सोमवार, 7 मार्च 2016

हिटलर से उम्मीद बांधे कलाकारों की ट्रेजेडी की कहानी







-अरुण माहेश्वरी

यह टिप्पणी कला और संस्कृति के क्षेत्र के उन लोगों के लिये है, जिनके मन में अभी भी मोदी जी और उनकी सरकार के बारे में अनेक भ्रम बने हुए हैं। अनुपम खेर जैसे लोगों के लिये भी है जो इस शासन में अपने लिये कुछ हासिल करने की फिराक में मोदी के नाम-जाप के अलावा और न जाने कैसी-कैसी विदूषकों की तरह की हरकतें करते घूम रहे हैं।

दुनिया के इतिहास में हिटलर के नाजी शासन का अपना एक ऐसा विरल अध्याय है, जिसमें हमारे इस मोदी-काल में बिल्कुल प्रारंभिक स्तर पर दिखाई दे रही अनेक  प्रवृत्तियों की प्रौढ़, वृद्ध और मृत्यु तक जाने वाली कहानियों को आसानी से पढ़ा जा सकता है। खास तौर पर, हिटलर के समय में वहां के सांस्कृतिक जगत की कैसी सूरत थी, हम यहां उसी इतिहास के कुछ पन्नों को पेश कर रहे है। इनसे अनुपम खेर जैसे हंसोड़ों की ही नहीं, इस शासन पर अब भी आशाभरी निगाहे टिका कर चुप बैठे तमाम ‘गंभीर’ बौद्धिकों की ट्रैजेडी को भी देखा जा सकता है।

अमेरिका के सदर्न कैलिफोर्निया के क्लेयरमोंट मैकेना कालेज में यूरोपीय इतिहास के एक प्रोफेसर है - जोनाथन पेट्रोपौलोस। अभी दो साल पहले ही, वर्षों के शोध के उपरांत उनकी एक बहुत महत्वपूर्ण किताब आई है - Artists Under Hitler : Collaboration and Survival in Nazi Germany।

हिटलर के जर्मनी के इतिहास के उन पन्नों को तो हम सभी जानते हैं कि कैसे उस काल में बहुत बड़ी संख्या में अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के लेखक और कलाकार जर्मनी छोड़ कर दूसरे देशों में शरण लेने के लिये मजबूर हुए थे। एक देश से इतनी बड़ी संख्या में प्रतिभाओं के पलायन का इसके पहले दूसरा कोई उदाहरण नहीं मिलता था। हिटलर 30 जनवरी 1933 के दिन सत्ता पर आया और इसके बाद से ही अभिव्यक्ति की आजादी पर दबाव का एक सिलसिला शुरू हो गया था। 1939 तक तो हालत यह होगई कि लगभग 2500 जाने-माने लेखक जर्मनी छोड़ कर जा चुके थे। इसी बीच, 10 मई 1933 के दिन जर्मनी में बाकायदा अनेक महत्वपूर्ण लेखकों की पुस्तकों की होली जलायी गई थी।  तब गोयेबल्स ने कहा था कि ‘पुस्तकों से निकल रही इन लपटों में न सिर्फ पुराने युग का अंत हो रहा है, बल्कि इनके प्रकाश से एक नया युग प्रकाशित भी हो रहा है।‘

हिटलर के काल के जर्मनी के इन तथ्यों से हम परिचित है। लेकिन पेट्रोपौलोस की किताब का महत्व इस बात में है कि उन्होंने बहुत गहराई में जाकर जर्मनी के तत्कालीन (1933-1943) कला जगत के अपने एक खास इतिहास की खोज की है।

हिटलर जर्मनी में रातो-रात, एक सजे-सजाये पुतले की तरह अवतरित नहीं हुआ था। सत्ता पर आने के बाद भी हिटलर के हिटलर बनने की अपनी एक पूरी प्रक्रिया रही है जिसके तमाम राजनीतिक पक्षों पर थर्ड राइख के इतिहासकारों ने काफी विस्तार से लिखा है। हिटलर ने अपना चरम दमनकारी, सर्वाधिकारवादी और मानवद्रोही विध्वंसक रूप धीरे-धीरे ग्रहण किया था। 1933 के वक्त के जर्मनी और 1943 के वक्त के जर्मनी में जमीन आसमान का फर्क था। 1943 तक आते-आते जर्मनी का समाज एक सर्वाधिकारवादी अंधेरे से भरे समाज का रूप ले चुका था, यहूदियों की हत्याएं आम बात हो गई थी, विरोध की हर छोटी से छोटी आवाज को क्रूरतम हिंसा के साथ कुचला जाने लगा था और पूरे राष्ट्र को चरम युद्धोन्माद के जरिये एक सर्वव्यापी युद्ध में ढकेल दिया गया था।

पेट्रोपौलोस की किताब गहराई से बताती है कि हिटलर के जर्मनी में धीरे-धीरे बदलते हुए समय और उसमें जर्मनी के तत्कालीन आधुनिकतावादी कलाकारों का उस शासन के प्रति विचार और व्यवहार क्या था। उन्होंने जर्मनी के आधुनिकतावादी कला आंदोलन की दस बड़ी हस्तियों - वाइटर ग्रोपियस, पॉल हिंदेमिथ, गौटफ्रेड बेन, अन्स्र्ट बाइलाह, एमिल नोल्द, रिसर्ड स्ट्रास, गुस्ताफ ग्रुंडगेन्स, लेनी रिफेनस्थाल, आर्नो ब्रेकर, और अल्बर्त स्पीयर - के जीवन और विचारों को इसमें अपने गहन अध्ययन का विषय बनाया है।

अभिव्यंजनावादी, उत्तर-अभिव्यंजनावादी, क्यूबिज्म, नव-वस्तुवादी, प्रभाववादी आदि नाना आधुनिकतावादी धाराओं के कलाकारों का इस नये शासन के प्रति क्या दृष्टिकोण था, वे उसके बारे में कैसे-कैसे भ्रम पाले हुए थे उसका इसमें एक बहुत ही जीवंत चित्र मिलता है। अपनी अहम्मन्यता में डूबी हुई कला जगत की ये बड़ी-बड़ी हस्तियां अपने इर्द-गिर्द जो घट रहा है उसे देखने से इंकार कर रही थी। सोचती रहती थी कि परिस्थिति और नहीं बिगड़ेगी, सुधर जायेगी तथा नाजी शासन क्रमश: एक ‘सभ्य और मानवीय’ शासन का रूप ले लेगा। इसके साथ ही ये तमाम महोदय यह सपना भी देख रहे थे कि हिटलर के थर्ड राइख के पहले के वाइमर रिपब्लिक के समय वे जिन तमाम विशेषाधिकारों का भोग करते थे, वे सारे विशेषाधिकार उन्हें फिर से पहले की तरह ही हासिल हो जायेंगे।

लेकिन हाय ! इन सबके जीवन की ट्रेजेडी यह रही कि नाजियों के साथ निबाह करने की अपनी आंतरिक इच्छाओं के बावजूद ये तमाम लोग धीरे-धीरे अपनी जिंदगी के ऐसे कठिन मुकाम पर पहुंच गये कि युद्ध के काल तक आते-आते यहूदियों और कम्युनिस्टों के साथ ही इनकी जान पर भी बन आई,  और अंत में वे अपना सब कुछ छोड़ कर जर्मनी से पलायन करने के लिये मजबूर हुए। ये सभी जर्मनी के अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के आर्ट स्कूल, ‘बाउहाउस’ से जुड़े हुए थे। बाउहाउस के लोगों की 1919 से 1933 के काल में कला के सभी क्षेत्रों पर, पेंटिंग से लेकर स्थापत्य तक  ऐसी धाक थी कि वे इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि उनकी उपेक्षा करके कला और स्थापत्य का कोई भी आधुनिक आंदोलन एक कदम भी आगे जा सकता है!


बहरहाल, पाठकों की सुविधा के लिये बता दें, कि नाजी पार्टी हिटलर के शासन (1933-1945) को थर्ड राइख का शासन कहती थी। मध्ययुग के पवित्र रोमन साम्राज्य को फर्ट्  राइख और 1871 से 1918 के शासन को सेकंड राइख। लेकिन 1919 से 1933 तक के जर्मन साम्राज्य का एक और नाम था - वाइमर रिपब्लिक। वाइमर शहर में ही 1919 में जर्मनी की पहली संविधान सभा का गठन किया गया था।

जोनाथन पेट्रोपौलस ने बताया है कि 1933 के बाद अगस्त 1934 तक तो हिटलर की राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग से हमेशा अनबन लगी रहती थी। इससे भी बहुतों को यह उम्मीद बंधी थी कि हिटलर पर राष्ट्रपति की लगाम कसी रहेगी और वह अपनी मनमानी नहीं कर सकेगा। सेना की ओर से भी हिटलर के प्रति विरोध के समाचार आ रहे थे। इसके अलावा जर्मन समाज की सांस्कृतिक विविधता भी एक ऐसी सचाई थी जिसकी वजह से माना जा रहा था कि हिटलरी समरसता (Gleichschaltung)  का रोडरोलर वहां नहीं चल पायेगा।

पेट्रोपौलोस ने लिखा है कि उस काल के अधिकांश कलाकार किसी भी प्रकार के जन-संहार या नस्ली युद्ध के विरुद्ध थे, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे यहूदियों और कम्युनिस्टों के विरोधी नहीं थे, या उनमें अंधराष्ट्रवाद नहीं था। उनमें इस प्रकार की भावनाएं भी काफी थी। इसी वजह से वे हिटलर के थर्ड राइख में अपना भविष्य देख रहे थे। उन्होंने जब उस शासन में अपनी जगह बनाने की कोशिश की, तब किसी के पास भी जर्मनी के भविष्य की, युद्ध की कोई स्पष्ट धारणा नहीं थी। वे सोच भी नहीं सकते थे कि युद्ध में उतरने के साथ ही जर्मनी की क्या सूरत बनने वाली है!

इन्हीं कारणों से तमाम आधुनिकतावादी कलाकारों में शुरू में थर्ड राइख से कोई परहेज नहीं था। पेट्रोपौलोस ने उदाहरण दे देकर बताया है कि किस प्रकार यहूदी शिक्षा शास्त्री कुर्त हन को भी यह विश्वास था कि शासन की जिम्मेदारियां हिटलर और नाजियों को सुधार देगी। अंत में हन जब जर्मनी से भाग कर इंगलैंड में शरण लेने के लिये मजबूर हुए, उसके पहले तक जर्मनी के लेक कांस्टेंस के सालेम में वे कुलीन जनों के लिये एक विद्यालय के निर्माण के काम की देख-रेख कर रहे थे।

इतिहासकार गोलो मॉन ने कुर्त हन के बारे में ही कहा था कि कुर्त हन का हिटलर ‘‘असली हिटलर नहीं था, बल्कि हन की कल्पना का हिटलर था जो उसके राजनीतिक खयालों में वास करता था।’’

पेट्रोपौलोस ने इन सभी कलाकारों के उदाहरण दे देकर बताया है कि ये सब अपने अहम में इतने मुब्तिला थे कि अपने समय के प्रति अंधे हो चुके थे। कुछ तो अपनी भारी अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के कारण खुद को आधुनिक सोच का भगवान मान बैठे थे। 1938 में न्यूयार्क में बाउहाउस की एक शानदार रेट्रोस्पेक्टिव प्रदर्शनी हुई थी जिसमें बाउहाउस के संस्थापक ग्रोपियस तो सितारे की तरह चमक रहे थे। ये सभी सांस्कृतिक व्यक्तित्व मानते थे कि उनके किये कामों का इतना अधिक महत्व है कि उनकी अवहेलना करके कोई कला प्रदर्शनी हो ही नहीं सकती है। वे अपने को एक नई धारा का प्रवत्र्तक मानते थे और उन्हें विश्वास था कि कोई भी शासन में क्यों न आ जाएं, उनकी अनदेखी नहीं कर सकता है। सन् ‘20 के जमाने में तो चारों दिशाओं में उनके घोड़े दौड़ा करते थे। प्रोफेसरशिप, डायरेक्टरशिप, वाणिज्यिक सफलताएं, नाम-दाम - सब उनके कदम चूमा करते थे। मजे की बात यह है कि उसी महान ‘बाउहाउस’ की कथित प्रतिष्ठा की जरा भी परवाह किये बिना नाजी सरकार ने 1933 में उसे रातो-रात बंद कर दिया। जो महोदय उस समय उसके निदेशक थे, उन्हें बाद में भाग कर अमेरिका में शरण लेनी पड़ीं।

कहना न होगा, ठीक उसी तर्ज पर मोदी सरकार भारत में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता पर हमले कर रही है और जेएनयू को तो बंद ही कर देने की फिराक में है।


बहरहाल, पेट्रोपौलोस कहते हैं कि यह सच है कि नाजी जर्मनी के समय की सांस्कृतिक जिंदगी बेहद जटिल थी। फासीवाद आधुनिकतावाद को पराजित नहीं कर पाया था और हिटलर के पूरे बारह साल के शासन में भी वह एक प्रकार का अनसुलझा मुद्दा ही रह गया था। लेकिन उनका सवाल है कि अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के उन सांस्कृतिक व्यक्तित्वों का क्या किया जाएं, जिन्होंने नाजी शासन में अपनी जगह बनाने की हर संभव कोशिश की थी !

चार सौ पृष्ठों की इस पुस्तक के उपसंहार में पेट्रोपौलोस ने जर्मनी के पूर्व चांसलर हेल्मुट कोह्ल के पसंदीदा लेखक अन्स्र्ट जुंगर का उल्लेख किया है जो ‘फासीवादी सूरज के बहुत निकट तक उड़ कर चला गया था’। उसके बारे में इतिहासकार हांस-उलरिस व्हेला की राय थी कि ‘‘वह आधुनिक जर्मन सांस्कृतिक इतिहास का सबसे बड़ा अपराधी था।’’ पेट्रोपौलोस ने सवाल उठाया कि वह ‘अपराधी’ कैसे हुआ ? और इसके जवाब में लिखा कि उसने युद्ध की महिमा का बखान किया था, उसका सौन्दर्यीकरण किया था, जिसने एक पूरी पीढ़ी के अवबोध को प्रभावित किया।


गौर करने की बात यह है कि हमारे देश का भी 1975 के आंतरिक आपातकाल के वक्त का तानाशाही निजाम का एक छोटा सा अनुभव रहा है। उस समय इंदिरा गांधी की एक व्यक्ति की तानाशाही का रूझान उग्र रूप में सामने आया था और नाना कारणों से वामपंथी राजनीति विभाजित थी। इंदिरा गांधी की तानाशाही की अपनी खास पृष्ठभूमि थी। ऐसा नहीं था कि वे राजनीति की दुनिया की ऐसी किसी धारा के बीच से आई थी, जिसका सर्वाधिकारवाद की ओर बढ़ना ही उसकी नियति रही हो। वे उस राष्ट्रीय कांग्रेस दल की राजनीति के अंदर से पैदा हुई थी, जिसके बारे में कहा जा सकता है कि देश में तब तक संसदीय जनतंत्र का जो भी ढांचा खड़ा हुआ था, उसका श्रेय बहुलांश में उसी दल को जाता था। एक ऐसे दल के अंदर, यदा-कदा पैदा होने वाली तानाशाही प्रवृत्तियों के बारे में नाना प्रकार के भ्रमों का होना एक हद तक स्वीकारा जा सकता है।

लेकिन आज के भारत की स्थिति वह नहीं है। आज संसदीय जनतंत्र की प्रक्रिया के अंदर से ही हमारे देश में एक ऐसे संगठन का शासन कायम हो गया है जो निर्विवाद तौर पर हिटलर और मुसोलिनी की परंपरा से जुड़ा हुआ संगठन है। जिसकी राजनीति की मुख्य धुरी ही समाज का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करके एक सर्वाधिकारवादी शासन को कायम करना रहा है। और इस सरकार के मुखिया के तौर पर जो व्यक्ति आया है उसका गुजरात का इतिहास इस बात की और भी ठोस रूप में पुष्टि करता है। हिटलर ने अपनी पुस्तक ‘मीन कैम्फ’ में जैसे पहले ही अपने तमाम लक्ष्यों को साफ कर दिया था, उसी प्रकार आरएसएस के उद्देश्य भी दुनिया से छिपे हुए नहीं हैं।

ऐसे समय में, हिटलर के जमाने के जर्मनी की सांस्कृतिक दुनिया की यह छोटी सी तस्वीर निश्चित तौर पर बहुत अर्थपूर्ण है। इसमें कई लोग अपनी सूरत देख सकते हैं ।


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