मंगलवार, 7 जुलाई 2015

मनोविज्ञान की यह कैसी समझ !


अरुण माहेश्वरी

आज (7 जुलाई 2015) के जनसत्ता में अपूर्वानंद का लेख छपा है - ‘हिंदू राष्ट्र गांव-दर-गांव।

आरएसएस हिंदू सांप्रदायिकता का प्रचारक है, यह अब कोई सात पर्दो में छिपा रहस्य नहीं है। केंद्र में भाजपा की सत्ता है तो इससे उनके सांप्रदायिक एजेंडा को बल मिल रहा है, इस बात पर भी किसी तरह की शंका नहीं की जा सकती। ऐसी अति-अनुकूल परिस्थितियों में कोई भी अपने अंदर-बाहर के सब कुछ को बिल्कुल नग्न रूप में प्रकट कर देता है, यह भी सही है।

लेकिन इतना सब होने मात्र से, किसी के भी अपना सब कुछ प्रकट कर देने भर से ही दूसरों के मन में उसके प्रति स्वीकार्यता बढ़ जाती है, इसका कोई कारण नहीं है। यह कहा जाता है कि एक झूठ को सौ बार दोहराने से वह सच मान लिया जाने लगता है। लेकिन यह आदमी के चेतन पक्ष का पहलू है, शुद्ध धोखा-धड़ी में फंसने का। सच सामने आने से वही व्यक्ति खुद को बुरी तरह ठगा गया महसूस करता है। झूठ उसके अवचेतन में बसा नहीं रह जाता। इसीलिये किसी विचार या प्रचार से उत्तेजित होकर कोई काम कर गुजरना ही आदमी के मन का पूरा परिचायक नहीं होता।

आदमी का मन उसके चेतन और अवचेतन दोनों को मिला कर बनता है। जिसे आदमी का अवचेतन कहते है, उसके मन का एक अंधेरा, सुप्त कोना, अपूर्वानंद ने अपने लेख में उसके गठन के विषय को उठाया है। हमारा कहना है कि अवचेतन भी यदि चेतन की तरह ही किसी के द्वारा निदेशित हो सके, उसे पूर्व-निर्धारित ढांचों में ढाला जा सके तो फिर चेतन और अवचेतन के बीच फर्क ही क्या रह जायेगा। अपूर्वानंद अपने लेख का अंत इस पंक्ति से करते हैं कि ‘‘हिंदू मन से शायद ही किसी को ऐतराज हो लेकिन भारतीय समाज के लिये हिंदुत्ववादी अवचेतन के गठन के आशय पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।’’

‘अवचेतन के गठन के आशय’ ! गौर कीजिये। वे सुचिंतित ढंग से अवचेतन के गठन की प्रक्रिया की बात कह रहे हैं। आदमी का परिवेश उसकी नैसर्गिक जरूरतों से जुड़ कर ही उसके अवचेतन में कोई जगह बनाता है। हर प्रकट चीज अवचेतन में जगह नहीं बनाती। अवचेतन में प्रवेश के लिये उसे उसकी शारिरिक-मानसिक जरूरतों का स्वाभाविक हिस्सा बनना पड़ता है। भोजन और विष्ठा में यही फर्क है। दोनो प्रकट हैं, लेकिन दोनों के लिये आदमी में समान चाहत नहीं होती। एक को ग्रहण करता है और दूसरे को अपने से दूर रखता है। विष्ठा का भक्षण करने वाला या तो कोई विकृत मस्तिष्क का व्यक्ति होगा या फिर कोई चालाक, स्वार्थी तांत्रिक।

भारत की सचाई यह है कि आरएसएस का प्रकट रूप भारतीय मन के लिये ग्रहण-योग्य नहीं है। सन् 2002 के दंगे उसकी विष्ठा है और कोई लाख कोशिश कर ले, भारतीय मन में उसे ग्रहण करने की चाहत कभी पैदा नहीं कर सकता। हाल ही में दुलात ने अपनी किताब में वाजपेयी की 2004 की जिस बात का उल्लेख किया है कि हमने 2002 में भूल की थी, वह ऐसे ही नहीं है। मोदी ने चुनाव जीता 2002 को भुला कर और कांग्रेस के प्रति सामान्य असंतोष को भुना कर, न कि सांप्रदायिक विष्ठा के प्रति किसी प्रकार की प्रीति पैदा करके। कांग्रेस नेतृत्व ने 1984 के सिख-विरोधी दंगों के लिये माफी अनायास ही नहीं मांगी थी।

ऐसे में कोई भी बुद्धिजीवी यदि आज भारतीय मन के बदलने की बात करता है तो उसकी मनोविज्ञान की समझ और इतिहास बोध पर भी शंका होने लगती है।

भारत में इसके पहले भी भाजपा नीत एनडीए शासन का एक दौर बीत चुका है। तब भी आरएसएस कम ताकतवर नहीं था। लेकिन जो आरएसएस राममंदिर आंदोलन के समय अपनी रहस्यमयता के चलते जितने लोगों को प्रेरित कर पाया, उसी ने एनडीए के दौर में अपने प्रकट भ्रष्ट रूप से उतने ही लोगों को विकर्षित भी किया। पेट्रोल पंप आदि की तरह के उस दौर के कई घोटालों में आरएसएस की सर्वोच्च कमेटियों के लोग शामिल पाये गये। उस एनडीए सरकार के पतन के बाद देश भर में आरएसएस की शाखाओं की संख्या में भारी गिरावट आगई थी। कई सालों से मध्यप्रदेश में संघ-संचालित सरकार के होने का परिणाम यह है कि अभी भारत के अपने प्रकार के सबसे जघन्य अपराधमूलक घोटाले व्यापमं में उस प्रदेश के आरएसएस के नेताओं के शामिल होने की बात आम है।

अपूर्वानंद जब आरएसएस के लोगों की बढ़ी हुई हिंसक गतिविधियों के हवाले से यह कहते हैं कि यह भारतीय मन के किसी अवचेतन का गठन का मार्ग है तो सचमुच हंसी आती है। यह आरएसएस के रहस्य के प्रकट होने का समय है और प्रकट होने का एक मतलब होता है - नंगा होना ! आज जो साधू-साध्वियां गाहे बगाहे हिंसक और अनर्गल बातें करते हैं, उनकी शर्म को छिपाने में इन सबके पसीने छूट रहे हैं।

जहां तक भारतीय सामाजिक-मन का सवाल है, इसकी जरूरतें विविधताओं के ठोस यथार्थ को मान कर चलने की जरूरतें हैंं। इसी से उसका अवचेतन बना है और आगे भी बनेगा। यह उपनिवेशवादी यूरोप का एकांगी ‘राष्ट्रवादी’ मन नहीं है कि जिसमें साम्राज्य-विस्तार की ललक पैदा करके हिटलर-मुसोलिनी तैयार किये जा सके ! यूरोप के ऐसे ‘सामाजिक मन’ को भी अपने ठगे जाने का अब भारी पछतावा है। उन्होंने अपने ‘राष्ट्रवाद’ की दुर्गंधपूर्ण विष्ठा को बड़ी भारी कीमत देकर पहचाना है। उनके शासक-वर्गों की जरूरतों से जुड़ा युद्धोन्मादी मन और आम लोगों की जरूरतों से जुड़े युद्ध-विरोधी मन में अब क्रमश: बड़ा फर्क आ चुका है। इसके अलावा अब वह समय भी नहीं रहा है कि पहले की तरह के उपनिवेश कायम किये जा सके। किसी चीज के हासिल होने की असंभवता का बोध ही धीरे-धीरे अवचेतन से भी उसकी कामना को मिटाता है, लेकिन लंबे़, काफी लंबे अर्से बाद क्योंकि इतिहास की बही में उसकी एक लकीर जो पड़ी हुई है। लेकिन भारतीय इतिहास कम से कम ऐसे विस्तारवादी ‘राष्ट्रवाद’ से पूरी तरह मुक्त है जिसके बूते आज के आम तौर पर ‘राष्ट्रवाद’ के पतन के युग में भारतीय मन के अवचेतन में उसके लिये कोई जगह बनाई जा सके !

इसीलिये अपूर्वानंद जो भारतीय समाज के नये अवचेतन के ‘सचेत गठन’ का हौवा खड़ा कर रहे हैं, वह शुद्ध रूप में उनकी अपनी आत्मगत कमजोरी है। इसका न जीवन के ठोस यथार्थ से और न उस यथार्थ से जुड़े भारतीय समाज की जरूरतों से कोई संबंध है। यह उनकी अपनी एक सन्निपात की स्थिति है, जिसमें वे एक अर्से से फंसे हुए हैं। ‘आलोचना’ पत्रिका के इधर के भारतीय जनतंत्र पर केंद्रित दोनों अंकों के संपादकीयों में भी इसके लक्षणों को देखा जा सकता है। किसी के एक बार सत्ता में आने मात्र से वह मनुष्यों के मन के रथ का सारथी नहीं बन जाता है। ऐसा सोच उस मार्क्सवादी कथन की एक कच्ची समझ है कि किसी भी युग की विचारधारा उसके शासक वर्गों की विचारधारा होती है।


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