मंगलवार, 30 जनवरी 2024

विकृत किए गए शब्द भी अपने मूल अर्थ में लौटा करते हैं

 

(आज के ‘टेलिग्राफ’ में जी एन देवी के लेख पर) 

—अरुण माहेश्वरी 



‘टेलिग्राफ’ में अपने साठवें लेख में श्री जी एन देवी ने कहा था कि अब आगे वे अपनी बची-खुची ऊर्जा को सभ्यताओं के बीच संवाद की तरह के विषय पर शोध के काम में लगाना चाहते हैं । इस प्रकार, उन्होंने एक बार के लिए टेलिग्राफ को अलविदा कह दिया था । उनके शब्दों में — “have decided to sacrifice the privilege of writing in The Telegraph as I turn my limited energies to a large mission of reviving conversations between civilisations that stand today in clashing positions “ । 


देवी की इस घोषणा से टेलिग्राफ के पृष्ठों में पैदा होने वाले में संभावित अभाव के अंदेशे ने हमारे सामने इस अख़बार में अक्सर लिखने वाले लेखकों के विषयों और उनकी शैलियों का एक समग्र चित्र उपस्थित कर दिया था । तभी श्री देवी के उस लेख के मूल बिंदुओं को प्रस्तुत करते हुए ही हमने अपने ब्लाग पर टेलिग्राफ के संपादकीय पृष्ठ की ही एक समीक्षा लिखी थी — ‘टेलिग्राफ का संपादकीय पृष्ठ और जी एन देवी का लेख ‘ ।


लेकिन आज के ‘टेलिग्राफ‘ में पुनः उनकी एक टिप्पणी ने सुखद आश्चर्य से भर दिया । जो व्यक्ति सभ्यताओं के बीच संवाद के सूत्रों की तलाश कर रहा हो और वह तथाकथित सभ्यता के सबसे मूल घटक शब्द और वाक्य अर्थात् भाषा के प्रश्नों से न टकराये, यह संभव ही नहीं है । सभ्यता स्वयं में एक अवबोध है जिसका सारा माजरा शब्दों के खेल से ही बनता है । देवी का काम ही गवाह है कि वे कैसे शब्दों के अध्ययन से सभ्यता के प्रश्नों तक पहुँचे और पुनः सभ्यता के सवाल ही उन्हें शब्दों के चातुर्य की ओर आकर्षित कर रहे हैं । 


जी एन देवी के आज के लेख का शीर्षक है — चतुर शब्द (Tricky words) (बदलते हुए मुहावरें, बदलते हुए अर्थ ) 


इस टिप्पणी का प्रारंभ वे राम शब्द की माया से करते हैं । जब हमने भी मिस्र की यात्रा की थी तो वहाँ के पिरामिडों में उकेरे हुए वहाँ के फैरों (pharaoh)(राजाओं) के नाम अक्सर रामसेस (Ramesses) वन, टू , थ्री सुनते-सुनते हम परेशान हो गए थे । देवी ने बताया है कि वाल्मीकि ने तो ईसा के लगभग दो सौ साल पहले के पुष्यमित्र शुंग के शासन काल के एक चरित्र को लेकर राम की कथा कही थी, पर इस शब्द की गूंज तो हज़ारों साल पहले, सुमेरियन काल (6500-4100 BCE) तक में सुनाई देती है — महाराजा सरगोन का बेटा राजा रिमि़श । 


भारत में वैयाकरणों ने तो, ख़ास कर भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीयम्’ में राम नाम का एकवचन, द्विवचन और बहुवचन से शब्द रूपों में बदलाव की शिक्षा के लिये प्रयोग किया गया है । यही राम आयाराम गयाराम से लेकर अब पल्टूराम तक में जिस प्रकार बैठा हुआ है, उससे मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । 


देवी ने अपने लेख में बताया है कि जिस संसद का अर्थ कभी राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर बहस का प्रमुख स्थल होता था, आज अब उसका बहस या विचार-विमर्श से कोई संबंध नहीं रहा है । और मीडिया का अर्थ तो गोदी मीडिया हो गया है । 


कैसे परिस्थितियों की छाया शब्दों के अर्थ पर पड़ा करती है, इसके कई उदाहरण देवी ने जार्ज ऑरवेल के क्लासिक उपन्यास ‘1984’ और ‘एनिमल फ़ार्म’ से दिए हैं कि लोगों को यातना देने वाले मंत्रालय का नाम मिनिस्ट्री ऑफ लव रखा गया था और युद्ध के काम करने वाले मंत्रालय को मिनिस्ट्री आफ पीस कहा गया । 


इस लेख के अंत में देवी ने ऐसे सभी धोखेबाज शब्दों की समस्या गिनाते हुए कहा है कि अक्सर ये शब्द अपने पर लदे सारे अनर्थकारी लबादों को झाड़ कर फिर अपने मूल रूप में लोगों की स्मृतियों में भी लौट आया करते हैं । “कौन जानता है, भविष्य में कब, जनता की स्मृतियों में इंडिया अर्थात् भारत की आधारशिला के रूप में ‘संविधान’ पद फिर से उभर आए ।” 


सभ्यताओं में शब्दों के खेल पर जी एन देवी के इस अनोखे लेख को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए : 


https://epaper.telegraphindia.com/imageview/460110/22651781/undefined.html


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