-अरुण माहेश्वरी
9 सितम्बर 2025 को नेपाल में जो कुछ हुआ, वह सचमुच बहुत अप्रत्याशित सा था।
सोशल मीडिया पर पाबंदी और सत्ता के भ्रष्टाचार के खिलाफ़ क्रोधित युवा पीढ़ी अचानक सड़कों पर उतर आई।
पुलिस की गोलीबारी में हुई मौतों के बाद साफ़ था कि यह असंतोष अब दबाया नहीं जा सकेगा।
आगे संसद भवन, सरकारी दफ़्तरों पर धावा, आगजनी तथा मंत्रियों के घरों पर हमलों आदि का एक विभत्स दृश्य देखने को मिला ।
जाहिर है कि यह कोई योजनाबद्ध आंदोलन नहीं था, बल्कि एक घटना थी । अचानक और विघटनकारी, जिसने निश्चय ही वहाँ के पूरे समाज को हिला दिया।
इतिहास में ऐसी घटनाएँ केवल ग़ुस्से की प्रतिक्रिया नहीं मानी जाती । वे नागरिकों को अपने ही बारे में नया बोध कराती हैं।
जो अब तक सिर्फ सहते और देखते रहे, अचानक सवाल पूछने वाले और चुनौती देने वाले बन जाते हैं।
यही इस विद्रोह का सबसे बड़ा निहितार्थ है । जनता ने अपने आप को नये स्थान पर खड़ा होते देखा। एक प्रकार से उसके भीतर की छटपटाहट का विश्लेषण हो जाता है ।
लेकिन अब असली प्रश्न यह है कि विद्रोह के बाद क्या?
प्रधानमंत्री का इस्तीफ़ा और सोशल मीडिया पाबंदी का हटना तो इसकी तात्कालिक प्रतिक्रियाएँ कहलायेगी । स्थायी परिवर्तन तभी संभव है जब यह बोधोदय किसी नये विकल्प का रूप ले।
केवल सत्ता परिवर्तन या उपद्रव की तीव्रता काफी नहीं; ज़रूरत है कि इस चेतना को संस्थागत रूप देने की ।
नेपाल भाग्यशाली है कि उसके पास उसके 2015 का धर्मनिरपेक्ष, संघीय गणतांत्रिक संविधान की पूँजी मौजूद है ।
नेपाल के संप्रभु जनगण की ओर से इस संविधान की प्रस्तावना में नेपाल के ऐतिहासिक जनआंदोलनों, संघर्षों, बलिदानों तथा शहीदों और पीड़ित नागरिकों का स्मरण करते हुए लोकतंत्र और प्रगतिशील परिवर्तनों के प्रति निष्ठा जाहिर की गई है ।
साफ़ शब्दों में कहा गया है कि “हम सामंती, निरंकुश और केंद्रीकृत शासन से उपजे भेदभाव और उत्पीड़न को समाप्त करते हुए, बहु-जातीय, बहु-भाषिक, बहु-धार्मिक और बहु-सांस्कृतिक समाज की विविधता को स्वीकार करते हैं, तथा सामाजिक एकता, सहिष्णुता और सद्भाव को बढ़ावा देते हैं।”
“हम एक समावेशी और सहभागितामूलक व्यवस्था पर आधारित समानतावादी समाज की स्थापना का संकल्प करते हैं, ताकि वर्ग, जाति, क्षेत्र, भाषा, धर्म और लिंग पर आधारित सभी भेदभाव और अस्पृश्यता मिटाई जा सके, और आर्थिक समानता, समृद्धि तथा सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो।”
“हम लोकतांत्रिक मानदंडों और मूल्यों पर आधारित समाजवाद के प्रति प्रतिबद्ध हैं—जिसमें बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली, नागरिक स्वतंत्रता, मौलिक अधिकार, मानव अधिकार, वयस्क मताधिकार, आवधिक चुनाव, प्रेस की स्वतंत्रता, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका तथा क़ानून का शासन सम्मिलित है।”
राजशाही के अंत की घोषणा करने वाला यह सुचिंतित संविधान वहां जनता के अधिकार, विविधता और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को वैधानिक रूप देता है। यह जनतंत्र के स्थापत्य को एक आधार और स्वरूप देने वाले भुवन के सदृश्य है ।
हमारी दृष्टि में यदि यह विद्रोह उसी संविधान के प्रति निष्ठा को मज़बूत करने का साधन बने, उसके निर्माण को तेज़ी से आगे बढ़ाए और पीछे की ओर जाने के सब रास्तों को रोक दे तो इससे निश्चय ही एक नये, अधिक परिपक्व नेपाल के उदय की संभावना है।
पर ख़तरें कम कम नहीं हैं। यदि इस ऊर्जा को जन संघर्षों से अर्जित इस संविधान की दिशा में न लगाया गया, तो विद्रोह क्षणभंगुर भी साबित हो सकता है।
फिर वही स्थिति बन सकती है जैसी अभी बांग्लादेश में देखी जा रही है । वहां सारी चीजें अधर में लटक गई प्रतीत होती है। मध्यपूर्व जैसी अराजकता की ज़मीन तैयार हो रही है जिस पर साम्राज्यवादी ताक़तें अपनी विभाजनकारी हिंसक राजनीति की खेती किया करती है।
नेपाल आज एक चौराहे पर खड़ा है।
या तो यह विद्रोह वहां के संविधान की आत्मा को मज़बूत करेगा और नये नेपाल की मज़बूत बुनियाद बनेगा, या फिर यह केवल एक तीव्र लेकिन क्षणिक विस्फोट रह जाएगा।
भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि जनता और राजनीतिक नेतृत्व इस विद्रोह से निकली ऊर्जा को किस दिशा में मोड़ते हैं। संविधान की पक्षधर ताकतों को नये युवा नेतृत्व के साथ सत्ता की बागडोर सँभालनी होगी।
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