजनीतिक दल के रूप में उसकी अपनी सत्ता क्षतिग्रस्त होती है । अपनी इस क्षतिग्रस्त प्राणीसत्ता से भी विच्छिन्न हो कर प्रमाता के रूप में बीजेपी राजनीतिक जगत की संकेतक श्रृंखला में अपनी एक अहमइदम की, अन्य राजनीतिक दलों के संदर्भ से जुड़ी, पहचान हासिल करती है । और कहना न होगा, उसकी यही पहचान आरएसएस के साथ उसके नाभि-नाल संबंध को, उसकी नैसर्गिक पहचान को छिपाती है ।

बड़ी आसानी से सामान्य राजनीतिक टिप्पणीकार भाजपा की मूलभूत, संघी, एकचालिकानुवर्तित्व के सिद्धांत से जुड़ी फासिस्ट प्रवृत्तियों को भूल जाते हैं और उसके विच्छिन्न, राजनीतिक जगत के ढांचे में उसके पुनरोदित रूप को ही अपने मन में बसा लेते हैं । प्रमाता अपनी प्राणीसत्ता से विच्छिन्न हो कर इसी प्रकार उसके लिए प्रतीक्षारत भाषा के क्षेत्र में उदित होता है और अन्य के स्थान पर उत्कीर्ण (inscribed) हो जाता है, अर्थात् वह अन्य के कागज पर लिखा जाता है ।

जब भी कोई ‘जनतांत्रिक’ भाजपा की बात करता है, तो वह भूल जाता है कि यह उसका अपने मूल रूप से कटा हुआ एक भ्रष्ट रूप है, जो उसके खुद के नहीं, सिर्फ ‘अन्य’ के कागज पर लिखा होता है । जहां तक  उसकी अपनी मूल प्रकृति का सवाल है, वह अपनी जगह कायम है ; खास तौर पर भाजपा के मामले में तो आरएसएस के जरिए उसके निखालिस रूप में साक्षात मौजूद हैं । ‘अन्य’ के साथ उसका संबंध इस प्रकार का द्वंद्वात्मक होता है कि उसमें वह जितना अपने को खोता है, उतना ही अन्य के जगत में अपना स्थान बना पाता है, और जितना अपने में बना रहता है, उतना ही ‘अन्य’ से कटता जाता है । 

पिछले नौ साल के मोदी के शासन को देखिए । देश की सभी संवैधानिक और जनतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का हनन यही बताता है कि भाजपा की अपनी मूलभूत संघी, एकाधिकारवादी प्राणीसत्ता अपने को स्थापित करने के लिए किस प्रकार पूरा जोर मार रही है । जाहिर है कि उसी अनुपात में भारत की जनतांत्रिक राजनीति से उसका अलगाव भी बढ़ रहा है । अब यदि वह समग्र परिस्थितियों को इस हद तक बदल देने में सफल हो जाते हैं कि देश की तमाम संवैधानिक और जनतांत्रिक संस्थाओं की हत्या ही कर दी जाती हैं, जैसा कि हिटलर के काल में हुआ था, तब उस पारिस्थितिकी (topology) के चौखटे में बीजेपी के साथ ‘जनतांत्रिक’ का तमगा लगाना असंभव हो जाएगा । इसीलिए बीजेपी तभी तक ‘जनतांत्रिक’ है, जब तक हमारे देश में जनतंत्र बचा हुआ है । जिस दिन बीजेपी की आकांक्षाओं की पूर्ति के मूल मंत्र, एकचालिकानुवर्तित्व का पूर्ण प्रभुत्व हो जाएगा, बीजेपी जनतांत्रिक नहीं, सिर्फ अपने निपट नंगे, मूल फासिस्ट रूप में सामने होगी । 

यही वजह है कि जब भी कोई बीजेपी के बने रहने की ‘वांछनीयता’ की सैद्धांतिकी तैयार करता है, उसके लिए पहली शर्त यह है कि उसे बीजेपी की मूल संघी प्राणीसत्ता को ताक पर रख कर, अर्थात् भूल कर चलना होगा । वह जो आज है, खुद में जितनी क्षतिग्रस्त और देश की राजनीति को उसने जितना क्षतिग्रस्त कर दिया है, उसे ही स्थायी मान कर चलने पर ही बीजेपी के प्रति इस प्रकार के किसी उदारमना सैद्धांतिकी का कोई, मामूली ही क्यों न हो, औचित्य हो सकता है । वास्तविकता यह है कि ऐसी सैद्धांतिकी महज एक पत्रकारितामूलक, तात्कालिक खपत के लिए किए गए लेखन से अधिक कोई मायने नहीं रखती है । चीजों को उनकी गत्यात्मकता में न देखना पत्रकारितामूलक लेखन का सबसे बड़ा दोष होता है, जो सिर्फ सत्य पर पर्दादारी का काम करता है, उसके विकासमान स्वरूप की कोई समझ नहीं देता । 

बीजेपी या कोई भी फासिस्ट विचारों पर टिका हुआ राजनीतिक संगठन किसी भी सैद्धांतिकी के अनुसार जनतंत्र के लिए वांछनीय नहीं हो सकता है ।       


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