शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

चीन-अमेरिका तथा उत्पादन और वितरण के वैश्विक संतुलन पर एक नोट

 


-अरुण माहेश्वरी 

चीन दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक और अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता । पर दोनों ही समान रूप से शक्तिशाली । 

यह किसी को भी एक अजीब सी गुत्थी की तरह लग सकता है । 

सामान्य धारणा यह है कि जिसके पास उत्पादन की चाबी होती है, अर्थ-व्यवस्था की चाबी भी उसी के पास रहती है। पर ऐतिहासिक सच्चाई यह है उत्पादन ख़ुद में तब तक पूरा नहीं होता, जब तक उसका वितरण/खपत नहीं होता । 

यही पूंजीवादी अद्वैत का द्वैत है । परमशिव का यथार्थ जगत् में शिव-शक्ति वाला युग्म रूप । पूंजीवाद का युग्म। 

पूंजीवादी व्यवस्था का एक पहलू उत्पादन का है तो दूसरा वितरण का । यह समग्र रूप से उत्पादन संबंधों और वितरण-संबंधों के समांतराल (parallex) की व्यवस्था है । 

जैसे पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था की अपनी ऐतिहासिकता है जिससे सामाजिक संबंधों का एक खास स्वरूप निःसृत होता है, वैसे ही पूंजीवाद में वितरण भी एक ऐतिहासिक विकास का विषय है जो सामाजिक प्रक्रिया से लेन-देन के परस्पर खास सामाजिक संबंधों को विकसित करता है । ये दोनों परस्पर भिन्न, बल्कि विपरीत होकर भी परस्पर पूरक है । एक निर्माण है तो अन्य खपत । 

कार्ल मार्क्स ने “पूंजी” के तीसरे भाग के अंत के 51वें अध्याय में जहां वितरण संबंधों और उत्पादन संबंधों की समांतरलता की व्याख्या की है, उसमें इस सत्य पर बहुत गहराई से प्रकाश डाला था । वे लिखते हैं : 

“A more advanced, more critical mind, however, admits the historically developed character of distribution relations,¹ but nevertheless clings all the more tenaciously to the unchanging character of production relations themselves, arising from human nature and thus independent of all historical development.

On the other hand, scientific analysis of the capitalist mode of production demonstrates the contrary, that it is a mode of production of a special kind, with specific historical features; that, like any other specific mode of production, it presupposes a given level of the social productive forces and their forms of development as its historical precondition: a precondition which is itself the historical result and product of a preceding process, and from which the new mode of production proceeds as its given basis; that the production relations corresponding to this specific, historically determined mode of production- relations which human beings enter into during the process of social life, in the creation of their social life-possess a specific, historical and transitory character; and, finally, that the distribution relations essentially coincident with these production relations are their opposite side, so that both share the same historically transitory character.”

अर्थात्, “एक अधिक विकसित और आलोचनात्मक दिमाग़ यह तो मान लेता है कि वितरण (distribution) के संबंध इतिहास के साथ बदलते रहते हैं; लेकिन फिर भी वह इस बात पर अड़ा रहता है कि उत्पादन (production) के संबंध मनुष्य की प्रकृति से उत्पन्न होते हैं, इसलिए वे इतिहास से स्वतंत्र और सदा एक समान रहते हैं।

“परंतु पूंजीवादी उत्पादन-पद्धति (capitalist mode of production) का वैज्ञानिक विश्लेषण इसका ठीक उल्टा दिखाता है।

यह बताता है कि यह उत्पादन की एक विशेष ऐतिहासिक पद्धति है , जिसकी अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थितियाँ और सीमाएँ हैं। हर उत्पादन-पद्धति की तरह, यह भी सामाजिक उत्पादन-शक्तियों (social productive forces) के एक निश्चित स्तर और उनके विकास के रूपों को अपनी ऐतिहासिक पूर्वशर्त (precondition) के रूप में अपनाती है।

यह पूर्वशर्त खुद पहले के किसी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम और उत्पाद होती है, और उसी से नई उत्पादन-पद्धति अपने विकास की आधारशिला तैयार होती है।

“इस प्रकार इस विशेष, ऐतिहासिक रूप से निर्धारित उत्पादन-पद्धति से जुड़े हुए उत्पादन-संबंध (production relations), जिनमें मनुष्य अपने सामाजिक जीवन की रचना के दौरान प्रवेश करता है, स्वयं एक विशिष्ट, ऐतिहासिक और अस्थायी (transitory) चरित्र रखते हैं ; और अंत में, वितरण के संबंध (relations of distribution), जो मूल रूप से इन्हीं उत्पादन-संबंधों का दूसरा पहलू हैं,

उन्हीं के समान ऐतिहासिक और अस्थायी चरित्र को साझा करते हैं।” 

संक्षेप में, मार्क्स ने बताया था कि पूंजीवाद में उत्पादन और वितरण, दोनों ही मनुष्य की नैसर्गिक प्रकृति से नहीं, बल्कि समाज के ऐतिहासिक विकास से उत्पन्न होते हैं और इतिहास के साथ बदलते रहने वाले सामाजिक संबंध बनाते हैं। पूंजीवादी समग्र सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में दोनों की समान भूमिका होती है । 

यही वजह है कि आज विश्व-अर्थव्यवस्था में चीन और अमेरिका उत्पादन और वितरण के दो ध्रुव हैं और दोनों ही संतुलनकारी है । चीन की फैक्ट्रियों के पास दुनिया की 30प्रतिशत से अधिक विनिर्माण क्षमता हैं, जबकि अमेरिका में वैश्विक उपभोग का लगभग 25% होता है। इनमें से कोई भी अन्य के संतुलन को बिगाड़ने की शक्ति रखता है । 2025 में ट्रंप के टैरिफ़ युद्ध के काल में यह संतुलन काफी नाजुक हो गया है । 

पर जैसा कि मार्क्स ने कहा है कि यह पूरी व्यवस्था एक ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज है । इसीलिए इसमें उत्पादन और वितरण का संतुलन हमेशा एक सा नहीं रह सकता । 1980 के दशक तक अमेरिका उत्पादन का केंद्र था, लेकिन वैश्वीकरण की परिस्थिति में सस्ते श्रम के कारण उत्पादन चीन की ओर चला गया । अभी तमाम कंपनियाँ अपनी आपूर्ति श्रृंखला को क़ाबू में रखने, परिवहन लागत को कम करने, स्थानीय रोजगार बढ़ाने और भू-राजनीति के खतरें से बचने के लिए है “फ्रेंडशोरिंग” और “रिशोरिंग” जैसे उपायों पर लगातार काम करती रहती है । 

जैसे इंटेल जैसी अमेरिकी चिप निर्माता कंपनियाँ चीन या ताइवान से उत्पादन को अमेरिका वापस ला रही हैं। अमेरिका का 2022 का चिप एक्ट इसका एक बड़ा उदाहरण है जिसमें 52 बिलियन डालर की सब्सिडी से अमेरिका में ही सेमीकंडक्टर उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है।  चीन का भी पूरा ज़ोर आंतरिक खपत को बढ़ाने पर है । इस प्रक्रिया को रिशोरिंग कहा जाता है। 

इसी प्रकार, फ्रेंडशोरिंग की प्रक्रिया भी है जिसमें कंपनियाँ अपनी आपूर्ति श्रृंखला को केवल उन देशों तक सीमित रखती हैं जो राजनीतिक, आर्थिक या सामरिक रूप से मित्र राष्ट्र की श्रेणी में आते हैं। वे जोखिम वाले देशों से दूर रहती हैं । 

यह सब पूंजीवादी व्यवस्था की आंतरिक गतिशीलता के कारक बिंदु हैं। 

विश्व अर्थव्यवस्था में यह तनाव तब तक जारी रहेगा जब तक पूंजीवाद कायम रहेगा; राष्ट्र राज्यों के बीच हितों का टकराव बना रहेगा; जब तक राष्ट्रों के बीच परस्पर विश्वास और सहयोग के आधार पर साझा सुरक्षा प्रणाली के तहत एक प्रकार की वैश्विक सरकार का गठन नहीं होगा और सारी दुनिया के जनगण के हित सबके साझा हित नहीं होंगे । 

इस संदर्भ में चीन की ओर से लगातार विश्व प्रशासकीय व्यवस्था की माँग राजनीतिक दृष्टि से विश्व मानवता के हित की सबसे बड़ी माँग है। यही चीन के समाजवादी अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का द्योतक है। 

निस्संदेह यह एक आदर्श विश्व स्थिति की कल्पना है जब उत्पादन और वितरण का समांतरलता का पूरी तरह से अंत हो जायेगा । पर वास्तविक विश्व शांति, संतुलित पर्यावरण और वैश्विक सरकार साम्यवाद की ओर विकासमान समाजवाद के बिना संभव नहीं है। 

भारत ने शुरू से मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम पर एक हाइब्रिड मॉडल अपनाया जिसमें राज्य नाम के वास्ते ही कॉरपोरेट को नियंत्रित करता है लेकिन इसकी ओट में बाजार के नाम पर उन्हें पूरी स्वतंत्रता प्राप्त होती है । इससे जितना तेज विकास होता है, उतनी ही असमानता बढ़ती है । आज एक प्रतिशत के पास 40% संपत्ति की मिल्कियत है । इससे घरेलू बाजार सबसे अधिक व्याहत हुआ है जो उत्पादन के नवीनीकरण की प्रक्रिया के लिए सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। यहां अमेरिका की तर्ज़ पर क़र्ज़ के आधार पर खपत को बढ़ाने का सूत्र भी पूरी तरह से सफल नहीं हो पा रहा है । भारत आज दुनिया में जिस प्रकार अलग-थलग पड़ता जा रहा है, उसके मूल में भी उसकी अर्थव्यवस्था का यह अधकचरापन है जो किसी के लिए भी एक जरूरी घटक की तरह नहीं है।

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