शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2023

चुनाव के ऐन वक्त ईडी की करतूतें क्या कहती है ?


— अरुण माहेश्वरी



जैसे जैसे पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव क़रीब आ रहे हैं, मोदी में अपनी शक्ति के क्षरण के लक्षण तेज़ी के साथ प्रगट होने लगे हैं । अभी राजस्थान में चुनावी आचार संहिता के लागू हो जाने के बाद के काल में मुख्यमंत्री के घर पर ईडी आदि अपनी एजेंशियों के शिकारी कुत्तों से हमला करवाना भी उनके उन लक्षणों के ही संकेत हैं । आसन्न पराजय के साफ अंदेशों से अपनी अब तक की एकछत्र सम्राट वाली उनकी ग्रंथी उन्हें बुरी तरह से सताने लगी है ।

फ्रायडियन मनोविश्लेषण के सिद्धांतों से परिचित लोग जानते हैं कि आदमी के अचेतन में इस प्रकार का castration complex, शक्तियों के छीन लिये जाने की बधियाकरण ग्रंथी किस प्रकार लक्षणों की एक गाँठ के रूप में काम किया करती है । इस गाँठ के कई रूप होते हैं। इनमें एक गतिशील, लचीला रूप भी होता है जिसमें विक्षिप्तता की स्थिति के विश्लेषण अर्थात् निदान की संभावना बनी रहती है । पर दूसरा रूप वह है जो निदान की हर कोशिश के साथ उसी अनुपात में और जटिल होता जाता है, अर्थात् रोग पर क़ाबू के बजाय वह बढ़ता ही चला जाता है । व्यक्ति अपनी वास्तविकता को पहचान ही नहीं पाता है, बल्कि उससे और और दूर होता चला जाता है । वह अपनी अपेक्षित भूमिका के निर्वाह में हर दिन ज्यादा से ज्यादा असमर्थ साबित होता जाता है । उसके कारण जो स्थितियाँ पैदा होती है वह तो और भी जटिल होती है जिनकी मांगों को मनोरोगी जरा भी छू भी नहीं पाता है । 

यह मनोरोगी की शक्ति के क्रमिक अनिवार्य क्षय का ऐसा उपक्रम है जिसमें बधियाकरण के बाद की कल्पना से वह उभर ही नहीं पाता है । इसमें विडंबना की बात यह है कि मनोरोगी की अपनी पहचान ही  उसमें एक विप्रतिषेध तैयार करती है । वह जिसे अपनी भूमिका मान कर चलता है, जिसे लेकर उसे खतरा महसूस होता है, अर्थात् जिसके अभाव के बारे में सोच-सोच कर उसे वंचना का भाव सताया करता है, वह भावबोध उसमें कोई क्षणिका या तात्कालिक रूप में पैदा नहीं होता है बल्कि यह उसकी शक्ति में एक अनिवार्य गड़बड़ी के तौर पर स्थायी रूप में मौजूद होता है । हमारी ये बातें कोरी कपोल कल्पनाएं नहीं है । फ्रायड के अनुभवों और आदमी के मनोविज्ञान के बारे में उनके प्रयोगों से ये सिद्ध हैं । यह लोक रीति से जुड़ी हुई बातें हैं । 

मोदी लगता है अभी से अपनी पहचान को लेकर कुछ ऐसी ही मनोदशा के दुष्चक्र में फँस चुके हैं । 

शुरू में उन्होंने अपनी इस शक्ति के क्षरण को कुछ खास प्रकार की चुनावी रणनीतियों, सांसदों और पार्टी के नेताओं को विधायकी की लड़ाई में उतारने की क़वायदों आदि से रोकने की कोशिश की थी । लेकिन अब क्रमशः जब यह साफ होता जा रहा है कि उनके पतन के लक्षणों में इतनी लोच नहीं बची है कि उनमें इस प्रकार के हस्तक्षेप से एक दूसरे शक्तिमान का आकार पाया जा सकता है । तब अंत में अब मोदी पूरी तरह से अपने पर, अपनी राजनीति के मूलभूत चरित्र, अपनी मूलभूत संघी सच्चाई पर उतर आए हैं, अर्थात् तानाशाही तौर-तरीक़ों, विपक्ष के खिलाफ पूरी बेशर्मी से राजसत्ता के बेजा उपायों से जनतंत्र में अपनी खोई हुई शक्ति को पाना चाहते हैं । 

आदमी की अपनी मूल पहचान का पहलू कुछ इसी प्रकार से उसे संकट के समय में नियंत्रित करने लगता है । इसीलिए कहते हैं कि संकट के वक्त ही आदमी के चरित्र की मूल पहचान सामने आती है । राजनीति में जनतांत्रिक और तानाशाही चरित्र की पहचान ऐसे अवसरों पर ही होती है जब व्यक्ति अपनी शक्ति को बनाए रखने के लिए किन रास्तों के उपयोग को अपने लिए श्रेयस्कर मान कर अपनाता है । 

विश्लेषकों के लिए जरूरी है कि उन्हें किसी की राजनीति के मूल चरित्र के इन लक्षणों की सचाई का पूर्व ज्ञान होना चाहिए । तभी वे इन्हें महज एक फोबिया या विकृति मानने के बजाय राजनीति के चरित्र और उसकी पहचान से जोड़ कर समझ सकते हैं । 

दरअसल आदमी की खुद की चारित्रिक पहचान भी उसके के भावों के निर्माण में प्रसंस्करण की प्रमुख भूमिका अदा करती है । राजनीति के मसलों में संकेतक और संकेतित के बीच जो विरोध नजर आते हैं उसमें इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । संकेतित का प्रभाव तय करने में संकेतक की सक्रिय भूमिका अदा करते हैं । 

इसीलिए आज मोदी पर भी पराजय के संकेतकों की भूमिका को महत्वपूर्ण समझना चाहिए । वे क्रमशः मोदी के अवचेतन को उघाड़ रहे हैं । जाहिर है कि आगे इसके और भी भयंकर कुत्सित रूप देखने को मिलेंगे । इनका संबंध मोदी की सत्ता संबंधी अपनी वासनाओं से भी हैं और किसी की वासनाओं का संबंध सिर्फ उसके संतोष से नहीं होता । उसका उद्देश्य जितना व्यक्त होता है उतना ही अव्यक्त भी रहता है । आदमी की हर मांग आदमी की वासनाओं का एक खास रूप होती है । जाहिर है कि इन चुनावों में अभी हमें मोदी की मांगों के और भी बहुत भद्दे रूप देखने को मिलेंगे ।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2023

रवीश, श्रीमंत लुकास और विनय घोष

 



कल रवीश कुमार अपने एक ट्वीट में अमेरिका के रोह्वी आइलैंड राज्य के प्रोविडेंस शहर में ‘सिम्पोजियम’ नाम की किताबों की एक दुकान का अनुभव साझा कर रहे थे जहां एक गीतकार श्रीमंत लुकास का  ‘प्यारा सा’ गीत बज रहा था — Just outside of Austin । 


इस गीत का टेक था — turn off the news and build a garden (समाचार को बंद करो बाग़वानी करो) । इसमें लेखक कहता है — “नफ़रत इस समय का लक्षण है । … सारे दूसरे विचार उलझन पैदा करते हैं। मुझे अब और कोशिश और समझने की ज़रूरत नहीं । समाचार बंद करो तो शायद जंग जाऊँ । …शायद कुछ अधिक मुक्त महसूस करूँ । समाचार बंद करो और बच्चों को खिलाओ । विश्वास ही विश्वास पैदा करता है । समाचार बंद करो बाग़वानी करो ।” ( Turn off the news and build a garden…Hatred is a symptom of the times,…All these other thoughts have me confused/ Now I don’t need to try and understand/Nay be I’ll get up, turn off the news…We might get feel a bit more free / Turn off the news and raise the kids … Trust builds trust) 


रवीश के इस ट्वीट को पढ़ कर हमें बंगाल के नवजागरण के अपने प्रकार के प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार विनय घोष की सत्तर साल पहले कही गई वह बात याद आ गई जिसमें उन्होंने कोलकाता के संदर्भ में ‘मेट्रोपोलिटन मन’ (1967) शीर्षक एक लेख में आधुनिक मनुष्य के बारे में लिखा था कि “वह एक ऐसा प्राणी है जिसने सिर्फ़ भोग किया और अख़बार पढ़ा । …ये दोनों ही एक प्रकार का नित्य कर्म है, इनमें से किसी में कोई प्राण नहीं, चित्त नहीं है । पूँजीवादी यांत्रिक समाज में यही है आदमी की अंतिम परिणति ।” 


इसके बाद ही विनय घोष ने विद्यापति के एक पद को उद्धृत करते हुए लिखा : 


“तनु पसेब पासाहनि भासलि, पुलक तइसन जागु।

चूनि-चुनि भए कांचुअ फाटलि, बाहु बालआ भांगु।

भन विद्यापति कम्पित कर हो, बोलल बोल न जाए।”


(शरीर के प्रस्वेद से प्रसाधन बह गये, ऐसी पुलक उठी कि कंचुली तार-तार होकर फट गई । विद्यापति ने कहा कि इसके बाद जो हुआ हाथ कॉंप जाते हैं, उसे कह कर भी कहा नहीं जा सकता।)


विनय घोष कहते हैं कि “तब कवि के हाथ काँप गए थे यह लिखते हुए । अभी हमारे हाथ कॉंपते नहीं हैं । ऑटोमोबाइल की तरह आटोमैटिक लेखन में आधुनिक जीवन के बारे में सिर्फ रमन और भोजन की बातें ही अनर्गल रूप से कही जा सकती है । मनुष्य का वह शरीर तो शरीर ही है, पर वह प्रस्वेद अब नहीं है, जो है उसका नाम है पसीना, बासता हुआ पसीना । 


विनय घोष का यह लेख ‘मेट्रोपोलिटन मन’ शीर्षक से प्रकाशित उनकी प्रसिद्ध पुस्तक में संकलित है । इस पुस्तक का पहला संस्करण 1973 में ओरियेंट लांगमैन से निकला था । इसके बाद 2009 में ओरियेंट ब्लैकस्वान से इसका छठां संस्करण प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक के लेख पाठक को कोलकाता महानगर मध्यवर्ग के तथाकथित ‘विद्रोही’ मन में बहुत गहरे तक पैठने का रास्ता तैयार करते हैं । 

विनय घोष ने 1951 में एक लेख लिखा था — ‘कालपेंचार नक़्शा’। काली प्रसन्न मुखर्जी की 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध के कोलकाता के जीवन के बारे में किंवदंती स्वरूप पुस्तक ‘हुतुम पेंचार नक़्शा’ के शीर्षक की तर्ज़ पर ही इसका शीर्षक है । इसमें उन्होंने कोलकाता का जो चित्र खींचा था, देखने लायक़ है : 


“आइये, कोलकाता का असली बाइस्कोप देखते हैं । …पहले देखिए लाट साहब की कोठी ( गवर्नर हाउस) । फिर मोनुमेंट, मैदान देखिए, जादूगर (म्यूज़ियम) देखिए, बस-ट्राम पर नाना प्रकार के लोगों को देखिए, रंग-बिरंगी सजी हुई दुकानों को देखते-देखते चले जाइए काली घाट तक । काली घाट की काली देखिए, कोलकाता की गंगा देखिए, और उसके बाद चिड़ियाघर के तमाम विचित्र जीव-जन्तुओं को देखिए । जिराफ़ देखिए, हाथी देखिए, गैंडा देखिए, बाघ देखिए, भालू देखिए, उल्लू देखिए, बंदर देखिए, चिंपांजी देखिए, गुरिल्ला देखिए, वन मानुष और वन बिलाव देखिए। इसे ही चिड़ियाघर कहते हैं, कोलकाता का दूसरा नाम । अर्थात् जिसके पुकार का नाम ‘पहला’ उसका अच्छा ‘परमेश्वर ‘ । जैसे जिसके पुकार का नाम ‘चिड़ियाघर ‘ उसका असली नाम ‘कोलकाता’ । 


विनय घोष लिखते हैं कि “कोलकाता के कल्चर की 

मूल बात है — “पागलपन, मतवालेपन (हुजुम) और चालबाज़ी ( (बुजुरुकी) कोलकाता की प्राचीन संस्कृति इसी मतवालेपन और चालबाज़ियों की उपज बै ।” 


विनय घोष की ये टिप्पणियां समग्रतः कथित मेट्रोपोलिटन कल्चर पर की गई टिप्पणियाँ हैं । अख़बार और समाचार माध्यम इसी कल्चर के प्रमुख अंग हैं । 


आज अमेरिकी कवि कह रहा है, इन समाचारों को बंद कर दो ! बाग़वानी करो, बच्चों से खेलो । इस कल्चर का मूल जैसे अब अपने सारे आवरणों को फेंक कर नग्न बाहर आ गया है ! 


—अरुण माहेश्वरी