अरुण माहेश्वरी
Sushila Puri ji, आपने मुझे आशीष मिश्रा के 'मठों के ढहने' वाली टिप्पणी मार्क की हैं। आप जानती ही हैं कि मैं इस चाय की प्याली में उठे तूफ़ान पर कुछ कहना नहीं चाहता था । इसकी अकेली वजह यही है कि इस विषय में निश्चयात्मक तौर पर कुछ कहने में मैं अपने को असमर्थ पाता हूँ । इस प्रसंग की पृष्ठभूमि में मैंने रचना में विद्रोह के बारे में अपने प्रकार की एक सामान्य सी टिप्पणी की थी । ठोस रूप में कुछ न कह पाने की वजह से ही वह मेरे लिये ही संतोषप्रद नहीं थी । लेकिन इसकी मूल वजह यही थी कि अब तक भी मैं इस पूरे विषय के महत्व को समझ नहीं पाया हूँ । एक नई कवियत्री को पुरस्कार मिला, जैसा कि हिंदी में असंख्य लोगों को मिलता ही रहता है । इस पुरस्कार का कुछ भी नाम या इतिहास क्यों न हो, साहित्य के वृहद परिप्रेक्ष्य में खुद में इसका मुझे कोई बहुत ज़्यादा अर्थ नहीं दिखाई दिया कि इस पर उठी बहस में हस्तक्षेप की ज़रूरत महसूस करूँ ।
फिर भी, नितांत अप्रासंगिक ही क्यों न माना जाए, इतना जरूर कहूँगा कि स्त्री-पुरुष से जुड़े विषयों के सिर्फ समाज-शास्त्रीय पहलू ही नहीं हुआ करते हैं, जिन पर अभी सबसे अधिक चर्चा हो रही हैं । स्त्री मनोविज्ञान तो फ्रायड के अध्ययन का एक बहुत महत्वपूर्ण विषय रहा है । यह बात मैं इसलिये कहना चाहता हूँ क्योंकि हाल ही में मैंने और भी कुछ कवयित्रियों की कविताओं को डिजिटल माध्यम से ही पढ़ा है । शुभम श्री तो अभी कविता की दुनिया में पदार्पण ही कर रही है । मैंने 'समालोचन वेब मैगज़ीन ' ब्लाग पर लवली गोस्वामी और मोनिका कुमार की कुछेक कविताओं को भी पढ़ा है । वहीं पर लवली गोस्वामी पर अपने ढंग की एक टिप्पणी भी की थी । मोनिका कुमार की कविताओं के साथ अविनाश मिश्र की एक विस्तृत टिप्पणी भी देखी, जिसमें अविनाश ने उनकी कविताओं की शीर्षक-विहीनता को ही अपने विचार का एक बड़ा विषय बना कर पेश किया है । कविताओं के साथ अविनाश की टिप्पणी को पढ़ कर मेरे मन में पहला सवाल उठा था कि सिर्फ 'शीर्षक-विहीनता' को ही क्यों, क्यों नहीं उन्होंने इन कविताओं की कथ्य-विहीनता पर विचार किया !
दरअसल, फ्रायड ने जिस स्त्री-ग्रंथी को, सटीक शब्दों में कहें तो स्त्री के उन्माद को, अपना विषय बनाया, 50 shades of grey की तरह उसके भी पचास से कम नही, बल्कि ज़्यादा ही शेड्स हैं । इसका सबसे ज़्यादा डराने वाला पहलू यह है कि इस ग्रंथी के राज में वास्तव में कोई राज ही नहीं है । न इसे कोई आदिम उन्माद कहा जा सकता है और न ही पितृसत्ता के किसी दबाव की सच्ची प्रतिक्रिया । इन कथ्य- विहीन कविताओं में बैठी स्त्री की आर्त-वेदना महज़ एक अबूझ सी पहेली है । कुछ न चाहने वाली चाहतों के संसार की मानिंद, उपेक्षित रहने की लालसाओं से की जाने वाली इशारेबाजियों की तरह । ये पुरुष को चुनौती देने के पहले ही अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर सामने आती हैं । पुरुष के प्रति इनका डर अपनी ही असंगतियाँ के प्रति डर की तरह होता है । वह अपने को असंख्य पर्दों के पीछे से व्यक्त करना चाहती है, कभी बदहवास होकर चौंकाती है तो कभी अत्यंत क्रूर और कुत्सित उपहास की मुद्रा भी अपनाती है । लेकिन इस ग्रंथी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि इसके हज़ार पर्दों के पीछे, जिसे 'वास्तव' कहा जा सके, वैसा कुछ भी नहीं होता है ।
सुशीला जी, फ्रायड के ऐसे अध्ययनों की रोशनी में ही, कहना चाहूँगा कि अक्सर हम अवचेतन को विवेक और बुद्धि का विलोम मान लेते है, जो अवचेतन के बारे में एक शुद्ध रूमानी नजरिया है । फ्रायड द्वारा विवेच्य अवचेतन से इसका कोई संपर्क नहीं है । फ्रायड के अवचेतन का भी अपना एक व्याकरण है, उसका अपना तर्क है । वह सोचता है और बोलता भी है । वह न आदिम होता है और न नैसर्गिक । सच कहा जाए तो अवचेतन का सच विचारों के सच से भी ताक़तवर होता है । फ्रायडीय कामुकता की बौद्धिक शक्ति को कोई भी देख सकता है । यह सारे सामाजिक क़ायदे-क़ानूनों को धत्ता बता देने वाले आतंकियों के हाथ के सबसे कारगर हथियार की तरह है । ऐसे आतंक मचा देने वाले 'बौद्धिक' अवचेतन की विशेषता यह है कि इसका अपना कोई संगतिपूर्ण ढाँचा नहीं होता है । इसमें हर प्रकार की चालाकियों, मौक़े का लाभ उठाने वाली करतूतों, अवसरवादी समझौतों का सम्मिश्रण होता है । यह एक प्रकार से विकृतियों और भटकावों का पागलपन है जो अतार्किक होने पर भी निश्चित रूप से नाना प्रकार के सूक्ष्म तारों के जोड़-तोड़ के नेटवर्क पर टिका होता है ।
सुशीला जी, दरअसल, सूक्ष्म और हास्यास्पद बातों के बीच कोई लंबा-चौड़ा फ़ासला नहीं हुआ करता है । किसी भी बड़े क़दम और थोथी भाव-भंगिमाओं में भेद करना अक्सर मुश्किल होता है । इसे आप एक नुक़्ते का फेर कह सकते हैं कि जिससे 'लाला जी अजमेर गये' बदल कर 'लाला जी आज मर गये' हो जाता है । कहने की मूल बात यह है कि अवचेतन का भी ऐसा ही एक अति-सूक्ष्म सा विन्यास होता है ।
साहित्य में बहुत से पात्र इस प्रकार से गढ़े जाते हैं ताकि वे कुछ ख़ास बातों को ख़ास भंगिमाओं में कह सके । यह भी एक प्रकार का रूपवाद ही है । पात्र का सच नहीं, लेखक के वैचारिक ढाँचे का सच प्रमुख हो जाता है । इसीलिये अभी शुभमश्री आदि के नाम पर जो बातें की जा रही है, विचार की बात यह है कि वे चरित्रों का सच है या लेखक की बातों के लिये निर्मित सच । कहीं यह सब अपने एक प्रकार के एक उन्माद की अभिव्यक्ति के लिये निर्मित कविताओं का ढाँचा तो नहीं है !
हिंदी में हमारे लिये कृष्ण बलदेव वैद की शैली इसका एक क्लासिक उदाहरण बन सकती है । बिना किसी विराम-चिन्हों वाले गद्य के स्फीत ढाँचे में जब उनका पिद्दी सा क्षीणकाय कथ्य ढूँढे से नहीं मिलता, तो यह समझ में आ जाता है कि कथ्य नहीं, लेखक के लिये उसकी शैली का रूप ज़्यादा महत्वपूर्ण है ।
हमें तो लगता है कि जब भी किसी तान में संगति बैठती नहीं दिखती, तब पीछे के तानपुरे के सुर को बेसुरेपन की समस्या के समाधान की कोशिश के तौर पर आना पड़ता है । बेसुरापन अगर उन्माद है तो यह सुर स्थिरता की आस्था है । हमें बेसुरेपन में नहीं, बल्कि बेसुरेपन से मुक्ति में ज़बर्दस्त राजनीतिक ताक़त दिखाई देती है । वही एक उत्पीड़क शासन से मुक्ति का भाव पैदा करता है । बेसुरेपन को स्वीकारना हताशा को और समाज के अंदर के शत्रुतापूर्ण अन्तर्विरोधों को स्वीकारने की तरह होता है । दरअसल यह किसी विध्वस्त भाव की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि खोए हुए सुर को फिर से पाने की जद्दो-जहद में होने वाला एक प्रकार का अनावश्यक सा, collateral damage कहलाने वाला नुक़सान है । यह आकस्मिक नहीं है कि सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन की फ़िल्मों से लेकर हाल में मराठी जीवन पर गहरा असर डालने वाली नागराज की 'सैराट' की तरह की फ़िल्मों की चुस्त और संगीतमय प्रस्तुति उनके विद्रोही कथन को प्रगाढ़ करने में अहम भूमिका अदा करती है ।
हमने हिंदी में अकविता या बांग्ला में भूखी पीढ़ी के आंदोलनों को देखा है । शक्ति चटर्जी और सुनील गंगोपाध्याय को अंत में रवीन्द्रनाथ के चरणों पर दंडवत होते भी देखा है । उनका भूखी पीढ़ी वाला बेसुरापन सामाजिक विसंगतियों के सामने आत्म-समर्पण से उत्पन्न हुआ था । वह एक व्यापक मोहभंग के काल में नये विकल्पों की तलाश की लड़ाई का collateral-damage था । वह नये स्वरों की ऊँचाइयों के रास्ते में बाधा भी बना था । जबकि साहित्य का वैकल्पिक स्वर अपने विस्तार और अपने शिखर, दोनों ही स्तर पर किसी न किसी एक सूत्र से बँधा होता है ।
सुशीला जी, अंत में यही कहूँगा कि आज जब बहुत कुछ बेसुरा सा चल रहा है, तब पुरानी लीक से भले ही हमें अपने वांछित फल हासिल न हो, लेकिन कुछ संतोषप्रद जगह तो पाई ही जा सकती है । पुरानी लीक में कुछ मामूली कल्पनाशील परिवर्तनों से ही ऐसी चीज़ों को तीव्र प्रकाश के वृत्त में लाया जा सकता है, जिनकी हमें तलाश है, लेकिन दिखाई नहीं देती है । अभी जो चल रहा है, उसके बारे में फिर एक बार फ्रायड का इस्तेमाल करते हुए यही कहूँगा, सपने का रहस्य उसके विषय में नहीं, उसके ढाँचे में ही निहित होता है ।
एक रौ में यहाँ कुछ बातें कह गया हूँ । इन्हें मेरी पहले वाली मनोज कुमार झा की पोस्ट पर की गई टिप्पणी और समालोचन ब्लाग में लवली गोस्वामी की कविताओं के संदर्भ में कही गई बातों के साथ पढ़ने पर शायद इस बहक का आशय कुछ और साफ़ होगा । यहाँ मैं नीचे उन दोनों को भी अलग से जोड़ दे रहा हूँ -
Manoj Kumar Jha
Arun Maheshwari सर की
एक ज़रूरी टिप्पणी रचना और रचनात्मक विद्रोह पर...
मज़े की बात यह है कि यह सब एक रचनात्मक विद्रोह के नाम पर चल रहा है । गंभीरता से सोचे तो किसी भी रचना में विद्रोह के विस्फोट की गूँज को सुन कर पहला सवाल पैदा होता है यह विस्फोट क्यों ? इसके मूल में क्या है? रचनाकार का विद्रोह किस जरूरतवश फूटा है । विस्फोट तो रचना की ज़रूरत के मर्म में ही निहित होता है । सिर्फ विस्फोट की ज़रूरत नहीं , बल्कि उसमें खुद ज़रूरत का विस्फोट भी होता है । किसी भी क्षुद्र सी बात से महा-विध्वंसक युद्ध शुरू हो सकता है, लेकिन युद्ध महज़ वह छोटी सी बात नहीं होता है ।
आपके किसी भी क़दम का असली अर्थ तो आपके क़दम के सामाजिक प्रभाव से सामने आता है । आपका आशय कुछ भी क्यों न रहा हो । हम मानते है कि कोई भी सच्चा स्वतंत्र क़दम पुराने ढर्रे पर चल कर, माप-तौल कर नहीं उठाया जाता है । वह इस उपक्रम में खुद अपना ढर्रा बनाता है । लेकिन उसमें रचनाकार जरूर खुद मौजूद रहता है । जैसे प्रेमिका की अदाओं और उसके नाक-नक़्शे को आदमी इसलिये पसंद करता है, क्योंकि वे उसकी प्रेमिका की अदाएँ हैं, प्रेमिका के नाक-नक़्शे हैं । इसीलिये किसी भी चीज को आदमी बेवजह पसंद नहीं करता । उसमें वह खुद को किसी न किसी रूप में देख रहा होता है । क्या हमारे विद्रोही रचनाकारों की सूरत ऐसी ही है !
दरअसल, यह हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है कि अक्सर हम जितना स्वतंत्र चलते हैं, उतना ही ज्यादा व्यवस्था के ग़ुलाम होते जाते हैं । ज़रूरत है कि हम बाहर के दबावों से मिथ्या स्वतंत्रता की 'तंद्रा' से जागे और सामाजिक स्वतंत्रता से अपने को जोड़े । इसमें विचारधारा की एक बड़ी भूमिका होती है । स्वतंत्रता अकेले की नहीं, सामूहिक होती है और यह लड़ कर अर्जित की जाती है । इसे भूला नहीं जा सकता है । थोथी गालियों का रचनात्मक संसार कुंठाओं से भरा संसार ही हो सकता है ।
लवली गोस्वामी जी की कविताओं पर एक टिप्पणी -
लवली गोस्वामी की इन दार्शनिक कविताओं को पढ़ कर एकबारगी हमारे मन में कवि को जानने की इच्छा पैदा हो गई। मेरी कमी थी कि उनके बारे में मेरी कोई जानकारी नहीं थी। इसीलिये तत्काल एक धारणा बनाने के लिये ही मैंने उनके फेसबुक पेज को टटोला। उसमें संकलित कुछ ‘आप्त-सुक्तियों’ के साथ ही खास तौर पर ‘पहल’ पत्रिका में छपे उनके लेख ‘अभयारण्य में यथार्थ की दुर्दशा’ को पढ़ गया, जिससे मुझे मोटे तौर पर कवि की जमीन का एक अंदाजा मिला। लवली जी की इन प्रेम कविताओं से अनायास ही हरीश भादानी पर लिखी अपनी किताब की ही कुछ पंक्तियां याद आ गई - ‘‘प्रेम एक झंझा है। जीवन के सारे आंकड़ों को तहस-नहस कर देने, हर संतुलन को बिगाड़ देने वाली एक खतरनाक स्थिति। आदमी प्रेम में पड़ता है। Fall in love । स्खलन की खाई। फिसलन की काई। ऐसा जबर्दस्त तूफान जिसमें आदमी के पैर जमीन पर टिके नहीं रह सकते।’’ कहने का मतलब कि आदमी के जीवन में प्रेम एक सामान्य स्थिति कत्तई नहीं होता। इस बवंडर को काबू में करने के लिये ही तो वे सारी सामाजिक-नैतिक संहिताएं हैं जिनके बारे में खुद लवली जी ने अपने ‘अभयारण्य’ वाले लेख में एक संकेत दिया है कि कैसे विवाह संस्था के जरिये मातृसत्ता को खंडित किया गया था और महाविद्या, योगिनी समूह, पंचकन्या समूह आदि में जहां भी स्वतंत्र यौन क्रिया जारी रही, उन्हें नाना उपायों से अलग-थलग करके तमाम प्रकार से उत्पीड़ित और वंचित किया गया। वे व्याधियों, महामारियों की देवियां बना दी गई ।
कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में उद्दाम प्रेम जब स्वाभाविक वैवाहिक किस्म की परिणति नहीं पाता तो उसके विध्वंसक परिणाम प्रेम की स्मृतियों को डरावनी सी ऐसी सूरत भी दे सकते हैं, जिन्हें आदमी सीधे तौर पर स्वीकारने से कतराता है। यह उनकी प्रेत की तरह की एक सताने वाली सूरत होती है, क्योंकि इसमें एक अतिरेकों से भरा, एक प्रकार का असहनीय सच निहित होता है। आज के संसार में इससे जुड़े तमाम स्वछंद नैतिक-विमर्शों के बाद भी यह एक ऐसा लोमहर्षक अनुभव बना रहता है, जिसके सच से वाकिफ होने पर भी उसका पूरा लेखा-जोखा देना मुमकिन नहीं होता है। यहीं से आदमी के अस्तित्व से जुड़ी वे खास तात्विक समस्याएं उत्पन्न होती है जिन्हें लवली जी की इन कविताओं का विषय बनाया गया है। ये ‘पितृ-हत्या’ वाली कोई काल्पनिक फ्रायडीय ग्रंथी नहीं है, बल्कि जीवन में घटित सच का दंश है। ऐसा तूफानी या विध्वंसक सच जिसे आदमी महज अतीत की स्मृतियों के खाते में नहीं डाल पाता है। वह कभी इसके प्रति तटस्थ या इसका निरपेक्ष वस्तु-द्रष्टा नहीं हो पाता है। इस अनुभव की विडंबना यह है कि यह उसका अतीत होने पर भी मनुष्य इसे अपना अतीत नहीं मान पाता है। इसमें कुछ ऐसा है जो इसे सत्य-कथा के बजाय एक प्रेत-कथा की तरह का बना देता है। मन के किसी कोने में पड़ी अपराध-बोध की सिहरा देने वाली असमाप्त कहानी। स्मृति से भी यह एक फिसलन बन कर ही रचना का रूप लेती है, किसी आदिम झूठ की तरह, पाठक को एक भुतहा संसार में ले जाकर उससे छल करने वाले झूठ की तरह। लवली जी ने मिथकों पर काम किया है। ईश्वर संबंधी मिथकीय कथाओं का रहस्य भी कुछ ऐसा ही है। ये आद्य-ब्रह्मांडीय अराजकता की कोख से शब्द-ब्रह्म के एक संपूर्ण सत्य की व्युत्पत्ति का दावा करने वाली कथाएं होती है। लेकिन, इनमें जिस बात को छिपाया जाता है, वह यह है कि आदमी का यह दमित, उझक कर सामने आने वाला अतीत सबका जाना हुआ सत्य नहीं होता। अंतत: यह एक कपोल-कल्पना ही होता है जो वास्तव में रचनाकार के जीवन में घटित कृत्य से उत्पन्न शून्य को भरता है। यही है जीवित मनुष्यों पर राज करने वाले तथाकथित मिथ्या-स्मृति रोग के रहस्य की रचनात्मक बुनावट। एक अवचेतन का खेल जिसमें वास्तव में यदि कुछ अवचेतन में है तो वह अतीत की कोई सहेजी हुई अनुभूति नहीं, मनुष्य का कोई कृत्य ही है, अर्थात अवचेतन नहीं, संपूर्ण चेतन। मनुष्य का कृत्य ही उसका सनातन सत्य होता है। थोड़ा सा इस चर्चा की पृष्ठभूमि में इन कविताओं को पढ़ें, शायद इनके आगे और भी अर्थ खुलेंगे; इनके रहस्य का संधान मिलेगा। 6/8/16, 6:42 am
Sushila Puri ji, आपने मुझे आशीष मिश्रा के 'मठों के ढहने' वाली टिप्पणी मार्क की हैं। आप जानती ही हैं कि मैं इस चाय की प्याली में उठे तूफ़ान पर कुछ कहना नहीं चाहता था । इसकी अकेली वजह यही है कि इस विषय में निश्चयात्मक तौर पर कुछ कहने में मैं अपने को असमर्थ पाता हूँ । इस प्रसंग की पृष्ठभूमि में मैंने रचना में विद्रोह के बारे में अपने प्रकार की एक सामान्य सी टिप्पणी की थी । ठोस रूप में कुछ न कह पाने की वजह से ही वह मेरे लिये ही संतोषप्रद नहीं थी । लेकिन इसकी मूल वजह यही थी कि अब तक भी मैं इस पूरे विषय के महत्व को समझ नहीं पाया हूँ । एक नई कवियत्री को पुरस्कार मिला, जैसा कि हिंदी में असंख्य लोगों को मिलता ही रहता है । इस पुरस्कार का कुछ भी नाम या इतिहास क्यों न हो, साहित्य के वृहद परिप्रेक्ष्य में खुद में इसका मुझे कोई बहुत ज़्यादा अर्थ नहीं दिखाई दिया कि इस पर उठी बहस में हस्तक्षेप की ज़रूरत महसूस करूँ ।
फिर भी, नितांत अप्रासंगिक ही क्यों न माना जाए, इतना जरूर कहूँगा कि स्त्री-पुरुष से जुड़े विषयों के सिर्फ समाज-शास्त्रीय पहलू ही नहीं हुआ करते हैं, जिन पर अभी सबसे अधिक चर्चा हो रही हैं । स्त्री मनोविज्ञान तो फ्रायड के अध्ययन का एक बहुत महत्वपूर्ण विषय रहा है । यह बात मैं इसलिये कहना चाहता हूँ क्योंकि हाल ही में मैंने और भी कुछ कवयित्रियों की कविताओं को डिजिटल माध्यम से ही पढ़ा है । शुभम श्री तो अभी कविता की दुनिया में पदार्पण ही कर रही है । मैंने 'समालोचन वेब मैगज़ीन ' ब्लाग पर लवली गोस्वामी और मोनिका कुमार की कुछेक कविताओं को भी पढ़ा है । वहीं पर लवली गोस्वामी पर अपने ढंग की एक टिप्पणी भी की थी । मोनिका कुमार की कविताओं के साथ अविनाश मिश्र की एक विस्तृत टिप्पणी भी देखी, जिसमें अविनाश ने उनकी कविताओं की शीर्षक-विहीनता को ही अपने विचार का एक बड़ा विषय बना कर पेश किया है । कविताओं के साथ अविनाश की टिप्पणी को पढ़ कर मेरे मन में पहला सवाल उठा था कि सिर्फ 'शीर्षक-विहीनता' को ही क्यों, क्यों नहीं उन्होंने इन कविताओं की कथ्य-विहीनता पर विचार किया !
दरअसल, फ्रायड ने जिस स्त्री-ग्रंथी को, सटीक शब्दों में कहें तो स्त्री के उन्माद को, अपना विषय बनाया, 50 shades of grey की तरह उसके भी पचास से कम नही, बल्कि ज़्यादा ही शेड्स हैं । इसका सबसे ज़्यादा डराने वाला पहलू यह है कि इस ग्रंथी के राज में वास्तव में कोई राज ही नहीं है । न इसे कोई आदिम उन्माद कहा जा सकता है और न ही पितृसत्ता के किसी दबाव की सच्ची प्रतिक्रिया । इन कथ्य- विहीन कविताओं में बैठी स्त्री की आर्त-वेदना महज़ एक अबूझ सी पहेली है । कुछ न चाहने वाली चाहतों के संसार की मानिंद, उपेक्षित रहने की लालसाओं से की जाने वाली इशारेबाजियों की तरह । ये पुरुष को चुनौती देने के पहले ही अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर सामने आती हैं । पुरुष के प्रति इनका डर अपनी ही असंगतियाँ के प्रति डर की तरह होता है । वह अपने को असंख्य पर्दों के पीछे से व्यक्त करना चाहती है, कभी बदहवास होकर चौंकाती है तो कभी अत्यंत क्रूर और कुत्सित उपहास की मुद्रा भी अपनाती है । लेकिन इस ग्रंथी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि इसके हज़ार पर्दों के पीछे, जिसे 'वास्तव' कहा जा सके, वैसा कुछ भी नहीं होता है ।
सुशीला जी, फ्रायड के ऐसे अध्ययनों की रोशनी में ही, कहना चाहूँगा कि अक्सर हम अवचेतन को विवेक और बुद्धि का विलोम मान लेते है, जो अवचेतन के बारे में एक शुद्ध रूमानी नजरिया है । फ्रायड द्वारा विवेच्य अवचेतन से इसका कोई संपर्क नहीं है । फ्रायड के अवचेतन का भी अपना एक व्याकरण है, उसका अपना तर्क है । वह सोचता है और बोलता भी है । वह न आदिम होता है और न नैसर्गिक । सच कहा जाए तो अवचेतन का सच विचारों के सच से भी ताक़तवर होता है । फ्रायडीय कामुकता की बौद्धिक शक्ति को कोई भी देख सकता है । यह सारे सामाजिक क़ायदे-क़ानूनों को धत्ता बता देने वाले आतंकियों के हाथ के सबसे कारगर हथियार की तरह है । ऐसे आतंक मचा देने वाले 'बौद्धिक' अवचेतन की विशेषता यह है कि इसका अपना कोई संगतिपूर्ण ढाँचा नहीं होता है । इसमें हर प्रकार की चालाकियों, मौक़े का लाभ उठाने वाली करतूतों, अवसरवादी समझौतों का सम्मिश्रण होता है । यह एक प्रकार से विकृतियों और भटकावों का पागलपन है जो अतार्किक होने पर भी निश्चित रूप से नाना प्रकार के सूक्ष्म तारों के जोड़-तोड़ के नेटवर्क पर टिका होता है ।
सुशीला जी, दरअसल, सूक्ष्म और हास्यास्पद बातों के बीच कोई लंबा-चौड़ा फ़ासला नहीं हुआ करता है । किसी भी बड़े क़दम और थोथी भाव-भंगिमाओं में भेद करना अक्सर मुश्किल होता है । इसे आप एक नुक़्ते का फेर कह सकते हैं कि जिससे 'लाला जी अजमेर गये' बदल कर 'लाला जी आज मर गये' हो जाता है । कहने की मूल बात यह है कि अवचेतन का भी ऐसा ही एक अति-सूक्ष्म सा विन्यास होता है ।
साहित्य में बहुत से पात्र इस प्रकार से गढ़े जाते हैं ताकि वे कुछ ख़ास बातों को ख़ास भंगिमाओं में कह सके । यह भी एक प्रकार का रूपवाद ही है । पात्र का सच नहीं, लेखक के वैचारिक ढाँचे का सच प्रमुख हो जाता है । इसीलिये अभी शुभमश्री आदि के नाम पर जो बातें की जा रही है, विचार की बात यह है कि वे चरित्रों का सच है या लेखक की बातों के लिये निर्मित सच । कहीं यह सब अपने एक प्रकार के एक उन्माद की अभिव्यक्ति के लिये निर्मित कविताओं का ढाँचा तो नहीं है !
हिंदी में हमारे लिये कृष्ण बलदेव वैद की शैली इसका एक क्लासिक उदाहरण बन सकती है । बिना किसी विराम-चिन्हों वाले गद्य के स्फीत ढाँचे में जब उनका पिद्दी सा क्षीणकाय कथ्य ढूँढे से नहीं मिलता, तो यह समझ में आ जाता है कि कथ्य नहीं, लेखक के लिये उसकी शैली का रूप ज़्यादा महत्वपूर्ण है ।
हमें तो लगता है कि जब भी किसी तान में संगति बैठती नहीं दिखती, तब पीछे के तानपुरे के सुर को बेसुरेपन की समस्या के समाधान की कोशिश के तौर पर आना पड़ता है । बेसुरापन अगर उन्माद है तो यह सुर स्थिरता की आस्था है । हमें बेसुरेपन में नहीं, बल्कि बेसुरेपन से मुक्ति में ज़बर्दस्त राजनीतिक ताक़त दिखाई देती है । वही एक उत्पीड़क शासन से मुक्ति का भाव पैदा करता है । बेसुरेपन को स्वीकारना हताशा को और समाज के अंदर के शत्रुतापूर्ण अन्तर्विरोधों को स्वीकारने की तरह होता है । दरअसल यह किसी विध्वस्त भाव की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि खोए हुए सुर को फिर से पाने की जद्दो-जहद में होने वाला एक प्रकार का अनावश्यक सा, collateral damage कहलाने वाला नुक़सान है । यह आकस्मिक नहीं है कि सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन की फ़िल्मों से लेकर हाल में मराठी जीवन पर गहरा असर डालने वाली नागराज की 'सैराट' की तरह की फ़िल्मों की चुस्त और संगीतमय प्रस्तुति उनके विद्रोही कथन को प्रगाढ़ करने में अहम भूमिका अदा करती है ।
हमने हिंदी में अकविता या बांग्ला में भूखी पीढ़ी के आंदोलनों को देखा है । शक्ति चटर्जी और सुनील गंगोपाध्याय को अंत में रवीन्द्रनाथ के चरणों पर दंडवत होते भी देखा है । उनका भूखी पीढ़ी वाला बेसुरापन सामाजिक विसंगतियों के सामने आत्म-समर्पण से उत्पन्न हुआ था । वह एक व्यापक मोहभंग के काल में नये विकल्पों की तलाश की लड़ाई का collateral-damage था । वह नये स्वरों की ऊँचाइयों के रास्ते में बाधा भी बना था । जबकि साहित्य का वैकल्पिक स्वर अपने विस्तार और अपने शिखर, दोनों ही स्तर पर किसी न किसी एक सूत्र से बँधा होता है ।
सुशीला जी, अंत में यही कहूँगा कि आज जब बहुत कुछ बेसुरा सा चल रहा है, तब पुरानी लीक से भले ही हमें अपने वांछित फल हासिल न हो, लेकिन कुछ संतोषप्रद जगह तो पाई ही जा सकती है । पुरानी लीक में कुछ मामूली कल्पनाशील परिवर्तनों से ही ऐसी चीज़ों को तीव्र प्रकाश के वृत्त में लाया जा सकता है, जिनकी हमें तलाश है, लेकिन दिखाई नहीं देती है । अभी जो चल रहा है, उसके बारे में फिर एक बार फ्रायड का इस्तेमाल करते हुए यही कहूँगा, सपने का रहस्य उसके विषय में नहीं, उसके ढाँचे में ही निहित होता है ।
एक रौ में यहाँ कुछ बातें कह गया हूँ । इन्हें मेरी पहले वाली मनोज कुमार झा की पोस्ट पर की गई टिप्पणी और समालोचन ब्लाग में लवली गोस्वामी की कविताओं के संदर्भ में कही गई बातों के साथ पढ़ने पर शायद इस बहक का आशय कुछ और साफ़ होगा । यहाँ मैं नीचे उन दोनों को भी अलग से जोड़ दे रहा हूँ -
Manoj Kumar Jha
Arun Maheshwari सर की
एक ज़रूरी टिप्पणी रचना और रचनात्मक विद्रोह पर...
मज़े की बात यह है कि यह सब एक रचनात्मक विद्रोह के नाम पर चल रहा है । गंभीरता से सोचे तो किसी भी रचना में विद्रोह के विस्फोट की गूँज को सुन कर पहला सवाल पैदा होता है यह विस्फोट क्यों ? इसके मूल में क्या है? रचनाकार का विद्रोह किस जरूरतवश फूटा है । विस्फोट तो रचना की ज़रूरत के मर्म में ही निहित होता है । सिर्फ विस्फोट की ज़रूरत नहीं , बल्कि उसमें खुद ज़रूरत का विस्फोट भी होता है । किसी भी क्षुद्र सी बात से महा-विध्वंसक युद्ध शुरू हो सकता है, लेकिन युद्ध महज़ वह छोटी सी बात नहीं होता है ।
आपके किसी भी क़दम का असली अर्थ तो आपके क़दम के सामाजिक प्रभाव से सामने आता है । आपका आशय कुछ भी क्यों न रहा हो । हम मानते है कि कोई भी सच्चा स्वतंत्र क़दम पुराने ढर्रे पर चल कर, माप-तौल कर नहीं उठाया जाता है । वह इस उपक्रम में खुद अपना ढर्रा बनाता है । लेकिन उसमें रचनाकार जरूर खुद मौजूद रहता है । जैसे प्रेमिका की अदाओं और उसके नाक-नक़्शे को आदमी इसलिये पसंद करता है, क्योंकि वे उसकी प्रेमिका की अदाएँ हैं, प्रेमिका के नाक-नक़्शे हैं । इसीलिये किसी भी चीज को आदमी बेवजह पसंद नहीं करता । उसमें वह खुद को किसी न किसी रूप में देख रहा होता है । क्या हमारे विद्रोही रचनाकारों की सूरत ऐसी ही है !
दरअसल, यह हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है कि अक्सर हम जितना स्वतंत्र चलते हैं, उतना ही ज्यादा व्यवस्था के ग़ुलाम होते जाते हैं । ज़रूरत है कि हम बाहर के दबावों से मिथ्या स्वतंत्रता की 'तंद्रा' से जागे और सामाजिक स्वतंत्रता से अपने को जोड़े । इसमें विचारधारा की एक बड़ी भूमिका होती है । स्वतंत्रता अकेले की नहीं, सामूहिक होती है और यह लड़ कर अर्जित की जाती है । इसे भूला नहीं जा सकता है । थोथी गालियों का रचनात्मक संसार कुंठाओं से भरा संसार ही हो सकता है ।
लवली गोस्वामी जी की कविताओं पर एक टिप्पणी -
लवली गोस्वामी की इन दार्शनिक कविताओं को पढ़ कर एकबारगी हमारे मन में कवि को जानने की इच्छा पैदा हो गई। मेरी कमी थी कि उनके बारे में मेरी कोई जानकारी नहीं थी। इसीलिये तत्काल एक धारणा बनाने के लिये ही मैंने उनके फेसबुक पेज को टटोला। उसमें संकलित कुछ ‘आप्त-सुक्तियों’ के साथ ही खास तौर पर ‘पहल’ पत्रिका में छपे उनके लेख ‘अभयारण्य में यथार्थ की दुर्दशा’ को पढ़ गया, जिससे मुझे मोटे तौर पर कवि की जमीन का एक अंदाजा मिला। लवली जी की इन प्रेम कविताओं से अनायास ही हरीश भादानी पर लिखी अपनी किताब की ही कुछ पंक्तियां याद आ गई - ‘‘प्रेम एक झंझा है। जीवन के सारे आंकड़ों को तहस-नहस कर देने, हर संतुलन को बिगाड़ देने वाली एक खतरनाक स्थिति। आदमी प्रेम में पड़ता है। Fall in love । स्खलन की खाई। फिसलन की काई। ऐसा जबर्दस्त तूफान जिसमें आदमी के पैर जमीन पर टिके नहीं रह सकते।’’ कहने का मतलब कि आदमी के जीवन में प्रेम एक सामान्य स्थिति कत्तई नहीं होता। इस बवंडर को काबू में करने के लिये ही तो वे सारी सामाजिक-नैतिक संहिताएं हैं जिनके बारे में खुद लवली जी ने अपने ‘अभयारण्य’ वाले लेख में एक संकेत दिया है कि कैसे विवाह संस्था के जरिये मातृसत्ता को खंडित किया गया था और महाविद्या, योगिनी समूह, पंचकन्या समूह आदि में जहां भी स्वतंत्र यौन क्रिया जारी रही, उन्हें नाना उपायों से अलग-थलग करके तमाम प्रकार से उत्पीड़ित और वंचित किया गया। वे व्याधियों, महामारियों की देवियां बना दी गई ।
कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में उद्दाम प्रेम जब स्वाभाविक वैवाहिक किस्म की परिणति नहीं पाता तो उसके विध्वंसक परिणाम प्रेम की स्मृतियों को डरावनी सी ऐसी सूरत भी दे सकते हैं, जिन्हें आदमी सीधे तौर पर स्वीकारने से कतराता है। यह उनकी प्रेत की तरह की एक सताने वाली सूरत होती है, क्योंकि इसमें एक अतिरेकों से भरा, एक प्रकार का असहनीय सच निहित होता है। आज के संसार में इससे जुड़े तमाम स्वछंद नैतिक-विमर्शों के बाद भी यह एक ऐसा लोमहर्षक अनुभव बना रहता है, जिसके सच से वाकिफ होने पर भी उसका पूरा लेखा-जोखा देना मुमकिन नहीं होता है। यहीं से आदमी के अस्तित्व से जुड़ी वे खास तात्विक समस्याएं उत्पन्न होती है जिन्हें लवली जी की इन कविताओं का विषय बनाया गया है। ये ‘पितृ-हत्या’ वाली कोई काल्पनिक फ्रायडीय ग्रंथी नहीं है, बल्कि जीवन में घटित सच का दंश है। ऐसा तूफानी या विध्वंसक सच जिसे आदमी महज अतीत की स्मृतियों के खाते में नहीं डाल पाता है। वह कभी इसके प्रति तटस्थ या इसका निरपेक्ष वस्तु-द्रष्टा नहीं हो पाता है। इस अनुभव की विडंबना यह है कि यह उसका अतीत होने पर भी मनुष्य इसे अपना अतीत नहीं मान पाता है। इसमें कुछ ऐसा है जो इसे सत्य-कथा के बजाय एक प्रेत-कथा की तरह का बना देता है। मन के किसी कोने में पड़ी अपराध-बोध की सिहरा देने वाली असमाप्त कहानी। स्मृति से भी यह एक फिसलन बन कर ही रचना का रूप लेती है, किसी आदिम झूठ की तरह, पाठक को एक भुतहा संसार में ले जाकर उससे छल करने वाले झूठ की तरह। लवली जी ने मिथकों पर काम किया है। ईश्वर संबंधी मिथकीय कथाओं का रहस्य भी कुछ ऐसा ही है। ये आद्य-ब्रह्मांडीय अराजकता की कोख से शब्द-ब्रह्म के एक संपूर्ण सत्य की व्युत्पत्ति का दावा करने वाली कथाएं होती है। लेकिन, इनमें जिस बात को छिपाया जाता है, वह यह है कि आदमी का यह दमित, उझक कर सामने आने वाला अतीत सबका जाना हुआ सत्य नहीं होता। अंतत: यह एक कपोल-कल्पना ही होता है जो वास्तव में रचनाकार के जीवन में घटित कृत्य से उत्पन्न शून्य को भरता है। यही है जीवित मनुष्यों पर राज करने वाले तथाकथित मिथ्या-स्मृति रोग के रहस्य की रचनात्मक बुनावट। एक अवचेतन का खेल जिसमें वास्तव में यदि कुछ अवचेतन में है तो वह अतीत की कोई सहेजी हुई अनुभूति नहीं, मनुष्य का कोई कृत्य ही है, अर्थात अवचेतन नहीं, संपूर्ण चेतन। मनुष्य का कृत्य ही उसका सनातन सत्य होता है। थोड़ा सा इस चर्चा की पृष्ठभूमि में इन कविताओं को पढ़ें, शायद इनके आगे और भी अर्थ खुलेंगे; इनके रहस्य का संधान मिलेगा। 6/8/16, 6:42 am
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