कल रवीश कुमार अपने एक ट्वीट में अमेरिका के रोह्वी आइलैंड राज्य के प्रोविडेंस शहर में ‘सिम्पोजियम’ नाम की किताबों की एक दुकान का अनुभव साझा कर रहे थे जहां एक गीतकार श्रीमंत लुकास का ‘प्यारा सा’ गीत बज रहा था — Just outside of Austin ।
इस गीत का टेक था — turn off the news and build a garden (समाचार को बंद करो बाग़वानी करो) । इसमें लेखक कहता है — “नफ़रत इस समय का लक्षण है । … सारे दूसरे विचार उलझन पैदा करते हैं। मुझे अब और कोशिश और समझने की ज़रूरत नहीं । समाचार बंद करो तो शायद जंग जाऊँ । …शायद कुछ अधिक मुक्त महसूस करूँ । समाचार बंद करो और बच्चों को खिलाओ । विश्वास ही विश्वास पैदा करता है । समाचार बंद करो बाग़वानी करो ।” ( Turn off the news and build a garden…Hatred is a symptom of the times,…All these other thoughts have me confused/ Now I don’t need to try and understand/Nay be I’ll get up, turn off the news…We might get feel a bit more free / Turn off the news and raise the kids … Trust builds trust)
रवीश के इस ट्वीट को पढ़ कर हमें बंगाल के नवजागरण के अपने प्रकार के प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार विनय घोष की सत्तर साल पहले कही गई वह बात याद आ गई जिसमें उन्होंने कोलकाता के संदर्भ में ‘मेट्रोपोलिटन मन’ (1967) शीर्षक एक लेख में आधुनिक मनुष्य के बारे में लिखा था कि “वह एक ऐसा प्राणी है जिसने सिर्फ़ भोग किया और अख़बार पढ़ा । …ये दोनों ही एक प्रकार का नित्य कर्म है, इनमें से किसी में कोई प्राण नहीं, चित्त नहीं है । पूँजीवादी यांत्रिक समाज में यही है आदमी की अंतिम परिणति ।”
इसके बाद ही विनय घोष ने विद्यापति के एक पद को उद्धृत करते हुए लिखा :
“तनु पसेब पासाहनि भासलि, पुलक तइसन जागु।
चूनि-चुनि भए कांचुअ फाटलि, बाहु बालआ भांगु।
भन विद्यापति कम्पित कर हो, बोलल बोल न जाए।”
(शरीर के प्रस्वेद से प्रसाधन बह गये, ऐसी पुलक उठी कि कंचुली तार-तार होकर फट गई । विद्यापति ने कहा कि इसके बाद जो हुआ हाथ कॉंप जाते हैं, उसे कह कर भी कहा नहीं जा सकता।)
विनय घोष कहते हैं कि “तब कवि के हाथ काँप गए थे यह लिखते हुए । अभी हमारे हाथ कॉंपते नहीं हैं । ऑटोमोबाइल की तरह आटोमैटिक लेखन में आधुनिक जीवन के बारे में सिर्फ रमन और भोजन की बातें ही अनर्गल रूप से कही जा सकती है । मनुष्य का वह शरीर तो शरीर ही है, पर वह प्रस्वेद अब नहीं है, जो है उसका नाम है पसीना, बासता हुआ पसीना ।
विनय घोष का यह लेख ‘मेट्रोपोलिटन मन’ शीर्षक से प्रकाशित उनकी प्रसिद्ध पुस्तक में संकलित है । इस पुस्तक का पहला संस्करण 1973 में ओरियेंट लांगमैन से निकला था । इसके बाद 2009 में ओरियेंट ब्लैकस्वान से इसका छठां संस्करण प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक के लेख पाठक को कोलकाता महानगर मध्यवर्ग के तथाकथित ‘विद्रोही’ मन में बहुत गहरे तक पैठने का रास्ता तैयार करते हैं ।
विनय घोष ने 1951 में एक लेख लिखा था — ‘कालपेंचार नक़्शा’। काली प्रसन्न मुखर्जी की 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध के कोलकाता के जीवन के बारे में किंवदंती स्वरूप पुस्तक ‘हुतुम पेंचार नक़्शा’ के शीर्षक की तर्ज़ पर ही इसका शीर्षक है । इसमें उन्होंने कोलकाता का जो चित्र खींचा था, देखने लायक़ है :
“आइये, कोलकाता का असली बाइस्कोप देखते हैं । …पहले देखिए लाट साहब की कोठी ( गवर्नर हाउस) । फिर मोनुमेंट, मैदान देखिए, जादूगर (म्यूज़ियम) देखिए, बस-ट्राम पर नाना प्रकार के लोगों को देखिए, रंग-बिरंगी सजी हुई दुकानों को देखते-देखते चले जाइए काली घाट तक । काली घाट की काली देखिए, कोलकाता की गंगा देखिए, और उसके बाद चिड़ियाघर के तमाम विचित्र जीव-जन्तुओं को देखिए । जिराफ़ देखिए, हाथी देखिए, गैंडा देखिए, बाघ देखिए, भालू देखिए, उल्लू देखिए, बंदर देखिए, चिंपांजी देखिए, गुरिल्ला देखिए, वन मानुष और वन बिलाव देखिए। इसे ही चिड़ियाघर कहते हैं, कोलकाता का दूसरा नाम । अर्थात् जिसके पुकार का नाम ‘पहला’ उसका अच्छा ‘परमेश्वर ‘ । जैसे जिसके पुकार का नाम ‘चिड़ियाघर ‘ उसका असली नाम ‘कोलकाता’ ।
विनय घोष लिखते हैं कि “कोलकाता के कल्चर की
मूल बात है — “पागलपन, मतवालेपन (हुजुम) और चालबाज़ी ( (बुजुरुकी) कोलकाता की प्राचीन संस्कृति इसी मतवालेपन और चालबाज़ियों की उपज बै ।”
विनय घोष की ये टिप्पणियां समग्रतः कथित मेट्रोपोलिटन कल्चर पर की गई टिप्पणियाँ हैं । अख़बार और समाचार माध्यम इसी कल्चर के प्रमुख अंग हैं ।
आज अमेरिकी कवि कह रहा है, इन समाचारों को बंद कर दो ! बाग़वानी करो, बच्चों से खेलो । इस कल्चर का मूल जैसे अब अपने सारे आवरणों को फेंक कर नग्न बाहर आ गया है !
—अरुण माहेश्वरी
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