मंगलवार, 10 जून 2014

रेत में नहाया है मन

(अरुण माहेश्वरी की पुस्तक 'हरीश भादानी' का सातवां अघ्याय)





सन् 1981, ‘खुले अलाव पकाई घाटी’ का प्रकाशन वर्ष। मरुभूमि की भट्टी से तपती घाटी में ‘सारंगी लेकर बैठे’ अकेले कवि के गीतों और कविताओं का संकलन। सन् ‘66 में प्रकाशित ‘एक उजली नजर की सुईं’ और ‘सुलगते पिंड’ के पूरे 15 साल बाद - फुटकर, अलग-अलग भावों के गीतों-कविताओं का संकलन। 
इस बीच ‘वातायन’ बंद होगयी, कथित वातायन परिवार उजड़ गया, संगी-साथी अपने-अपने दड़बों में सिमट गये, एक अर्से तक कोलकाता का संपर्क भी स्थगित सा हो गया, बड़ा हवेलीनुमा घर बिका और साथ ही हवेली से जुड़ी हैसियत का वलय भी बुझ गया। अति-साधारण छोटे से घर में जीवन सिमटा, और गहराने लगा आम आदमी की निर्बलता और असहायता का बोध। जो अपने साथ कभी पूरा हुजूम लेकर चलते थे, वे अब नितांत अकेले, असमर्थ और असहाय से होगये। चारो ओर कैरियर बनाने की जुगत में लगे लोगों के बीच भविष्य की बिना किसी योजना के जी रहा अकेला, ‘हिंदी’ का रचनारत कवि। बिछड़े सभी बारी-बारी। कभी राखी के पर्व पर शहर भर की बहनों से सोत्साह अपनी कलाई को आबाद कराने वाले कवि के लिये अब यह पर्व एक बोझ सा बन गया। ‘बहनें’ भी छिटकने लगी। जीवन का साधन नहीं, लेकिन कवि-सम्मेलनी उपलब्ध बाजार में बिकने की तैयारी भी नहीं। गीत गायेंगे - पैसों के लिये नहीं, हंसोड़ों और चटखोरों के साथ नहीं - अपनी मर्जी के मंचों पर, आंदोलन के नुक्कड़ों पर,  मित्रों की महफिलों और गोष्ठियों में, कभी-कभार रेडियो और दूरदर्शन पर। 
इन 15 सालों में ‘74 से ‘79 का काल तो एक अलग प्रकार की सामाजिक उत्तेजना का काल था। इसका जिक्र हम ‘रोटी नाम सत है’ वाले अध्याय में कर चुके है। वह था अकेलेपन का एक सामूहिक प्रत्युत्तर। मुक्ति अकेले की नहीं, सामूहिक होती है। लेकिन, जैसा कि कवि सुभाष मुखोपाध्याय ने अपनी एक कविता में लिखा है - आमी की फोटो तोला छवि कि सब समय हांसते ही थाकबो...। (मैं क्या कोई फोटो वाली तस्वीर हूं कि हमेशा हंसता ही रहूंगा।... मेरे हाथ में क्या कोढ़ हुआ है कि हमेशा मुट्ठियां बंधी ही रहेगी)। ‘रोटी नाम सत है’ का युयुत्सु-भाव रचनाशीलता की अनंत संभावनाओं की खोज की पाटी पढ़े हरीश भादानी का स्थायी भाव कभी नहीं हो सकता था। इस पूरी यात्रा का मोटे तौर पर एक समग्र आख्यान, जिसे कोई उनके इन 15 सालों का एक सफरनामा भी कह सकता है, उन्होंने ‘नष्टोमोह’ में लिखा है। लेकिन, एक-एक समय विशेष की खास अनुभूतियां तो इन अलग-अलग गीतों और कविताओं में ही मिलती है। ‘खुले अलाव पकाई घाटी’ की रचनाओं को ध्यान से देखे तो इन पंद्रह सालों की यात्रा के अलग-अलग पड़ावों को, मील के हर पत्थर को आसानी से चिन्हित किया जा सकता है। 

इस संकलन का पहला गीत है - ड्योढ़ी। 
‘‘ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए/ कुनमुनते ताम्बे की सुइयां/खुभ-खुभ आंख उघाड़े/रात ठरी मटकी उलटा कर/ ठठरी देह पखारे/बिना नाप के सिये तकाजे/ सारा घर पहनाए/ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए।/ सांसों की पंखी झलवाए/रूठी हुई अंगीठी/मनवा पिघल झरे आटे में/पतली कर दे पीठी/ सिसकी सीटी भरे टिफिन में/ बैरागी-सी जाए/ ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए।/पहिये पांव उठाये सड़कें/ होड़ लगाती भागे/ठण्डे दो-मालों चढ़ जाने/रखे नसैनी आगे/ दोराहों-चौराहों मिलना/टकरा कर अलगाए/ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए।/सूरज रख जाए पिंजरे में/ जीवट के कारीगर/घड़ा-बुना सब बांध धूप में/ ले जाए बाजीगर/ तन के ठेले पर राशन की/ थकन उठा कर लाए/ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए।’’1

‘एक उजली नजर की सुईं’ का सर्वाधिक लोकप्रिय हरीश जी के आधुनिक गीत ‘मैंने नहीं कल नहीं कल ने बुलाया है’ के बिंब - सीटियों से सांस भर कर भागते बाजार मीलों दफ्तरों को रात के मुर्दे’ का ही एक और शब्दांकन। महानगर में मजदूरों के जीवन का ऐसा ही एक और बिंब है इस संकलन का दूसरा गीत - ‘कोलाहल के आंगन’।

‘‘दिन ढलते-ढलते/कोलाहल के आंगन/सन्नाटा/रख गई हवा/दिन ढलते-ढलते/दो छते कंगूरे पर/दूध का कटोरा था/धुंधवाती चिमनी में/उलटा गई हवा/दिन ढलते-ढलते/घर लौटे लोहे से बतियाते/ प्रश्नों के कारीगर/आतुरती ड्योढ़ी पर/सांकल जड़ गई हवा/दिन ढलते-ढलते/कुंदनिया दुनिया की/झीलती हकीकत की/बड़ी-बड़ी आंखों को/अंसुवा गई हवा/दिन ढलते-ढलते/हरफ सब रसोई में/भीड़ किए ताप रहे/क्षण के क्षण चूल्हे में/अगिया गई हवा/दिन ढलते-ढलते’’।2

देखिये इस संकलन के तीसरे गीत ‘सुईं’ का चित्र : ‘‘एक तलाश पहन कर भागे/किरणें छुई-मुई/बजती हुई सुईं/...बोले कोई उम्र अगर तो/तीबे नई सुईं/बजती हुई सुईं’’।3 

‘सांसें’ गीत का बिंब है : ‘‘शहरीले जंगल में सांसें/हलचल रचती जाए सांसें/...चेहरों पर ठर गई रात की/राख पोंछती जाएं/... पगडंडी पर पहिये कस कर/ सड़कों बिछती जाएं/...पानी आगुन आगुन पानी/तन-तन बहती जाएं/...खिड़की बैठे कम्प्यूटर पर/तलपट लिखती जाएं/...सुबह शाम खाली बांबी में/जीवट भरती जाएं/ शहरीले जंगल में सांसे/हलचल रचती जाएं’’।4 
इसीप्रकार - ‘मन सुगना’। ये सभी गीत ‘एक उजली नजर की सुईं’ के महानगरीय अनुभवों और बिंबों के बचे हुए गीत है। अर्थात ‘72-‘73 के पहले तक के। 
इसके बाद आता है हरीश जी का तपती छबीली घाटी में सिमटना और ‘रोटी नाम सत है’ वाला दौर। हरीश जी अकेले हुए, कई कारणों से । उनमें एक कारण उनकी प्रसिद्धी से पैदा होने वाला एकाकीपन भी था। हरीश भादानी कभी अकेला हो सकता है, यह बीकानेर के मित्रों की कल्पना के परे था। वे बीकानेर में आये हुए हैं तो किसी मजबूरीवश नहीं, उनका चयन है और जब मर्जी होगी, शहर-शहर यात्रा पर निकल पड़ेंगे - सामान्यत: लोगों का यही मानना था। 

लेकिन, लोगों की यह धारणा सचाई से परे थी। बीकानेर में सिमटना उनका चयन नहीं, बाध्यता थी। इसका अहसास उन्हें दुखी करता था और नाराज भी। यह मजबूरी उनको कमजोर नहीं कर सकती थी। मरुभूमि की रेत कोरी रेत नहीं है, इसे आंधी बन कर सब कुछ उखाड़-पछाड़ देना भी आता है। यह नगरों-महानगरों की दासी नही है। बीकानेर में ही जीने की जिद और साथ ही आपात काल का प्रतिरोध, हरीश भादानी में एक नया विद्रोही तेवर पैदा होता है। ऐसे निजी और सामाजिक, दोनों स्तरों पर विद्रोह की अनुभूतियों की एक प्रतिनिधि रचना है - ‘रेत है रेत’। 

इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी 

कुछ नहीं प्यास का समंदर है
जिंदगी पांव-पांव आएगी

धूप उफने है इस कलेजे पर
हाथ मत डाल ये जलाएगी

इसने निगले है कई लस्कर
ये कई और निगल जाएगी

न छलावे दिखा तू पानी के
जमीं आकाश तोड़ लाएगी

उठी गांवों से ये खम खाकर
एक आंधी सी शहर जाएगी।

आंख की किरकिरी नहीं है ये
झांक लो झील नजर आएगी

सुबह बीजी है लड़के मौसम से
सींच कर सांस दिन उगाएगी

कांच अब क्या हरीश मांजे है
रोशनी रेत में नहाएगी 5

इसी भाव-भूमि का दूसरा गीत है - ‘जंगल सुलगाए हैं’। 

‘‘हद तोड़ अंधेरे जब/ आंखों तक धंस आए/ जीने के इरादों ने जंगल सुलगाए हैं/...बंदूक ने बंद किया/ जब-जब भी जुबानों को/...जब राज चला केवल/कुछ खास घरानों का/कागज के इशारे से दरबार ढहाए हैं/...झुलसे हुए लोगों ने अंदाज दिखाए हैं।’’6

यह तब है जब भीतर-बाहर विद्रोह की लपटें जल रही थी। लेकिन लड़ाई के थमते ही, एक दूसरे प्रकार का व्यर्थता बोध, अकेले कर दिये या हो जाने का अहसास कवि को उन प्रश्नों से घेरने लगता है, जिनके जवाब की तलाश में ‘नष्टोमोह’ के इतने सारे पन्ने रंगे गये थे। ‘जंगलों को सुलगाने’ के लिये मुट्ठियां भले कभी तनी हो, लेकिन इस जंगल के बाहर जीवन का दूसरा आसरा भी कहां था? 

‘‘उम्र सारी इस बयावां में गुजारी यारो/सर्द गुमसुम ही रहा हर सांस पे तारी यारो‘‘
गौर करने लायक है इस गीत की ये पंक्तियां -‘‘कोई दुनिया न बने/रंगे-लहू के खयाल/गोया रेत ही पर तस्वीर उतारी यारो’’।7 

इसी संकलन का गीत है ‘अपना ही आकाश बुनूं मैं’, जिसका हम पिछले अध्याय में भी जिक्र कर आये हैं। ‘‘पोर-पोर/ फटती देखू मैं/केवल इतना सा उजियारा/ रहने दो मेरी आंखों में/सूरज सुर्ख बताने वालो/सूरजमुखी दिखाने वालो/...मेरी दिशा बांधने वालो/दूरी मुझे बताने वालो’’।

‘रंगे लहू’ और ‘सुर्ख सूरज’ - संकेत साफ थे। जिन विश्वासों के साथ वे जुड़ गये या उन्हें जोड़ दिया गया था उन पर अंदर ही अंदर गहरे सवालियां निशान लगने लगे थे। उनके इस अकेलेपन में बुद्धिवादी क्रांतिवीरों की भी एक भूमिका जरूर थी। सहज, दुखी मन कहता है - ‘क्या किया जाए’। वे कोई राजनीतिक व्यक्ति तो थे नहीं कि जिसके भटकने पर मनाही हुआ करती है। यहां तो सुबह-शाम मिजाज बदला करते हैं। 

‘‘सड़क फुटपाथ हो जाए/ गली की बांह मिल जाए/ सफर को क्या कहा जाए/ बता फिर क्या किया जाए/...आदमी चेहरे पहन आए/लहू का रंग उतर जाए/...समय व्याकरण समझाए/ हमें अ-आ नहीं आए’’।8

अब तक का पूरा सफर कभी पूरी तरह निरर्थक तो कभी अनंत संभावनाओं से भरा हुआ। 
‘‘चले कहां से/गये कहां तक/याद नहीं है/आ बैठा छत ले सारंगी/...सिया हुआ किरणों का चोला/पहन लिया था/या पहनाया/याद नहीं है/ ...रेत रची कब/हुई बिवाई/...मटियल स्याह धुओं के धोरे/सूरज लाया/या खुद पहुंचे/...रिस-रिस झर-झर उर-उर गुमसुम/झील होगया है घाटी में/हलचल सी बस्ती में केवल/ एक अकेलापन पाती में/दिया गया या/लिया शोर से/ याद नहीं है’’।9 

अवसाद जितना गहरा, उल्लास भी उतना ही प्रबल। दुख ही तो है सुख की परिमिति। शोर से मौन और मौन से संगीत। 

जब लिखते हैं - ‘टूटी गजल न गा पाएंगे’। ‘‘हवा हदें ही बांध गई है/ यह ठहराव न जी पाएंगे/...आसमान उलटा उतरा है/ अंधियारा न आंज पाएंगे/...चलने का/इतना सा माने/बांह-बांह/घाटी दर घाटी/ पांव-पांव/ दूरी दर दूरी/ काट गए काफिले रास्ता/यह ठहराव न जी पाएंगे/टूटी गजल न गा पाएंगे’’।10 

और, इसी के साथ, अपनी धरती से जुड़ाव, जीवन पर विश्वास और मरुभूमि के सौन्दर्य के उस अमर गीत का सृजन करते हैं जो हरीश जी के पाठकों, श्रोताओं के मन-मस्तिष्क में राजस्थान के आधुनिक राष्ट्रगीत से किसी भी मायने में कम सम्मानित स्थान पर नहीं है। ‘रेत में नहाया है मन’। 

धरती से प्रेम का नया गीत। गैब्रियल गार्सिया मारकेस की एक कहानी है - ‘सराला एरेन्दिरा’। इसमें एरेन्दिरा के हाथ का आईना कभी लाल हो जाता है तो कभी नीला, कभी हरी रोशनी से भर जाता है। एरेन्दिरा की दादी कहती है - ’’तुम्हे प्रेम हो गया है। प्रेम में पड़ने पर ऐसा ही होता है।’’ प्रेम में ही रेत कभी धुआंती है, झलमलाती है, पिघलती है, बुदबुदाती है - मरुभूमि समन्दर का किनारा, नदी के तट बन जाती है। प्रेम में पागल आदमी की काख में आंधियां दबी होती है, वह धूप की चप्पल, तांबे के कपड़े पहन घूमता है। इतना लीन जैसे आसन बिछा अपने अस्तित्व को खो बैठा हो।  

‘‘आंच नीचे से 
आग ऊपर से
वो धुआंए कभी
झलमलाती जगे
वो पिघलती रहे
बुदबुदाती बहे
इन तटों पर कभी
धार के बीच में
डूब-डूब तिर आया है मन
रेत में नहाया है मन

घास सपनों सी 
बेल अपनों सी
सांस के सूत में
सात स्वर गूंथ कर
भैरवी में कभी
साध के दारा
गूंगी घाटी में
सूने धोरों पर
एक आसन बिछाया है मन
रेत में नहाया है मन

आंधियां काख में
आसमां आंख में
धूप की पगरखी
तांबई अंगरखी
होठ आखर रचे
शोर जैसे मचे
देख हिरनी लजी
साथ चलने सजी
इस दूर तक निभाया है मन
रेत में नहाया है मन’’ ।11

राजस्थान में धरती की वंदना का एक लोकप्रिय गीत है - धरती धोरां री। कोलकातावासी कन्हैयालाल सेठिया का लिखा गीत। कण कण को चमकाता सूरज, काले बादलों का आना-जाना, बारिस का न होना और बिजली का चमक कर रह जाना - ‘दोनों हाथों लुटाने वाली कुदरत’ की ऐसी लीला - कवि इसी धरती के प्रेम में दीवाना है। इसके ‘फल-फूल’, चित्तौड़ का गढ़, उसके सूर-वीर, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर, अजमेर, अलवर, बूंदी के राजाओं-महाराजाओं के गौरव और उनकी भड़कीली शान की कभी न भूलने वाली कथाओं और जयपुर की पटरानियों, मूमळ की सुंदरता वाली धरती की धूल को यह गौरव-गायक सिर पर लगाता है।12 

‘रेत में नहाया है मन’ इस गौरवगान के विपरीत धरती से प्रेम का एक दूसरा छोर है - ‘सौन्दर्य के नये मानदंडों’ की रचना का गीत। राजाओं और सूर-वीरों, तथा महलों की सुंदरियों के बजाय ऊपर से बरसती आग और नीचे सुलगती आंच पर धूप की पगरखी पहने अपने शरीर की चमड़ी को जला कर तांबई अंगरखी वाले रेत से बतियाते आम मेहनतकश आदमी के जीवन के सौन्दर्य का गीत। 

‘‘मौसम ने रचते रहने की/ऐसी हमें पढ़ाई पाटी/रखी मिली पथरीले आंगन/ माटी भरी तगारी/ एक सिरे से एक छोर तक/पोरे लीक बनाई घाटी/...आस-पास के गीले बूझे/बीचोबीच बिछाये/ सूखी हुई अरणियां उपले/ जंगल से चुग लाए/ सांसों के चकमक रगड़ा कर/खुले अलाव पकाई घाटी/मौसम ने ...’’13

यह है ‘खुले अलाव पकाई घाटी’ का रहस्य। रचना में अपनी धरती के इतिहास, भूगोल के प्रवेश का नया पथ। रचाव की नयी जिद का एक और सबब। ‘अगम, दुर्गम, जल और घास की कमी और धूप और वायु की प्रबलता वाले खेजड़ा, कैर, बिल्व, आक, पीलु और बैर की तरह के मरु-उत्पादों के जांगल देश’ के सच से साक्षात्कार की नयी तैयारी। रेत के विशाल समंदर, मुडि़या कंकड़ों के पहाड़, उसके चारो ओर यदाकदा होने वाली मूसलाधार बारिस के जल-प्रवाह से बनी घाटियों, खंदकों के जाल के भूगोल की ओर प्रस्थान।  

भादानी जी बीकानेर में है तो शहर की सारी साहित्यिक गोष्ठियों की अध्यक्षता उनके नाम होगयी। सामाजिक स्वीकृति का भी एक नया दौर शुरू हुआ। आंतरिक आपातकाल के बीच ही, सन् 1976 में राजस्थान साहित्य अकादमी (संगम) उदयपुर ने सम्मान पत्र दिया, तो उसी साल डूंगरगढ़ की राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति ने मरुधरा श्री के सम्मान से विभूषित किया।14 मरुभूमि में धकेल दिये जाने के विषण्णता बोध का नया प्रतिकार। 



1.हरीश भादानी, खुले अलाव पकाई घाटी, धरती प्रकाशन, 1981, पृ : 9-10
2.वही, पृ : 11-12
3.वही, पृ : 13
4.वही, पृ : 15
5.वही, पृ : 21-22
6.वही, पृ : 23-24
7.वही, पृ : 25
8.वही, पृ : 27-28
9.वही, पृ : 37-38
10.वही, पृ : 67-68
11.वही, पृ : 39-40
12.कन्हैया लाल सेठिया रचित गीत - धरती धोरां री !
आ तो सुरगा नै सरमावै, ईं पर देव रमण नै आवे/ ईं रो जस नर नारी गावै, धरती धोरां री!/ सूरज कण कण नै चमकावै, चन्दो इमरत रस बरसावै,/तारा निछरावल कर ज्यावै, धरती धोरां री!/काळा बादलिया हरषावै, बिरखा घूघरिया चमकावै,/बिजली डरती ओला खावै, धरती धोरां री!/लुळ लुळ बाजरिया लैहरावै, मक्की झालो देर बुलावै,/कुदरत दोन्यूं हाथ लुटावै, धरती धोरां री!/पंछी मधरा मधरा बोलै, मिसरी मीठे सुर स्यूं घोलै,/झीणूं बादरियो पपोळै, धरती धोरां री!/नारा नागौरी हिद ताता, मदुआ ऊंट अणूंता खाथा!/ ईं रे घोड़ा री बाता? धरती धोरां री!/ईं रा फल फुलड़ा मन भावण,/ ईं रै धीणो आंगणा आंगण,/...ईं रो चित्तौड़ो गढ़ लूंठो, ओ तो रण वीरां रो खूंटो,/ ईं रे जोधाणूं नौ कूंटो.../ऊभो जयसलमेरे सिंवाणै/..बीकाणूझ गरबीलो/...अलवर जबर हठीलो/...अजयमेर भड़कीलो/..जैपर नगर्यां में पटराणी, /कोटा बूंदी कद अणजाणी?/...ईं ने माथा भेंट चढ़ावां भाया कोड़ा री/ धरती धोरां री!’’
13.वही, पृ : 43-44

14.हरीश भादानी को मिले पुरस्कारों और सम्मानों की एक अधूरी सूची 
1. पुरस्कार का नाम                         वर्ष दिनांक                     संस्था का नाम        
2. मरूधरा श्री                       11 जनवरी 1976           राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति, डूंगरगढ  
3. सम्मान पत्र 27 फरवरी 1976 राजस्थान साहित्य अकादमी(संगम) उदयपुर
4. सुधीन्द्र पुरस्कार (काव्य विधा)(‘सन्नाटे के शिलाखंड’ पर) 27 फरवरी 1984 राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
5. मीरां (‘एक अकेला सूरज खेले’ पर) 27 फरवरी 1984  राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
6. सम्मान पत्र                       10 फरवरी 1987            रांगडी चौक निवासियों द्वारा, बीकानेर 
7. Appreciation Award             30 सितम्बर 1987           प्रियदर्शिनी अकादमी,मुम्बई । 
8. प्रशस्ति ताम्र पत्र                     30 मार्च 1988              राजस्थान दिवस समारोह समिति
9. परिवार पुरस्कार                         1990                     परिवार संस्था,मुम्बई । 
10. विक्रमादित्य पुरस्कार                  1990                     बीकानेर नागरिक व प्रबुद्धजन   
11. बिहारी पुरस्कार                          1993                     के, के बिडला फाउंडेशन 
12. प्रशस्ति पत्र                           30 मार्च 1994              राजस्थान संस्था संघ 
13. सम्मान पत्र                              1995                     राजस्थान पुष्टिकर यूथ विंग, बीकानेर,                पुष्करणा दिवस समारोह के अवसर पर
14. प्रतीक चिन्ह                        26 जुलाई 1997            रेल सांस्कृतिक मंच उ रेलवे, बीकानेर 
15. राहुल पुरस्कार                          1998                      पश्चिमबंग हिंदी अकादमी 
16. स्मृति चिन्ह                            25 अप्रेल 2002            राजस्थान साहित्य अकादमी,उदयपुर । 
17. समाज रत्न अलंकरण               9 मार्च  2003              प्रेरणा प्रतिष्ठान,आचार्यो का चौक,बीकानेर 
18. राजस्थानी भाषा सेवा सम्मान      23 सितम्बर 2003           राजस्थानी भाषा,साहित्य एवं संस्कृति                   अकादमी, बीकानेर 
19. प्रतीक चिन्ह                           26 फरवरी 2004            पं गंगादास कौशिक स्मृति, स्वतंत्रता संग्राम    साहित्य संग्रहालय समिति,बीकानेर     
20. अभिनंदन पत्र                          13 फरवरी 2005            श्री जुबिली नागरी भंडार ट्रस्ट, बीकानेर            
21. मातुश्री कमला गोयनका राजस्थानी साहित्य पुरस्कार   2007            कमला गोइन्का फॉउडेशन, मुम्बई 
22. बीकाणो रो गौरव                       2008              राजस्थान प्रदेश राजीव गॉधी यूथ फैडरेशन,    बीकानेर




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