गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

ऐसे निरुद्वेग सूत्रीकरणों का क्या लाभ ?

 

(‘टेलिग्राफ‘ में प्रभात पटनायक की टिप्पणी के बहाने व्याख्याओं के सही स्वरूप पर एक मनोविश्लेषणात्मक विवेचन) 


—अरुण माहेश्वरी 


चौदह फ़रवरी के ‘टेलिग्राफ’ में प्रभात पटनायक की एक टिप्पणी है — (नवउदारवाद से नवफासीवाद ) गोपनीय संपर्क । From neoliberalism to neofascism : Hidden link ।

 

प्रभात के शब्दों में कहें तो यह नवफासीवाद की वर्गीय प्रकृति का सैद्धांतीकरण है । दरअसल इसे आज की दुनिया में दक्षिणपंथ के उभार की वस्तुस्थिति का ऐसा वर्णन कहा जा सकता है जिसमें प्रमुख रूप से विभिन्न शक्तियों की भूमिका को वर्गों की एक सर्वकालिक भाषा में चित्रित किया गया है । 

प्रभात की शिकायत है कि इस उभार को ‘दक्षिणपंथी” (right-wing populist) कह कर आम तौर पर ऐसी सरकारों की वर्गीय प्रकृति पर चुप्पी साध ली जाती है । 


प्रभात ने नवफासीवाद के बारे में अपने इस ‘वर्गीय ब्यौरे” में सामान्य तौर पर दुनिया के, और ख़ास तौर पर अभी के भारत के राजनीतिक परिदृश्य में सामने दिखाई देने वाली आर्थिक परिघटनाओं के मद्देनज़र इजारेदारों और मज़दूर वर्ग की तमाम स्थितियों को नव-फासीवाद की सर्वकालिक प्रवृतियों के रूप में पेश किया है । इसे सही मायने में हम एक ऐसा प्रकृतिवादी विश्लेषण कह सकते हैं जिसमें प्रत्यक्ष और लक्षणों के बीच कोई भेद नहीं होता है । जो सामने, व्यक्त रूप में है वही पीछे भी, अर्थात् अव्यक्त भी है । परिस्थिति की गतिशीलता, अर्थात् उसमें कुछ की अनुपस्थिति और कुछ नये के सामने आने की संभावना के संकेत के लिए कोई स्थान नहीं होता हैं। 


मसलन्, भारत में पहले इजारेदार घरानों के रूप में टाटा-बिड़ला को चिह्नित किया जाता था, अब  अंबानी-अडानी भी आ गये हैं । अभी की मोदी सरकार ने टाटा-बिड़ला का साथ नहीं छोड़ा है, बल्कि उनके साथ ही अंबानी-अडानी को भी साध लिया है । इससे प्रभात ने यह ‘वर्गीय सिद्धांत’, अथवा नव-फासीवाद की परिभाषा तैयार कर ली कि नवफासीवाद “सामान्य तौर पर इजारेदार पूंजीवाद का ध्यान रखता है, पर वह इसके अंदर नये रूप में पैदा होने वाले तबकों से भी अपने क़रीबी संबंध रखता है ।” (while solicitous towards monopoly capital in general, also enjoys close proximity with this new emerging stratum within it. ) 


यह है ‘तथ्यों से सिद्धांत निरूपण’ की, किसी नई परिघटना के कथित वर्गीय चित्रण को ही वैज्ञानिक सूत्रीकरण में तब्दील कर देने की ख़ास पद्धति, जिसे हमने ऊपर प्रकृतिवादी पद्धति कहा है । इस ‘वर्गीय ब्यौरे’ की विडंबना यह है कि इसमें वर्णन को ही परिस्थिति का विश्लेषण बताया जाता है । यथार्थ के वर्णन में और उसके विश्लेषण में निहित द्वंद्वात्मकता के बीच कोई भेद नहीं किया जाता है । 


यथार्थ के ब्यौरों से सैद्धांतिक संश्लेषण का यह एक ऐसा तरीक़ा है जिससे प्रत्यक्ष में हर छोटे से छोटे भेद से एक नई सैद्धांतिकी खड़ी करने की ओर दौड़ पड़ने की प्रवृत्ति पैदा होती है । यथार्थ की परख में युग की ऐतिहासिक दिशा के सामान्य परिदृश्य की भूमिका गौण नहीं, बल्कि ग़ायब ही हो जाती है । 


कहना न होगा, यह एक प्रकार की प्रकृतिवादी सैद्धांतिक सूत्रीकरण की पद्धति है जो सैद्धांतिक अवसरवाद के लिए जगह बनाती है, फिर भले उसे ‘वर्ग भाषा’ की ओट में ही क्यों न किया जाए । 


प्रभात ने इस लेख में निचोड़ के रूप में अपनी दृष्टि से एक बड़ी खोज की है कि “ नवफासीवाद नवउदारवाद की ही संतान है” । (Neofascism, therefore, is the progeny of neoliberalism. ) “नवफासीवाद का विरोध भी नवउदारवाद के द्वारा कमजोर कर दिए गए मज़दूर वर्ग की वजह से ही कमजोर है ।”( The opposition to neofascism is also weakened by the same weakening of the working class effected by neoliberalism. ) 

(हम यहाँ उनकी इस टिप्पणी का लिंक साझा कर रहे हैं : https://www.telegraphindia.com/opinion/hidden-link-from-neoliberalism-to-neofascism/cid/2000310)


कुल मिला कर यह कथित सूत्रीकरण परिस्थिति का एक वैसे ही क़िस्म का चित्रण है जैसा मनोविश्लेषण में अवचेतन की व्याख्या से किया जाता है । ऐसी व्याख्या को कहा जाता है कि “अवचेतन ही व्याख्या करता है“। (Unconscious interprets) । परिस्थिति ही बोलती है । इसमें विश्लेषक खुद को वास्तव में परिस्थिति (अवचेतन) की आड़ में छिपा कर रखता है । उसकी भूमिका परिस्थिति में होने वाले हर मामूली हेर-फेर पर निगाह रखने भर की होती है । अर्थात् वह बिल्कुल निष्क्रिय नहीं होता है, न पुरानी पाठ्य पुस्तकों की सैद्धांतिक स्थापनाओं में सर गड़ाये बैठा रहता है । बल्कि वह हमेशा अपनी सुविधानुसार कुछ न कुछ करते हुए अपने को थोड़ा सक्रिय रखता है । 


पर परिस्थिति के साथ घिसटते रहने की ऐसी सक्रियता की विडंबना यह है कि इस क्रम में उसकी शक्ति का क्षय होते-होते उसके हस्तक्षेप करने की संभावना कम से कमतर होती चली जाती है । वह सिर्फ उतना ही कुछ कर पाता है जितने के लायक़ वह थोड़ा ज़ोर लगा कर अपने बैठने के लिए जगह बना पाता है। कुल मिला कर ऐसे विश्लेषक की सक्रियता किसी प्रकार अपनी जगह बनाने जितनी, अर्थात् अपने को अलगाते रहने की कोशिश के जितनी ही रह जाती है । 


इसके विपरीत, जिसे हम वास्तविक विश्लेषण समझते हैं, उसकी माँग होती है कि यदि उसे अपने को परिस्थिति की व्याख्या पर वास्तव में अवस्थित करना है तो उसे पूरी परिस्थिति के स्पंदित ढाँचे से अपनी पूर्ण संगति कायम करनी पड़ेगी । उसे उसकी धड़कनों के साथ ही धड़कना, खुलना और बंद होते रहना होगा । तभी आप अपने को कटे-छटे, कोरे उत्तर-आधुनिक व्यवहारों से अलग कर सकते हैं । परिस्थिति की बारे में अन्य चालू क़िस्म की अवधारणाओं से दूर रह सकते हैं । विश्लेषक के रूप में अपनी भूमिका अदा करने के लिए ही उसे स्पंदनों की संगति की वैज्ञानिक रीति को अपनाना होता है । 


हम इससे इंकार नहीं करते हैं कि विश्लेषक का काम परिस्थिति के ब्यौरों के संधान से उसकी व्याख्या पर ही निर्भर होता है । कार्ल मार्क्स ने इस रास्ते से ही पूंजीवाद की क्रियाशीलता के ब्यौरों से अपनी यात्रा शुरू की थी । लेकिन उनमें फ़र्क़ यह था कि उसके साथ ही उन्होंने उसे वस्तु की द्वंद्वात्मक भाषा से प्रतीकों की पराभाषा (metalanguage), सामान्यीकरणों की भाषा में लगातार अनुदित करने का काम भी जारी रखा और क्रमशः द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन का एक स्वरूप तैयार किया । 


पर जब रूस में लेनिन के सामने मार्क्स के विचारों पर ठोस रूप में अमल की चुनौती आई, तब उनके लिए परिस्थिति में व्यक्त और अव्यक्त को समेटने की राजनीति का सवाल उतना अहम नहीं था जितना यह था कि जो भी परिस्थिति है, उसमें ही एक अलग दिशा में बढ़ जाया जाए । उनके लिए किसी वैश्विक परिघटना की तलाश के बजाय ‘एक देश में समाजवाद’ की दिशा को अपनाने का सवाल प्रमुख हो गया । रूस की जनता की आकांक्षाओं के सपनों के साथ और उस देश की वास्तविकताओं के बीच मेल बैठाना प्रमुख हो गया । और इसमें अंततः जो सामने आया, वह यह कि पराभाषा (विश्व क्रांति) नाम की कोई चीज नहीं है, हर देश का अपना अलग-अलग यथार्थ है । जॉक लकान इसे मनोविश्लेषण की भाषा में कहते हैं —“अन्य का कोई और अन्य नहीं है”। (There is no other of the other) 


इस प्रकार , हम देखते हैं कि हम दैनंदिन राजनीति के सरोकारों से सम्बद्ध जनों को जिस परिस्थिति की व्याख्या करनी होती है, उसके तात्कालिक रुझानों के साथ-साथ ही हमारा ध्यान भी इधर-उधर भटकता रहता है । और हम उससे अपने लिए अजीबो-गरीब सिद्धांतों का एक जाल भी बुनने में मसगूल हो जाते हैं।  


सिगमंड फ्रायड किसी भी विश्लेषक की इस मुश्किल को जानते थे और इसीलिए अपने तई सचेत रूप में उन्होंने कभी भी रोगी के अपने आशय के बारे में दिये जाने वाले बयानों को कोई महत्व नहीं  देने का रास्ता अपनाया था । उनकी नज़र सिर्फ़ रोगी की बातों से अनायास ही ज़ुबान की फिसलन के रूप में सामने आने वाली उन अवांतर क़िस्म की बातों पर होती थीं जिनसे वे उसके मनोरोग के अवचेतन की गहरी परतों में छिपे संकेत मिल सकते थे । 


जैसे मार्क्स ने पूंजीवाद के अंतर्गत उत्पादन के साधनों के क्रांतिकारी रूपांतरण की अनवरत प्रक्रिया में बार-बार पैदा होने वाले संकटों के संकेतों से ही पूँजीवाद के अंत के लक्षणों की पहचान की थी । 


जब ‘अवचेतन ही व्याख्या करता है’ के सिद्धांत पर परिस्थिति पर ही विश्लेषण को निर्भर बना दिया जाता है तो उससे यह भी तय हो जाता है कि विश्लेषक के हस्तक्षेप का प्रभाव भी सिर्फ़ परिस्थिति-सापेक्ष होगा । परिस्थितियां ही इसकी अनुमति देगी कि कोई राजनीति किस हद तक जनता को प्रभावित कर सकती है, और कितनी नहीं । राजनीति अर्थात् विश्लेषक की अपनी विधेयात्मक भूमिका की कोई संभावना नहीं बचेगी । वह राजनीति परिस्थितियों की लगभग मूक दर्शक बन जाती है।  


इसके विपरीत, सच यह है मनोरोगी विश्लेषक के सामने सच बोलता है या झूठ, वह विश्लेषक की बात स्वीकारता है या नहीं, रोगी के सपनों की व्याख्या के मामले में उसका कोई मतलब नहीं होता है । परिस्थिति हमें कुछ भी क्यों न कहती हो, मनुष्यों के न्याय और समानता के सपनों का उससे कोई तात्पर्य नहीं होता है । किसी भी व्याख्या का परिणाम इस बात से तय होता है कि वह उसमें सपने से जुड़ी कौन सी नई चीज़ को उपस्थित करने में सफल होती है । उससे किसी नए अवचेतन के, नई परिस्थिति के लक्षणों के निर्माण का अथवा उससे साफ़ इंकार का ही कोई नया इंगित मिलता है या नहीं । 


असल में, परिस्थिति और विश्लेषक के बीच कोई विरोध नहीं हुआ करता है । यदि कोई ऐसा विरोध महसूस करता है तो साफ़ है कि वह अपने को किसी काल्पनिक धुरी पर स्थित किये हुए है। 


सपनों की व्याख्या की तरह ही मानवता की यात्रा की दिशाओं का कोई अंत नहीं है । इसमें विश्लेषक को अपने लिए ख़ास दिशा को चुन लेना पड़ता है । इसके लिए उसे बार-बार अपने मूल, एक ही सपने पर लौटना ज़रूरी नहीं होता है । 


जो चला आ रहा है, हम उसी की लकीर को पीटेंगे, ऐसे परिपाटी से जुड़े विमर्श से अपने को अलग करना हमारी दृष्टि में जरा भी ग़लत नहीं है । बल्कि इसी से असल में कोई बात बन सकती है । खींच-तान कर, वर्गीय विश्लेषण के नाम पर बार-बार पुरानी घिसीपिटी परिभाषाओं पर लौटना बुद्धिमत्ता नहीं है । किसी भी विवेकसंगत विश्लेषण के लिए यह हमेशा ज़रूरी होता है कि (1) वह अपने अंतिम लक्ष्य की पूर्ति के काम को यथार्थ की ज़मीन से जोड़े ; (2) समाज में उसके विरोध का जो दबाव है उसका जायज़ा ले और (3) सर्वोपरि, समाज में उत्पन्न विकृति के ठोस कारणों की तलाश करे। 


वह जमाना नहीं रहा जब मार्क्सवाद के लिए सच्ची राजनीति का अर्थ लोगों में समानतावादी समाज के लिए वर्ग संघर्ष की चेतना भर जगाने का होता था । वह आम मनुष्यों को इस चेतना के अभाव वाली प्राणीसत्ता कै रूप में देखता था । उसकी कोशिश थी कि लोगों की चेतना में वह दरार पैदा हो कि जिससे वह आगे हर चीज को एक ही वर्ग दृष्टि से देखने लगे। इसमें कहीं न कहीं यह भाव भी था कि जैसे प्रमाता के रूप में मनुष्य का वर्ग के अलावा अन्य कोई अस्तित्व शेष न रहे । लेकिन यह नियम है कि मनुष्य स्वाभाविक रूप से ही जीवन में अनेक पहचानों में बंध जाता है । प्राणी सत्ता कभी भी शुद्ध वर्गीय चेतना में सिमट नहीं सकती है । 


मनुष्य की कामनाओं के दो रूप हुआ करते हैं।  वह कामना यदि किसी शून्य में होती है तब भी वह वृत्ताकार में घूमती रहती है । लेकिन उसकी दूसरा रूप उस पतंगें की तरह का होता है जो लौ के रहते बार-बार जलने के लिए फिर से लौटता रहता है । वह अपने अंतर में जल जाने के उद्वेग को, असंतोष के सनातन आक्रोश को धारण किए होता है । मनोविश्लेषण में इसे प्रमाता का वह अवबोध कहते हैं जो उसके उल्लासोद्वेलन (jouissance) का वाहक होता है । यह वह सामाजिक चेतना है जिसमें हमेशा कुछ कर गुजरने का हौसला बना रहता है । 


हमारी दृष्टि में, किसी भी विश्लेषण का लक्ष्य जिस सामाजिक चेतना को पैदा करना होता है, वह यही चेतना होती है जो उसके दमित अवचेतन को, प्रतिकार की दबी हुई भावनाओं को, समाज के उल्लासोद्वेलन को वहन करती हो । आज की ऐसी किसी भी क्रांतिकारी व्याख्या को अनिवार्य तौर पर उसी दिशा में बढ़ कर ही विकसित किया जा सकता है । कोरी विवरणात्मक सैद्धांतिकी का कोई मूल्य नहीं हो सकता है ।  


ज़रूरी है कि आज के विश्लेषण पर यदि समाजवादोत्तर अभाव की छाया हो तो साथ ही जनता में बदलाव के बचे हुए उद्वेग के लिए भी जगह हो । तभी परिस्थितियाँ ही बोलेगी की थिसिस को जो सामने प्रकट है उसके पीछे के कारणों की व्याख्या के ज़रिये पुष्ट किया जा सकेगा । 

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