बुधवार, 24 अगस्त 2016

उन्मादित भीड़ को टेरने के काम में लगे गो-रक्षकों के मानस का सच


आज ( 25 अगस्त 2016) के ‘टेलिग्राफ’ मे उड्डलक मुखर्जी की एक रिपोर्ट है, गोरक्षकों के मनोविज्ञान के बारे में। एक गोरक्षक से लिये गये साक्षात्कार पर आधारित रिपोर्ट। गोगुंडा गोरक्षक नहीं, अर्थात गाय के नाम पर जबरिया वसूली करने वाले गोशाला से लेकर थानों तक फैले हुए धंधेबाज गोरक्षक से नहीं। एक आरएसएस टाइप, निष्ठावान स्वयंसेवक टाइप गो रक्षक शास्त्री जी से लिया गया साक्षात्कार। इसके आधार पर उड्डलक बताते हैं कि कैसे गाय इनके लिये सिर्फ गाय नहीं, और बहुत कुछ है। वह गो रक्षक अपनी बात तो शुरू करता है गाय के गुणों की रटी हुई विरुदावली बांच कर कि इसकी महिमा अपरंपार है, इसका पेशाब कैंसर को दूर कर देता है, इसके गोबर के उपलों के धुएं से धरती पर ओजोन परत कावह गो रक्षक अपनी बात तो शुरू करता है गाय के गुणों की रटी हुई विरुदावली बांच कर कि इसकी महिमा अपरंपार है, इसका पेशाब कैंसर को दूर कर देता है, इसके गोबर के उपलों के धुएं से धरती पर ओजोन परत का छेद दूर हो जाता है़, आदि।

शास्त्री जी ने पढ़ाई के नाम पर कुछ योगियों, कथित वकीलों और वैज्ञानिकों की चीजों को पढ़ा है, जिनसे हर चीज के बारे में उनकी एकदम पुख्ता राय तैयार हो चुकी है। इसी के बल पर वे भारत में विज्ञान की शिक्षा का ही मजाक नहीं उड़ाते बल्कि भारतीय संविधान में गोरक्षा के बारे में प्राविधानों की अपनी आधी-अधूरी, बल्कि गलत जानकारी को भी पूरे अधिकार के साथ गिनाते हैं। अंबेडकर की बातों से नफरत करते हैं और गांधी की बातों को तुष्टीकरण बताते हैं। और भारत की संघीय व्यवस्था के तो घनघोर शत्रु है। उनका साफ कहना है कि उनके हिंदू राष्ट्र में सारे अधिकार केंद्र के पास होंगे, राज्यों के पास कोई अधिकार नहीं होगा। यहां तक कि वे इन शुद्ध आंकड़ों को भी मानने से एक झटके में इंकार करते हैं कि 2012 की पशुओे की गणना के अनुसार भारत में गायों की आबादी में 6.52 प्रतिशत वृद्धि हुई है। उनकी एक ही रट थी कि भारत में हिंदुओं की तरह ही गायों की संख्या में गिरावट आई है। वे नहीं मानते कि गाय के सवाल से कोई सांप्रदायिक तनाव पैदा होता है। उनकी साफ राय है कि भारत को सिर्फ बहुसंख्यकों की राय के अनुसार चलना होगा। वे कहते हैं कि भारत के संविधान को फाड़ कर फेंक देना चाहिए क्योंकि उसमें अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की बात कही गई है।

गोरक्षक शास्त्री उड्डलक मुखर्जी को कहता है कि वह हिंसा पर विश्वास नहीं करता। लेकिन उसकी कुल बातों से मुखर्जी को लगा कि उसे ही हिंसा की अपनी समझ के बारे में ही सोचना पड़ेगा। शास्त्री धर्म-आधारित राज्य, संकीर्णतावाद और छूआछूत का पक्का समर्थक था। वह संविधान के मूल्यों पर आघात करने वाली बातों के प्रचार में पूरी ताकत से लगा हुआ है। उड्डलक अपनी रिपोर्ट में यह सवाल उठाते हैं कि क्या उसकी ये सारी गतिविधियां आक्रामक नहीं कहलायेगी ? क्या हिंसा का अर्थ सिर्फ शारीरिक ही होता है ?

शास्त्री एक ‘समाज’ नामक संगठन से जुड़ा हुआ है जो उसके अनुसार जातिवाद और निरक्षरता के खिलाफ लड़ाई में लगा हुआ है। उड्डलक के अंदर यह सवाल पैदा होता है कि क्या कारण है कि उसका यह ‘समाज’ ज्ञान और जागरण की पूरी परंपरा’ से अछूता रह जाता है ?

अपनी रिपोर्ट का अंत उड्डलक इस बात से करते हैं कि ‘‘शास्त्री से मिल कर यह भी पता चल गया कि राजनीतिक सत्ता भीड़ को टेरने वालों के लिये कोई ईनाम नहीं है। शास्त्री और उसका समाज भारत के बौद्धिक और नैतिक स्थान पर नजर लगाये हुए हैं - उसकी शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाओं और नीतियों पर। उनके इस लक्ष्य के साथ गाय को इसलिये जोड़ा गया है क्योंकि गाय की रक्षा करने का दावा करने वालों के लिये इसके एक नहीं अनेक लाभ हैं। इस बात पर मैं शास्त्री से सहमत था।’’

यह है हमारे सामने उपस्थित उस पूरी विचारधारा का ठोस, जमीनी सच जो आज भारत को तेजी से विकास के पथ पर ले जाने के दावे के साथ देश की सर्वोच्च सत्ता पर पहुंच चुकी है। ‘आधुनिक भारत’ के निर्माण में लगाई जा रही आदिम सोच रखने वाली सामाजिक शक्तियों की एक भीड़ का सच। आज दिल्ली में इनके सर्वाधुनिक मुख्य कार्यालय की नींव रखी गई है। इनकी सारी आधुनिकता एक ऐसे राष्ट्रवाद के दैत्य की निर्मिति के प्रयोजन के लिये है जो हर प्रकार के विवेक और बुद्धि की आवाज को राष्ट्रद्रोही करार कर उन्हें अपने भीमकाय पैरो तले रौंद सके।

मोदी जी की निजी साज-सज्जा, साफ-सुथरे कपड़े, सधी हुई चाल, बात-बात पर उनकी आंसू तक बहाने की भावुक मुद्राएं और हाथ लहरा-लहरा कर भाषणबाजी की अदाएं, इन सबके पीछे के सच का असली रूप है उड्डलक मुखर्जी का यह पात्र शास्त्री, जिसकी आरएसएस के मोहन भागवत भी बीच-बीच में झलक देते रहते हैं। आज सचमुच हमें मोदी जी मुद्राओं पर हंसी आने लगी है। इसकी वजह है कि वे अपने लंबे अभ्यास के चलते मिथ्याचारी की भूमिका में अक्सर डूब जाते हैं, उसका ईमानदारी से पालन करने लगते हैं और इसीलिये कभी गोरक्षकों को फटकार देते हैं तो कभी दलितों के लिये आंसू बहा देते हैं। अन्यथा, वास्तविकता यह है कि यदि वे यह सब नाटक न करें तो उनका समूचा पाखंड शास्त्री पंडित की बातों की तरह कोरी वितृष्णा के अलावा और कुछ भी पैदा नहीं करेगा।

हम यहां उड्डलक मुखर्जी की इस रिपोर्ट को अपने मित्रों से साझा कर रहे हैं -

http://www.telegraphindia.com/1160825/jsp/opinion/story_104209.jsp#.V76VYqbyAgo.email



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