शुक्रवार, 11 अगस्त 2023

पुरातात्विक दिशा में बढ़ता वर्तमान भाषा युग

 


आज के ‘टेलिग्राफ’ में जी. एन. देवी का लेख है – मेमोरी चिप के दौर में भाषा का भविष्य : एक भारी उथल-पुथल (The future of languages in the reign of the memory chip : A great churn)

इस लेख की शुरूआत उन्होंने भाषा के साथ जुड़ी हुई मनुष्य की संज्ञानमूलक प्रक्रियाओं से पैदा होने वाले काल और स्थान के बोध के उल्लेख से की है । “लाखों साल से मनुष्य (होमो सेपियन्स) भाषा से घिरा होने के कारण काल और स्थान के बोध को अपने अस्तित्व की निश्चित परिस्थितियों के रूप में देखने का अभ्यस्त हो चुका है । चीजों की छवि को देख पाने की मनुष्य की मानसिक क्षमता के चलते वह अपने इर्द-गिर्द के विशाल स्थान का एक बोध कर पाता है । स्मृति की अपनी जैविक प्राकृतिक क्षमता से वह समय नामक एक व्यापक अमूर्तता का अहसास कर पाता है ।” शुरू में छवियों के जरिए अर्थ को ग्रहण करने की क्षमता ही परवर्ती समय में अपने से बाहर के असंख्य रूपों में ढलती चली गई । वह भी हमारे अस्तित्व का अभिन्न अंग सी बन गई । देवी कहते हैं कि आज हम जिसे ज्ञान कहते हैं वह स्मृति के इन्हीं बाह्य खास रूपों और संस्थाओं के तौर पर तैयार हुआ है । 

मनुष्य अपने सांस्कृतिक विकास के इस रूप के कारण यह भूल गया कि वह दरअसल प्रजातियों के प्राकृतिक विकास की एक मामूली कड़ी भर है । मनुष्यों का काल कोई प्राकृतिक घटनाक्रम नहीं है । यह मनुष्य की कल्पना की सुविधाजनक उपज है । यही बात स्थान के बारे में भी लागू होती है । मनुष्य की आँखें जिस स्थान को देखती है और लाखों-करोड़ों प्रजातियां जिसे देखती है, इस देखने-देखने में जमीन-आसमान का फर्क हो सकता है । देवी कहते हैं कि मनुष्य की कल्पना और उसकी स्मृति एक प्रकार के सपने की तरह है जो हमारी प्राणीसत्ता और चेतना को घेरे हुए हैं । मनुष्यों ने यदि भाषा में भूत काल और भविष्य काल की कल्पना न की होती तो यह कल्पना ही कठिन हो जाती और ऐसे में यदि हमें वैज्ञानिक विवेक हासिल करना पड़ता तो संभव है कि हम 14 बिलियन साल पहले के बिग बैंग के बारे में चर्चा हमारे साथ-साथ जारी एक घटनाचक्र के रूप में कर रहे होते और हम अपने को उसके बीच कहीं स्थित पाते । लगभग 3.7 बिलियन साल पहले पदार्थ में प्राण पैदा हुए और महज दो मिलियन साल पहले उसमें से हमारी तरह के मनुष्य जैसा एक प्राणी पैदा हुआ । इस प्राणी ने सिर्फ सत्तर हजार साल पहले भाषा का गुर हासिल किया । काल और दूरी का माप हासिल किया । ब्रह्मांड के बारे में समझ तो सिर्फ दो-तीन हजार साल पहले विकसित होनी शुरू हुई है । सारी वैज्ञानिक बातें मनुष्यों की भाषा में सामने आती हैं । आदमी का सोच उसकी भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता की सीमा से बंधा होता है । आदमी का मस्तिष्क निरंतर विकसित हो रहा है और जटिल यथार्थ से लगातार नई-नई ताकत पा रहा है । उम्मीद की जाती है कि मनुष्यों की भाषा और उनका सोच समय और स्थान की परिधि के बाहर, स्मृति और कल्पना के परे जा पायेगा ताकि भविष्य में वह कहीं ज्यादा जटिल, बहु-स्तरीय यथार्थ को वह समझ सके और व्यक्त कर सकें । 

देवी का यह विमर्श बहुत दिलचस्प विषय है । जर्मन दार्शनिक हाइडेगर ने भाषा को मनुष्य की प्राणी सत्ता का आवास कहा था। पर जॉक लकान ने इसे सुधारते हुए सिर्फ के बजाय यातना-गृह कहा । वह स्थान जहां मनुष्य पर रंदा चला करता है, उसे काटा-छांटा जाता है । जो भाषा मनुष्य के बाहर का स्थान है उस के में मनुष्य को ढाला जाता है । इसीलिए यदि किसी भी स्थिति में भाषा के इस गृह का स्वरूप बदलता है या उसका स्थान कोई और चीज ले लेती है तो जाहिर है कि इसका  मनुष्य के स्वरूप पर मूलगामी असर पड़ेगा । 

देवी ने आज के हालात में मनुष्य के ज्ञान के स्वरूप में बदलाव के सूत्रों को पकड़ कर ही अपनी इस टिप्पणी की रूपरेखा तैयार की है । इसमें वे ज्ञान के विषय को पुनः मनुष्य के संज्ञानात्मक मूलाधार से नए सिरे से जांचने की बात करते हैं । वे भाषा शास्त्रियों की इस चिंता को सामने रखते हैं कि मनुष्य के संचार की प्राकृतिक भाषा का भविष्य डूबता हुआ दिखाई दे रहा है । मनुष्यों ने जो मेमोरी चिप्स तैयार किए हैं उनसे उनकी याददाश्त पर गहरा असर पड़ रहा है । हम सभ्यता के बजाय नेटवर्क की तरह निर्मित सामाजिक संरचनाओं की दिशा में बढ़ रहे हैं । सभी राष्ट्रों, जातियों और सांस्कृतिक समूहों के जीवन के बारे में हमारा नजरिया हमारी कल्पना के परे एक ऐसे क्षितिज में पूरी तरह से सामने न आते हुए भी मनुष्य के मस्तिष्क के अब तक के विकास को स्वाभाविक और स्थायी मानने के विचार की धज्जियां उड़ा रहा है । 

इस पर देवी एक अनोखी स्थापना देते हैं कि मनुष्य तेजी के साथ मानवेत्तर चरण में प्रवेश कर रहा है । मनुष्य और मशीन मिल कर संचार की एक नई चित्रात्मक प्रणाली विकसित कर सकते हैं, एक मानवेत्तर और स्मरण की पूरी तरह से बाह्य प्रणाली जिसमें बहु-स्तरीय अस्तित्व लगातार विलयनशील स्थिति में होगा । इसे यूटोपिया कहें या डिस्टोपिया, यह बेहद परेशानी का सबब है । इसलिए नहीं कि यह अब तक की स्थापित चीजों को मूलभूत रूप में चुनौती देता है, बल्कि अनेक राष्ट्रों, समुदायों को इसकी बेइंतहा कीमत अदा करनी पड़ सकती है । औद्योगिक क्रांति और यूरोप में पूंजीवाद के उदय ने कृषि समाजों को खतरे में डाल दिया, उसी प्रकार मेमोरी चिप से समृद्ध देशों और इससे विहीन देशों के बीच अभूतपूर्व हिंसा देखी जा सकती है । भाषाओं के मरने की गति तेज हो रही है । 98 प्रतिशत भारतीय भाषाएँ डूबने के लिए अभिशप्त हैं । बिना डिजिटल परिचय पत्र वालों को नागरिकों की सूची से बाहर खदेड़ देने की योजनाएं हर जगह नजर आती है । इस प्रकार, उनके अनुसार, शब्दों का संसार आज एक पुरातात्त्विक कहे जाने वाले युग की ओर ढकेल दिये जाने के खतरे में है । 

 https://epaper.telegraphindia.com/imageview/442472/43249394/71.html

       


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