−अरुण माहेश्वरी
शम्सुल इस्लाम-अशोक पांडे के बीच गोलवलकर की किताब ‘वी ऑर आवर नेशनहुड’ से जुड़े विवाद में रॉयल्टी वगैरह का जो भी विषय है, उसके बारे में हम कुछ नहीं जानते । वह विषय दोनों के बीच का करार-सापेक्ष विषय है ।
पर इस विवाद में शम्सुल इस्लाम ने अशोक पांडे को जो पत्र लिखा है, उसे जब आज देखा तो जरूर कुछ देर के लिए हमारा दिमाग चकरा गया । उस पत्र में यह दावा किया गया है कि “इस पुस्तक के कारण ही गोलवलकर की यह घृणित किताब देश के सामने आ सकी । और वहीं से गोलवलकर के हिटलर के नरसंहार के प्रेम, फासीवादी विचारों से देश परिचित हो सका । जिसे छुपाने के लिए इस पुस्तक को खुद आरएसएस कभी प्रकाशित नहीं करता । वो वर्षों पुरानी छुपी हुई किताब पहली बार इस पुस्तक के माध्यम से सबके सामने आ सकी ।”
शम्सुल इस्लाम ने यह दावा इस आधार पर किया है कि उनकी पुस्तक के प्रकाशन के पहले “इस किताब के बारे में खुशवंत सिंह जी को भी सूचना नहीं थी । उन्हें भी पहली बार मेरी किताब से ही इस किताब की जानकारी मिली कि गोलवलकर ने ऐसी भी कोई किताब लिखी थी ।” खुशवंत सिंह का यह कथन किताब के बैक कवर पर भी प्रकाशित हुआ है ।
हम इस तर्क को समझने में असमर्थ है कि किसी किताब की जानकारी यदि खुशवंत सिंह जी को नहीं थी तो इसका अर्थ यह कैसे हो जाता है कि पूरी दुनिया ही उस किताब के बारे में कुछ नहीं जानती थी !
हमारी जानकारी में आरएसएस को विषय बना कर आलोचनात्मक दृष्टि से लिखा गया सबसे पहला काम श्री गोविंद सहाय का मिलता है, जिसे उन्होंने गांधी जी की हत्या के ठीक बाद सबसे पहले एक पैंफलेट की शक्ल में लिखा था – “Nazi Technique and R.S.S.” । श्री सहाय उस वक्त उत्तर प्रदेश सचिवालय के एक अधिकारी हुआ करते थे । गांधी हत्या के बाद, जब आरएसएस पर प्रतिबंध लगा, तब 1948 में गोविंद सहाय ने 60 पृष्ठों की पूरी किताब लिखी –“R.S.S. : Ideology, Technique, Propaganda”(1948) । इस किताब में भी तमाम उदाहरणों से यही बताया गया था कि किस प्रकार आरएसएस संगठन और विचारधारा के हर मामले में नाजियों की नीतियों का अनुसरण करता है ।
फिर भी, यह सच है कि गोविंद सहाय आरएसएस में गोलवलकर की अहम् भूमिका को जानने बावजूद तब तक उन्हें गोलवलकर की इस किताब, “We or our Nationhood defined” की जानकारी नहीं थी । लेकिन आरएसएस के बारे में जो सबसे पहला व्यवस्थित अध्ययन किया गया, वह था J. A. Curran, Jr. का “Militant Hinduism in Indian Politics : A study of the R.S.S.” । कुर्रान ने यह अध्ययन अमेरिकी संस्था इंस्टिट्यूट आफ पैसिफिक रिलेशन्स की ओर से किया था, जिसे 1951 में न्यूयार्क से प्रकाशित किया गया था । कहा जाता है कि यह काम सन् पचास के जमाने में भारतीय समाज के तनावों के बारे में सीआईए द्वारा कराये गये अध्ययनों की श्रृंखला की एक कड़ी था । परंतु खुद इस संस्थान का दावा था कि वह “कोई शासकीय या पक्षधर संस्थान नहीं है ।” आरएसएस के बारे में अब तक की सबसे लोकप्रिय देसराज गोयल की पुस्तक “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” में भी यह माना गया है कि “इस अध्ययन का उद्देश्य जो भी हो, आर.एस.एस. पर आलेखों से पुष्ट यह पहला शोध-निबंध है । इसीलिए इसका महत्व निर्विवाद है ।” (पृः68)
गौर करने लायक बात है कि कुर्रान के इस अध्ययन में गोलवलकर की इस छोटी सी 78 पृष्ठों की पुस्तक ‘वी’ को बाकायदा आरएसएस की ‘बाइबिल’ कहते हुए काफी विस्तार से उद्धृत किया गया था । कुर्रान के 93 पृष्ठों की इस निबंध के पूरे छः पृष्ठ (पृष्ठ 28-33) इस एक पुस्तिका पर ही खर्च किए गए थे ।
इसके बाद हम आते हैं इस किताब पर हिंदी में हुई चर्चा पर । देसराज गोयल की पुस्तक “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” जिसका हिंदी में अनुवाद विश्वनाथ त्रिपाठी ने किया था और जिसका प्रकाशन 1979 में राधाकृष्ण प्रकाशन ने किया उस किताब में भी कुर्रान की किताब “मिलिटेंट हिंदुइज्म इन इंडियन पोलिटिक्स” और गोलवलकर की “वी ऑर आवर नेशनहुथ डिफाइंड” (हम : हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा) पर चर्चा मिलती है । पर श्री गोयल ने ‘वी’ के प्रसंग को उसकी स्थापनाओं के विवेचन के बजाय एक दूसरा ही मोड़ दे दिया कि वह किताब आरएसएस के दावों के विपरीत गोलवलकर की अपनी ‘मौलिक रचना’ नहीं थी । (पृः66) आरएसएस ने उस किताब का बाद में ज्यादा खुल कर प्रचार नहीं किया, इसे भी उन्होंने सिर्फ गोलवलकर के ‘मौलिक विचार’ के दावे के झूठ को छिपाने की एक कोशिश मान कर किताब पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और कह दिया कि यह किताब बाबाराव सावरकर की मराठी किताब “राष्ट्र मीमांसा” का संक्षिप्त अनुवाद थी । गोयल ने अपने इस निष्कर्ष के पक्ष में गोलवलकर के ही एक कथन का उल्लेख किया जिसमें फैलाया था कि “संघ के स्वयंसेवक ‘वी’ नामक जिस पुस्तक का पारायण करते हैं वह मेरे द्वारा किया गया बाबाराव सावरकर की पुस्तक ‘राष्ट्र मीमांसा’ का संक्षिप्त रूप है ।”
हमारी राय में देसराज गोयल का गोलवलकर की बात पर यकीन करना जरा भी उचित नहीं था, क्योंकि 1947 के बाद जब आरएसएस पर प्रतिबंध लग गया था, तब ऐसी नाजी विचारधारा पर आधारित पुस्तक से खुद के और आरएसएस के नाम को दूर रखने के उद्देश्य से ही गोलवलकर ने जहां खुद को उससे अलग करने की घोषणा की थी वहीं आरएसएस ने भी उस पुस्तक के प्रकाशन को रोक दिया और जगह-जगह से उसे गायब भी करने लगे । गोयल ने यह गौर नहीं किया कि 1947, अर्थात् आरएसएस पर प्रतिबंध के पहले तक इस किताब के चार संस्करण प्रकाशित हो चुके थे ।
बहरहाल, अब हम आते हैं 1993 में प्रकाशित हमारी पुस्तक “आर एस एस और उसकी विचारधारा” पर । यह किताब सबसे पहले सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी के प्रकाशन से छापी गई थी । बाद में जब केंद्रीय कमेटी ने हिंदी की किताबों के प्रकाशन को बंद करने का निर्णय लिया तो इसे राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित किया गया । और बाद में यह लगातार दिल्ली के अनामिका प्रकाशन से छप रही है । इसके चौथे संस्करण (2014) तक तो हमने इसमें कुछ-कुछ संशोधन किए, पर तब से अब तक यह उसी रूप में छप रही है ।
अपनी इस किताब में हमने जे. ए. कुर्रान जूनियर के शोध-निबंध और गोलवलकर की पुस्तक “वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड” पर काफी विस्तृत चर्चा की है । सिर्फ ‘वी’ पर लगभग 23 पृष्ठ लिखे गए । उसके एक अध्याय “फासीवाद का भारतीय संस्करण : संघ का हिंदुत्व” में ‘आर एस एस की गीता’ उपशीर्षक से लगभग सात पृष्ठों का एक पूरा अध्याय ही है । (पृष्ठ 55-62) और फिर “मुस्लिम-विद्वेष” शीर्षक अध्याय में इस पर और लगभग 15 पृष्ठ लिखे गए । इनके अलावा भी पूरी किताब की संरचना में ‘वी’ किसी न किसी रूप में मौजूद है ।
इसी संदर्भ में, “मुस्लिम-विद्वेष” शीर्षक अध्याय का एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इसमें बताया गया है कि किस प्रकार जब सन् 1939 में ‘वी’ का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ था उस समय एआईसीसी के तत्कालीन जाने-माने नेता लोकनायक एम.एस.अणे ने उसकी भूमिका लिखी थी और उस भूमिका के लिए गोलवलकर ने किताब की अपनी भूमिका में यह लिखा कि “यह मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर प्रसन्नता की बात है कि लेखन के क्षेत्र में अब तक अनजान मेरे जैसे व्यक्ति के इस प्रथम प्रयास की भूमिका लोकनायक एम.एस. अणे ने लिखी। एक महान तथा निःस्वार्थ देशभक्त, अद्यीत विद्वान तथा गहन चिंतक होने के नाते, जैसा मैंने सोचा था, उनकी भूमिका ने ठोस रूप में पुस्तक के मूल्य को बढ़ाया है।" (वी, पृ. 3) ।
मजे की बात यह है कि लोकनायक अणे की इसी भूमिका को गोलवलकर ने इस पुस्तक के बाद के संस्करणों से हटा दिया, जैसा कि 1947 के इसके चौथे संस्करण को देखने से पता चलता है ।
हमने सवाल उठाया कि ऐसे ‘एक महान तथा निःस्वार्थ देशभक्त, अद्यीत विद्वान तथा गहन चिंतक’ अणे की ही इस भूमिका को गोलवलकर ने बाद में हटा क्यों दिया ? इस पर हमने पाया कि श्री अणे ने अपनी उस भूमिका में ही किताब की स्थापनाओं की तीव्र भर्त्सना की थी । हमारी किताब “आरएसएस और उसकी विचारधारा” में यह पूरी कहानी मौजूद है । हम यहां फिर से एक बार अणे ने गोलवलकर की इस किताब पर जिस प्रकार आपत्तियां उठाई थी, उसके एक विस्तृत उद्धरण देना चाहेंगे । इस किताब के निष्कर्षों के बारे में श्री अणे लिखते हैं:
“इन निष्कर्षों से राजनीतिज्ञों के सामने जो व्यवहारिक समस्याएं खड़ी होती हैं, वह अत्यंत गहरी है तथा उन पर सावधानी और धीरज के साथ विचार किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि मुसलमानों के स्थान की समस्याओं के बारे में विचार करते वक्त लेखक (गोलवलकर) ने हिंदू राष्ट्रीयता तथा हिंदू राष्ट्र के सार्वभौम राज्य के बीच के फर्क को हमेशा ध्यान में नहीं रखा है। एक सार्वभौम राज्य के रूप में हिंदू राष्ट्र एक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के रूप में हिंदू राष्ट्र से पूरी तरह भिन्न चीज है। किसी भी आधुनिक राष्ट्र ने विभिन्न राष्ट्रीयताओं के अपने अधिवासी अल्पसंख्यकों को नागरिकता के अधिकार से वंचित नहीं किया है यदि वे स्वतःस्फूर्त ढंग से या कानून के द्वारा राष्ट्र के स्वाभाविक अंग बन गए हों।...अल्पसंख्यक के रूप में नागरिकता के सभी अधिकारों के साथ ही अपनी संस्कृति, भाषा और धर्म को सुरक्षित रखने की विशेष व्यवस्थाएं कुल मिलाकर किसी भी राज्य के सार्वभौमिकता के अधिकारों के प्रयोग के साथ बेमेल नहीं मानी गई हैं।…कोई भी आधुनिक न्यायशास्त्री या राजनीतिक दर्शनशास्त्री या संवैधानिक कानून का विद्यार्थी पुस्तक के पांचवें अध्याय में कही गई लेखक की इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता।...मेरे मन में इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि लीग ऑफ नेशंस की अल्पसंख्यक संबंधी संधि का धीरज से अध्ययन करने पर लेखक ने इतनी धृष्टता के साथ जो बात कही है, उसका कोई स्थान रह जाता। सांस्कृतिक तौर पर भिन्न अल्पसंख्यकों को अपने धार्मिक आचार को बनाए रखने तथा उसका पालन करने की अनुमति देने और उनकी संस्कृति की रक्षा के अनुकूल स्थितियां बनाने से किसी भी राज्य की सार्वभौमिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, बशर्ते वे सार्वजनिक नैतिकता और नीति का उल्लंघन न करें। किसी भी देश में पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति, जिसके पुरखों को सदियों से नागरिकता के अधिकार प्राप्त रहे हैं, किसी भी आधुनिक राज्य में सिर्फ इसलिए विदेशी नहीं माना जा सकता है कि वह उस देश की बहुसंख्यक आबादी, जो स्वाभाविक तौर पर उस राज्य पर नियंत्रण रखती है, से भिन्न धर्म को अपनाए हुए है। इस बीसवीं सदी में किसी भी बाहरी व्यक्ति के प्रकृतिकरण की शर्त धर्म परिवर्तन नहीं हो सकता।...मैं यह भी जोड़ना चाहता हूं कि लेखक ने उन लोगों के प्रति, जो राष्ट्रवाद के उनके सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते, जिस कठोर और उत्तेजक भाषा का प्रयोग किया है, वह राष्ट्रवाद की तरह की एक जटिल समस्या के लिए आवश्यक वैज्ञानिक अध्ययन की मर्यादा के अनुकूल नहीं है। इस भूमिका में इन बातों का उल्लेख करना मुझे कष्टदायी प्रतीत होता है। लेकिन मैं समझता हूं कि इन उपरोक्त विषयों पर अपनी राय को बिलकुल साफ और स्पष्ट शब्दों में न रखकर मैं अपने प्रति ही गैर-ईमानदार और अन्यायपूर्ण होता ।" (वी, पृ. 14 से 18)
और, जहां तक इस पुस्तक को जी डी सावरकर की ही मराठी पुस्तक “राष्ट्र मीमांसा” का संक्षिप्त संस्करण घोषित करने के गोलवलकर के झूठ का सवाल है, यह गौर करने की बात है कि 1939 में प्रकाशित पुस्तक के पहले संस्करण की भूमिका में खुद गोलवलकर ने उस पुस्तक का उल्लेख किया है और लिखा है कि “राष्ट्र मीमांसा” का अंग्रेजी अनुवाद जल्द ही आने वाला है । उनके शब्दों में – “His (G.D.Savarkar’s) work Rashtra Meemansa in Marathi has been one of my chief sources of inspiration and help. An English translation of this work is due shortly out.”
अर्थात् यह साफ है कि गोलवलकर की यह किताब जी.डी.सावरकर उर्फ बाबा राव सावरकर, जैसा कि देसराज गोयल ने माना था, की नहीं थी, खुद गोलवलकर की ही थी । ‘राष्ट्र मीमांसा’ का अंग्रेजी अनुवाद अलग से आया था, जिसकी पूर्वघोषणा गोलवलकर ने ही अपनी किताब के पहले संस्करण की भूमिका में की थी ।
गोलवलकर एक कितने गैर-ईमानदार और कृतध्न व्यक्ति थे, इस सचाई को उनकी इस किताब के चौथे संस्करण को देख कर बहुत अच्छी तरह से जाना जा सकता है, जिसमें उन्होंने पहले संस्करण की भूमिका को भी फिर से प्रकाशित कराया था । चौथे संस्करण में पुनर्प्रकाशित पहले संस्करण की भूमिका से न सिर्फ लोकनायक अणे के प्रति आभार वाले प्रसंग को ही हटा दिया गया, बल्कि जी.डी.सावरकर की “राष्ट्र मीमांसा” और उससे मिली प्रेरणा आदि के प्रसंगों को भी गायब कर दिया । और बाद में, जब 1948 में आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया गया, तब खुद गोलवलकर ने यह प्रचारित कराया कि उनकी पुस्तक ‘वी’ तो उनकी लिखी हुई नहीं थी, वह तो बाबा राव सावरकर की “राष्ट्र मीमांसा” का एक संक्षिप्त संस्करण भर थी ! दुर्भाग्यवश, देसराज गोयल जैसे गहन शोधकर्ता ने भी इस बात पर विश्वास कर लिया, वे गोलवलकर के राजनीतिक छल को समझने में विफल रहे । हम यहाँ ‘वी’ के 1939 के पहले संस्करण की भूमिका और 1944 के चौथे संस्करण में पुनर्प्रकाशित पहले संस्करण की भूमिका, दोनों की तस्वीरें प्रकाशित कर रहे हैं ।
यहां प्रसंगवश हम इस विषय में अपने एक निजी अनुभव को भी साझा करना चाहेंगे ।
6 दिसंबर 1992 में जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया, तभी दिल्ली में रहते हुए हमने आरएसएस के सांगठनिक ढांचे और उसकी विचारधारा के स्रोतों के अध्ययन का बीड़ा उठाया । उन दिनों हम त्रिमूर्ति भवन में स्थित नेहरू मेमोरियल एंड म्यूजियम लाइब्रेरी में नियमित जाया करते थे । वहां उस समय पुराने सोशलिस्ट और इतिहास के विषयों के अद्यीत विद्वान हरिदेव शर्मा डिप्टी लाइब्रेरियन हुआ करते थे, जिनसे हर दिन उनके चैंबर में हम गप-शप करते थे । आरएसएस पर काम में उनके सहयोग को मैं कभी भूल नहीं सकता हूँ । वे मुझे अपने नाम से किताबें ईशू कराके घर भी ले जाने देते थे ।
उन्होंने ही एक दिन हमसे कहा कि गोलवलकर की इस किताब “वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड” को आप ले जाइयें और इसकी एक प्रति जेराक्स कराके अपने पास रख लीजिए । उन्होंने बताया कि जिस मुस्तैदी से आरएसएस के लोग हर जगह से इस किताब को गायब कर रहे हैं, बहुत संभव है कि हमारे यहां से भी कोई इसे चुरा ले जायेगा और फिर इस पुस्तक का कहीं मिलना ही कठिन हो जाएगा । यह कहते हुए उन्होंने ‘वी’ का पहला और चौथा संस्करण, दोनों ही मुझे दो दिन के लिए दे दिये। हमने उन दोनों किताबों की जेराक्स कराके बाकायदा उन्हें मजबूत जिल्द में मढ़वा कर अपनी लाइब्रेरी में सहेज कर रख लिया। उस समय तक गोलवलकर की मृत्यु के बाद पचीस साल भी नहीं बीते थे, इसलिये उसे किसी प्रकाशक को दे कर प्रकाशित कराना मुमकिन नहीं था । कॉपीराइट का सवाल था । पर वे दोनों किताबें हमारे उस पूरे अध्ययन में बहुत काम आई और हमारे पास आज भी हमारी एक बेशकीमती निधि के रूप में मौजूद हैं । यहां हम इन दोनों संस्करणों की तस्वीरें भी मित्रों से साझा कर रहे हैं ।
गोलवलकर की मृत्यु 5 जून 1973 के दिन हुई और इसके ठीक पचास साल बाद ही हमने देखा कि शम्सुल इस्लाम ने उस पूरी किताब को अपनी आलोचना के साथ प्रकाशित करा दिया । तब हमने सचमुच राहत की साँस ली कि अपनी तमाम गतिविधियों को गोपनीय रखने के फासिस्ट विचारों वाला आरएसएस इस महत्वपूर्ण किताब को दफना देने के अपने इरादे में कामयाब नहीं हुआ, जिससे उसकी विचारधारा और उसकी सांगठनिक गतिविधियों के स्रोत का बिल्कुल सही-सही अनुमान मिल जाता है ।
इस पूरे प्रसंग में अंत में हम श्री शम्सुल इस्लाम से यही कहेंगे कि वे यह दावा न करें कि उनकी किताब के पहले दुनिया में कोई इस किताब को जानता नहीं था । बल्कि सचाई यह है कि उसे आधार बना कर बहुत पहले ही इस लेखक ने आरएसएस की सारी गोपनीयता और उसके नाजीवादी विचारों पर से पूरी गंभीरता और शोधपरक ढंग से पर्दा उठाया था ।
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