मंगलवार, 24 जून 2025

सेंसरशिप आप पर भरोसे की कमी का द्योतक है

- प्रो. प्रतापभानु मेहता



कल (23 जून ) शाम कोलकाता में हमारे समय के एक प्रमुख भारतीय विचारक प्रोफेसर प्रतापभानु मेहता को सुनने और कुछ बातचीत भी करने का मौका मिला । उनकी वार्ता का विषय था – Free speech (बोलने की स्वतंत्रता) । वार्ता स्थल था चौरंगी पर स्थित ‘कन्वर्सेशन रूम’। कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए अभिमन्यु माहेश्वरी ने इसे क्लास रूम में बदलने के सोच पर अपने वक्तव्य रखा। कार्यक्रम का संचालन किया ‘किंडल’ पत्रिका की संपादिका पृथा केजरीवाल ने । 

मनुष्य की किसी भी स्वतंत्रता की हानि अंततः मनुष्य मात्र की हानि है । और, जहां तक विचार और अभिव्यक्ति का सवाल है, मानवप्राणी के संघटन का ही एक मूलभूत तत्त्व होने के नाते, इसकी हानि तो मनुष्य की संभावनाओं मात्र की हानि कहलायेगी । 

जैसा कि प्रोफेसर मेहता के लेखन से अपने थोड़े से परिचय के नाते हम जानते हैं कि जनतंत्र, सांस्थानिक अखंडता, संविधान और विश्व-व्यवस्था की तरह के सर्वव्यापी विषयों की जांच-पड़ताल उनके लेखन का प्रमुख रुझान रहा है। यह सब उस संरचनात्मक व्यवस्था के द्योतक हैं जिनके दायरों में ही आज के मनुष्य के विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएं और संभावनाएं तय हुआ करती हैं। 

प्रोफेसर मेहता ने अपनी बात का प्रारंभ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर छाये संकट के उल्लेख से किया और चुटकी लेते हुए कहा इसकी चर्चा इतनी व्यापक है कि अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे डी वॉन्स भी कहते हैं कि यूरोप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संकट है । 

सांस्थानिक संरचनाओं की महत्ता के प्रति आग्रहशील प्रो. मेहता शुरू में ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अबाधता और परमता को प्रश्नांकित करते हुए कहते हैं कि संविधान अगर इसकी रक्षा के कवच के रूप में काम करता है, तो वह उसकी एक सीमा भी तय करता है । मूलतः वह नागरिकों के बीच विश्वास के अधिकतम स्तर के निर्माण की आधारशिला तैयार करता है । 

इसी संदर्भ में सेंसरशिप के प्रश्न और संविधान की धारा 295 के प्रसंग को उठाते हुए उन्होंने कहा कि ‘रंगीला रसूल’ शीर्षक पर्चे की पृष्ठभूमि में निर्मित इस धारा का सार यही था कि कोई भी अभिव्यक्ति ऐसी न हो जो किसी की धार्मिक भावना को आहत करें । यह धर्म संबंधी अभिव्यक्तियों पर विचार के एक खास सेकुलर ढांचे का रूप है । पर विडंबना यह है कि यह ‘आहत भावना’ आज एक भिन्न औजार का रूप ले चुकी है । यह वैसे ही है जैसे सेंसरशिप तक का प्रयोग किसी उत्पाद को लोकप्रिय बनाने के लिए भी किया जाता है ! 

प्रो. मेहता ने स्वामी विवेकानंद की कश्मीर में खीर भवानी के मंदिर की यात्रा पर विगलित हो जाने की कहानी पर कहा कि विवेकानंद का संकेत यह था कि उसकी भग्न अवस्था हिंदू समाज के निजी आचरण से हुई, न कि किसी आक्रांता से । 

प्रो. मेहता ने धर्म और राष्ट्रवाद के घाल-मेल से उत्पन्न समस्याओं के संवैधानिक पहलुओं की ओर भी ध्यान आकर्षित किया । स्वतंत्रता की वकालत करते हुए उन्होंने कहा कि सेंसरशिप के प्राविधानों का एक मात्र तात्पर्य यह है उसके जरिये आप पर पूरा भरोसा न करने के भाव को व्यक्त किया जाता है । 

बहरहाल, इसी तर्ज पर उन्होंने संस्थाओं के दबावों के नाना रूपों की चर्चा की और विषय को समेटते हुए जॉक दरीदा के कथन का प्रयोग किया कि ‘सभी विज्ञान बिना संदर्भ के कुछ भी जाहिर नहीं करते’ ।  इसीलिए चीजों को तथ्यात्मक नजरिये से देखने की जरूरत है, न कि भावनात्मक, पहचान के सवाल के रूप में । 

मोटे तौर पर हम जो याद कर पा रहे हैं, इन संदर्भों में ही उन्होंने लगभग सवा घंटे तक श्रोताओं को अपने प्रवाह के साथ बांधे रखा । अंत में उन्होंने श्रोताओं के कुछ सवालों का भी जवाब दिया । 

हम हमेशा से प्रो. मेहता के लेखों के एक सतर्क पाठक रहे हैं और यदा-कदा उनके लिखे पर अपने ब्लाग पर हमने टिप्पणी भी की है । हमारा सौभाग्य रहा कि इस चर्चा के बाद उसी स्थान पर उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने और थोड़ी चर्चा करने का हमें मौका मिला ।



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