शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

नेपाल का जेन जी विद्रोह : अब आगे क्या ?

 -अरुण माहेश्वरी 




9 सितम्बर 2025 को नेपाल में जो कुछ हुआ, वह सचमुच बहुत अप्रत्याशित सा था। 


सोशल मीडिया पर पाबंदी और सत्ता के भ्रष्टाचार के खिलाफ़ क्रोधित युवा पीढ़ी अचानक सड़कों पर उतर आई। 


पुलिस की गोलीबारी में हुई मौतों के बाद साफ़ था कि यह असंतोष अब दबाया नहीं जा सकेगा। 


आगे संसद भवन, सरकारी दफ़्तरों पर धावा, आगजनी तथा मंत्रियों के घरों पर हमलों आदि का एक विभत्स दृश्य देखने को मिला ।


जाहिर है कि यह कोई योजनाबद्ध आंदोलन नहीं था, बल्कि एक घटना थी । अचानक और विघटनकारी, जिसने निश्चय ही वहाँ के पूरे समाज को हिला दिया।


इतिहास में ऐसी घटनाएँ केवल ग़ुस्से की प्रतिक्रिया नहीं मानी जाती । वे नागरिकों को अपने ही बारे में नया बोध कराती हैं। 


जो अब तक सिर्फ सहते और देखते रहे, अचानक सवाल पूछने वाले और चुनौती देने वाले बन जाते हैं। 


यही इस विद्रोह का सबसे बड़ा निहितार्थ है । जनता ने अपने आप को नये स्थान पर खड़ा होते देखा। एक प्रकार से उसके भीतर की छटपटाहट का विश्लेषण हो जाता है । 


लेकिन अब असली प्रश्न यह है कि विद्रोह के बाद क्या? 


प्रधानमंत्री का इस्तीफ़ा और सोशल मीडिया पाबंदी का हटना तो इसकी तात्कालिक प्रतिक्रियाएँ कहलायेगी । स्थायी परिवर्तन तभी संभव है जब यह बोधोदय किसी नये विकल्प का रूप ले। 


केवल सत्ता परिवर्तन या उपद्रव की तीव्रता काफी नहीं; ज़रूरत है कि इस चेतना को संस्थागत रूप देने की ।


नेपाल भाग्यशाली है कि उसके पास उसके 2015 का धर्मनिरपेक्ष, संघीय गणतांत्रिक संविधान की पूँजी मौजूद है । 


नेपाल के संप्रभु जनगण की ओर से इस संविधान की प्रस्तावना में नेपाल के ऐतिहासिक जनआंदोलनों, संघर्षों, बलिदानों तथा शहीदों और पीड़ित नागरिकों का  स्मरण करते हुए लोकतंत्र और प्रगतिशील परिवर्तनों के प्रति निष्ठा जाहिर की गई है । 


साफ़ शब्दों में कहा गया है कि “हम सामंती, निरंकुश और केंद्रीकृत शासन से उपजे भेदभाव और उत्पीड़न को समाप्त करते हुए, बहु-जातीय, बहु-भाषिक, बहु-धार्मिक और बहु-सांस्कृतिक समाज की विविधता को स्वीकार करते हैं, तथा सामाजिक एकता, सहिष्णुता और सद्भाव को बढ़ावा देते हैं।”


“हम एक समावेशी और सहभागितामूलक व्यवस्था पर आधारित समानतावादी समाज की स्थापना का संकल्प करते हैं, ताकि वर्ग, जाति, क्षेत्र, भाषा, धर्म और लिंग पर आधारित सभी भेदभाव और अस्पृश्यता मिटाई जा सके, और आर्थिक समानता, समृद्धि तथा सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो।”


“हम लोकतांत्रिक मानदंडों और मूल्यों पर आधारित समाजवाद के प्रति प्रतिबद्ध हैं—जिसमें बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली, नागरिक स्वतंत्रता, मौलिक अधिकार, मानव अधिकार, वयस्क मताधिकार, आवधिक चुनाव, प्रेस की स्वतंत्रता, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका तथा क़ानून का शासन सम्मिलित है।”


राजशाही के अंत की घोषणा करने वाला यह सुचिंतित संविधान वहां जनता के अधिकार, विविधता और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को वैधानिक रूप देता है। यह जनतंत्र के स्थापत्य को एक आधार और स्वरूप देने वाले भुवन के सदृश्य है । 


हमारी दृष्टि में यदि यह विद्रोह उसी संविधान के प्रति निष्ठा को मज़बूत करने का साधन बने, उसके निर्माण को तेज़ी से आगे बढ़ाए और पीछे की ओर जाने के सब रास्तों को रोक दे तो इससे निश्चय ही एक नये, अधिक परिपक्व नेपाल के उदय की संभावना है।


पर ख़तरें कम कम नहीं हैं। यदि इस ऊर्जा को जन संघर्षों से अर्जित इस संविधान की दिशा में न लगाया गया, तो विद्रोह क्षणभंगुर भी साबित हो सकता है। 


फिर वही स्थिति बन सकती है जैसी अभी बांग्लादेश में देखी जा रही है । वहां सारी चीजें अधर में लटक गई प्रतीत होती है। मध्यपूर्व जैसी अराजकता की ज़मीन तैयार हो रही है जिस पर साम्राज्यवादी ताक़तें अपनी विभाजनकारी हिंसक राजनीति की खेती किया करती है। 


नेपाल आज एक चौराहे पर खड़ा है। 


या तो यह विद्रोह वहां के संविधान की आत्मा को मज़बूत करेगा और नये नेपाल की मज़बूत बुनियाद बनेगा, या फिर यह केवल एक तीव्र लेकिन क्षणिक विस्फोट रह जाएगा। 


भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि जनता और राजनीतिक नेतृत्व इस विद्रोह से निकली ऊर्जा को किस दिशा में मोड़ते हैं। संविधान की पक्षधर ताकतों को नये युवा नेतृत्व के साथ सत्ता की बागडोर सँभालनी होगी।  


शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

ग़ालिब के बहाने ग़ज़लों की संरचना पर क्षण भर

-अरुण माहेश्वरी 



गत रात जगजीत सिंह की आवाज़ में ग़ालिब पर एक पूरी पटकथा को सुन रहा था । इसमें उन्होंने कई ग़ज़लें भी सुनाईं । इसी में उनकी एक महत्वपूर्ण ग़ज़ल आई जहाँ हम क्षणभर ठहर गए । ग़ज़ल थी - 


बाजीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे

होता है सबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे।


इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ मेरे नज़्दीक,

इक बात है ईमान किए जाता है क्या-क्या।


जितना कि ज़बाँ खोलो और सुनने में आये,

उससे भी ज़ियादा है जो ख़ामोश है मुझसे।


दुनिया मेरे आगे है और मैं तमाशबीन,

गोया कोई खेल है जो रोज़ खेला जा रहा है।


होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को न जाने,

शायर तो वो अच्छा है, मगर बदनाम है।


सुबह मन में आया कि क्यों न इसे लकानियन कसौटियों पर पढ़ा जाए । दुनिया का तमाशा, औरंग-सुलेमां और अहम् का स्वातंत्र्य, बोलने से ज़्यादा अबोला रह जाना, तमाशा और तमाशबीन का संबंध और अंत में जो भी है, आख़िर एक अपनी पहचान तो है का उल्लासोद्वेलन । यह ग़ज़ल प्रमाता की पहचान की लकानियन कसौटी को बताने के लिए बिल्कुल माकूल प्रतीत हुई। 


लकान के प्रतिबिंब चरण (mirror stage) में प्रमाता किसी खाँचे (gestalt) में अपनी छवि को पहचानता है । बच्चा अपने विखंडित अनुभव को एक “संपूर्ण शरीर” की आकृति में देखता है। इसी छविमूलक स्थिरता से प्रमाता को एक तात्कालिक आश्वस्ति मिलती है। पर लकान के अनुसार, आख़िरकार वह एक भ्रांति ही है । प्राणीसत्ता पर भ्रांति की क़ैद । 


ग़ालिब पहले शेर में ही अपने उल्लासोद्वेलन (जुएसॉंस) से इस खांचे के चौखटे को तोड़ देते हैं और इसे बच्चों का तमाशा समझ कर अपने को इससे मुक्त करते हैं। उनका जुएसॉंस सिर्फ़ समग्रता की अनुभूति का आनंद या सुख नहीं है, वह इस आकृति की सीमाओं को तोड़ने का उल्लास है । वे अपने को इन दुनियावी खाँचों के बाहर खड़ा कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं ।


यहाँ बहुत दिलचस्प है कि दूसरे शेर में वे दुनिया के इस खेल-तमाशे को ‘औरंग-ए-सुलेमाँ’, यानी प्रभु-सत्ताओं, ‘नाम का पिता’ (Name-of-the-Father) का एक खेल बताते हैं। लकान के अनुसार यही, ‘नाम का पिता’ वह बिंदु होता है जो प्रतीकात्मक व्यवस्था (symbolic order) को स्थिरता और वैधता प्रदान करता है। और, विद्रोही ग़ालिब उसी की सत्ता को अपने सामने तुच्छ बताते  हैं । उनका अहम् (आत्मबोध) ऐसी हर बाहरी, दबावकारी सत्ता से ऊँचा है । यह उनकी कोरी ज़िद नहीं, उनका शुद्ध स्वातंत्र्य है। उनके तई राजसत्ता या ईमान तक की प्रतीकात्मकता का हर स्वरूप महज एक मरीचिका है। उस तमाशे का हिस्सा जो मनुष्य से न जाने “क्या-क्या” करवाता जाता है ! 

लकानियन भाषा में यह भी एक प्रतीकात्मक आदेश है जो प्रमाता को इच्छा की भाषा में बाँधता है। 

यहाँ उत्पलदेव-अभिनवगुप्त की “अस्फुट” चेतना की संकल्पना याद आती है । भाषा और प्रतीकात्मक जगत से पहले का जो आदिम उद्दीपन ( primordial drive) है, वही मनुष्य का अपना सत्य है और ग़ालिब की नज़र कहीं उसी ओर है । 


ग़ज़ल के अगले शेर में ग़ालिब अपने प्रमातृत्व (subjectivity) को परिभाषित करते हुए आगे बढ़ते हैं। वे साफ़ शब्दों में कहते हैं कि भाषा तो उनके अनुभव के अंश मात्र को पकड़ पाती है। उनका यथार्थ (real) तो वह है जो उनके पास ही बचा रह जाता है । जुबान जो कह पाती है, वह कुछ नहीं है । “उससे भी ज़ियादा है जो ख़ामोश है मुझसे।


यही लकान का aphanisis (अंतर्धान) है। प्रमाता (subject) की सच्चाई हमेशा कुछ न कुछ छूट ही जाने में होती है।


ग़ालिब आगे फिर एक बार दोहराते हैं कि दुनिया महज तमाशा है और वे तमाशबीन । अब वे अपने प्रमात्व को दोहरी स्थिति में रखते है । वे इस दुनिया में शामिल भी हैं और इसके बाहर भी है । यह विश्लेषक और विश्लेष्य का टिपिकल लकानियन संबंध है । लकान के “discourse of the analyst” की तरह । यहाँ प्रमाता वस्तु को देखता ही नहीं है,  उसके स्वरूप के निर्धारण में भूमिका भी अदा करता है, अर्थात् उसमें शामिल भी होता है।  वह खुद को विश्लेषण की प्रक्रिया में शामिल एक विक्षुब्ध चित्त के रूप में पाता है। यही रचनाकार का विरेचन है, जिससे वह अपनी जड़ता को तोड़ता हुआ हर अर्थ की स्थिरता को प्रश्नांकित करता है। 


इस ग़ज़ल के अंतिम शेर की अंतिम पंक्ति हैः


“शायर तो वो अच्छा है, मगर बदनाम है।” 


प्रतीकात्मक जगत में ‘नाम का पिता’ अर्थात् प्रतिस्थापित मान्यताओं के आधार पर ही प्रमाता को नाम मिलता है।  ग़ालिब भी एक नामचीन शायर हैं, पर वे कहते हैं कि ‘बदनाम’ हैं। अर्थात् कहीं न कहीं उन नाम के खांचे से बाहर है। उनकी यह सचाई ही कहती है कि प्रमाता का नाम ही उसकी अंतिम पहचान नहीं होता। पहचान तो असल में उसका ऐब बनाता है।  लकान इसे जुएसॉंस का दाग ( stain of jouissance) कहते हैं। यह नाम के भीतर ही वह अवशिष्ट  असंस्कारित अंश होता है जो लाख छिपाने पर भी छिपता नहीं है।  


इस प्रकार, ग़ालिब की यह ग़ज़ल शायर की एक समग्र गतिशील उपस्थिति से पैदा होने वाली ग़ज़ल की संरचना में अलग-अलग शेरों की एकसूत्रता को बखूबी पेश करती है । ग़ज़ल किसी विखंडित प्रमाता (split subject) की तरह प्रतीकात्मक जगत के तमाशे के अस्फुट सूत्रों को खोलती हुई एक ज़्यादा समृद्ध प्रति-संसार की रचना करती है। बहुत कुछ नया कह कर आगे और नया पाने की ललक पैदा करती है ।