शुक्रवार, 27 जून 2014

‘आस’ की बास'

अरुण माहेश्वरी

‘जनसत्ता’ के 22 जून, रविवार के अंक में अवनिजेश अवस्थी का लेख ‘उम्मीद रखना अपराध नहीं’ पढ़ा। जाम्बवंत की तरह हनुमान अर्थात उदयन वाजपेयी को अपनी विस्मृत अलौकिक शक्ति का स्मरण कराता हुआ लेख। वे कहते हैं - अरे, तुम्हारे पास 'धर्मपाल जी' जैसा धरती के पूरे सच को प्रकाशित करने वाला सूरज समान इतिहासकार मौजूद है और तुम उसी को भूल गये! असल मुद्दा ही ‘बिला’ गया! वामपंथी रावणों की लंका में जाने के लिये अपने धर्मपालजी की दिव्य शक्ति का प्रयोग करते, देखते कैसे सारा अंधेरा छंट जाता। ‘मुद्दे की बात’ स्थपित हो जाती कि अब बिना ‘गांधी नेहरू परिवार का बोझ उतारे’ कांग्रेस का पुनरुद्धार संभव नहीं। इसी परिवार, नूरूल हसन और वामपंथियों की धुरी ने तो सम्पाति की तरह हमारे पारंपरिक विमर्श के सूर्य को ढंक दिया था। अब मोदीजी आगये हैं, समय आगया है जब ‘धर्मपाल जी’ के जरिये उस पारंपरिक विमर्श का पुनरोदय किया जाए।

अवनिजेश कहते हैं - कुछ लोगों को नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना पसंद नहीं है, लेकिन वे इतने दुराचारी है कि उनके चुन लिये जाने के बाद भी उनसे कोई उम्मीद नहीं रखतें! विरोध तो सिर्फ चुनाव के वक्त तक सुहाता है, उसके बाद कैसा विरोध! ये विदेशी आक्रांताओं को तो ‘न्यायप्रिय, प्रजापालक, प्रजारक्षक’, क्या-क्या नहीं कहते, लेकिन तेगबहादुर की तरह ही नरेन्द्र मोदी को लुटेरा माने हुए हैं!
उदयन वाजपेयी को ‘धर्मपाल जी’ का गुरुमंत्र याद दिला कर और वामपंथियों को नाउम्मीदी का पापी करार कर अजनिवेश जी अंत में ‘अच्छे दिन आने’ की तान को साधते हुए कहते हैं - ‘‘अब विमर्श इस तरह का हो जिसमें भारत को देखने के लिए चश्मा भी भारतीय हो। टेक्नोलोजी बेशक विदेशी हो, पर उसका उपयोग भारतीय मेधा को विकसित करने में हो।’’

‘भारतीय चश्मे’ से भारत-विमर्श और ‘विदेशी तकनीक’ से भारतीय मेधा का विकास - क्या ‘ भारतीय विमर्श’ और ‘ भारतीय मेधा का  विकास’ इतनी ही परस्पर विरोधी चीजें हैं कि एक के लिये भारतीयता की और दूसरी के लिये विदेशीपन की मध्यस्थता की जरूरत है! क्या यही है ‘धर्मपाल जी’ का अचूक नुस्खा !
विदेशीपन के बरक्स अपनी ‘भारतीयता’ को साकार करते हुए इस सरकार से अजनिवेश जी की अकेली ‘भारतीय’ उम्मीद है - ‘औद्योगिक उत्पादन बढ़ें, पर पर्यावरण की भेंट चढ़ा कर नहीं।’ और अंतिम वाक्य में, इशारे में वामपंथियों पर तोहमत लगाते हुए पूछते हैं - ‘‘लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार से ऐसी उम्मीद रखना, आस लगाना भी क्या अब अपराध माना जाएगा?’’

अर्थात, भले और कुछ उम्मीद न रखो, कम से कम पर्यावरण की उम्मीद तो रखो! कोई अगर इसकी भी उम्मीद नहीं रखता है, तो अजनिवेश के अनुसार वह लोकतंत्र के ही प्रति ही अनास्था का अपराधी है। अजनिवेश को इस बात का पूरा विश्वास है कि ‘भारतीय विमर्श’ को पुनर्जीवित करने वाले मोदी शासन के ‘अच्छे दिनों’ में और कुछ हो न हो, पर्यावरण की रक्षा जरूर होगी!

इसके बाद भी क्या यह समझना बाकी रह जाता है कि जैसे मोदी सरकार के ‘अच्छे दिन’ है, वैसे ही संभवत: ‘धर्मपाल जी’ की इतिहास दृष्टि से व्युत्पन्न अजनिवेश का ‘पर्यावरण’ है। ‘उम्मीदों’ की मरीचिका। क्या जवाब दें बेचारे वामपंथी ! वे तो अपराधी है क्योंकि वे ऐसी किसी मरीचिका के पीछे दौड़ने, हांफने और थक कर चूर होकर गिर जाने से इंकार करते हैं। अजनिवेश ने पर्यावरण के मुद्दे को जितना सरल समझ रखा है, वामपंथी उतना सरल नहीं मानते। बल्कि, इसे सबसे कठिन और जटिल मानते हैं - पूंजीपतियों के हितों के सर्वथा विपरीत। क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि नरेन्द्र मोदी पूंजीपतियों की मुनाफे की सीमाहीन लिप्सा पर रोक लगायेंगे?

दरअसल, इसके पहले कि पिछले तूफानी दिनों के परिणामों को कोई गंभीरतापूर्वक आत्मसात करें, कहना न होगा आने वाला समय एक अवसाद भरी खुमारी का दौर होगा। 16 मई को जो हुआ, उसके समग्र रूप से वास्तविक परिणाम अभी सामने आने बाकी हैं। जनता को कड़वी दवा के घूट अभी से पिलाये जाने लगे हैं। डर यह है कि कड़वी दवा देने के अभ्यस्त हाथों के चलते कभी ऐसी नौबत भी आ सकती है जब हमें लगेगा कि जैसे 16वीं लोकसभा के चुनाव के समय तक मतदान का अधिकार सिर्फ इसलिये बचा रहा कि वह अपनी मृत्यु का प्रमाण-पत्र लिख सके और वसीयत में कुछ ऐसा ऐलान कर सके कि इस नश्वर जगत में अस्तित्वमान ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका विनाश नहीं होगा। तब यह कहने से भी काम नहीं चलेगा कि हम गफलत के शिकार होगये। सिर्फ एक सवाल बचा रह जायेगा कि कैसे एक आदमी पूरे राष्ट्र को इसप्रकार ठग सकता है?

उदयन वाजपेयी और अवनिजेश झूठे ही वामपंथ के भूत से पीडि़त है। वामपंथी इतिहासकारों के लिये तो उनके पास ‘धर्मपालजी’ का ब्रह्मास्त्र है ही ! और जहां तक वामपंथी ताकतों का सवाल है, वास्तविकता यह है कि आगे बढ़-बढ़ कर रुकना और जो भी दूरी तय की फिर उसके प्रस्थान बिंदु पर लौट कर यात्रा शुरू करना, जैसे उनकी नियति बन चुका है। अपने लक्ष्यों के विराट रूप को देखकर वे हर बार झिझक कर पीछे हट जाते हैं। 16 मई के चुनाव-परिणामों के वाकये पर तो वे अभी बहस की शुरूआत करेंगे। उसमें खुद की तीखी आलोचना करके फिर से जब तक वे नयी संभावनाओं की कल्पनाओं में लीन रहेंगे तब तक समाज की सारी पुरातनपंथी ताकतें अपने को गोलबंद कर ली होगी। उनके समर्थन के लिये पहले से ही राजनीतिक मंच पर किसानों और निम्नपूंजीपतियों की पूरी फौज तैयार खड़ी है। और वामपंथी, अपनी लगातार क्षीणतर ताकत के साथ विभिन्न पार्टियों की हार में एक के बाद दूसरे के साझीदार बनेंगे। कुछ वैचारिक प्रयोगों, ट्रेडयूनियनों और स्थानीय संघर्षों में वे ऐसे मुब्तिला हो जायेंगे कि क्रांति तो बहुत दूर की बात, जो है उसीमें खुद का उद्धार करने की कोशिशों में अपना बेड़ा और गर्क करते जायेंगे।

असल में, अब शायद वह जमीन पूरी तरह तैयार होगयी है जिसपर किसी ‘भारतीय विमर्श’ का पुनर्जीवन नहीं, बल्कि नव-उदारवादी पूंजीवाद के अबाध निर्माण की नींव डाली जा सकेगी। अब किसी ‘जातीय हीनता’ से मुक्ति नहीं, बल्कि यह सचाई जरूर खुल कर सामने आयेगी कि हमारे जनतंत्र का असली मायने है अन्य सभी वर्गों पर अंबानियों-अडानियों-टाटाओं का निरंकुश, स्वेच्छाचारी शासन। जो जनतंत्र एक पूंजीवादी समाज में राजनीतिक हलचलों का हेतु होता है, न कि किसी प्रकार की रूढि़बद्धता का, वही समाज के निकृष्टतम तत्वों के गिरोहों का एक जघन्य दमनतंत्र साबित होगा। उदयन वाजपेयी और अवनिजेश इसीकी खुशी में यदि मतवाले हो रहे हैं तो हमें कुछ नहीं कहना। हम यह भी नहीं जानते कि इससे धर्मपाल जी जैसे ‘विचक्षण’ इतिहासविद् का ‘भारतोन्मुखी’ चिंतन कैसे साकार होगा!

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