—अरुण माहेश्वरी
यह एक भारी दुष्चक्र है । संकट है अर्थ-व्यवस्था के संकुचन का, जीडीपी में वृद्धि की दर में गिरावट का, मंदी का और हमारे प्रधानमंत्री इसका समाधान ढूंढ रहे हैं स्वतंत्र बाजार के नियमों में, देशी-विदेशी पूंजी को खुल कर खेलने देने के अवसरों में, खास तौर पर विदेशी पूंजी के वर्चस्व को और ज्यादा बढ़ाने में !
मोदी यह समझना नहीं चाहते कि भारत में सिर्फ निवेश की कमी के कारण से समस्या पैदा नहीं हुई है । निवेश में कमी आई है मांग में कमी की वजह से और मांग में अचानक भारी कमी का कारण है वे खुद, जिन्होंने परिवारों के स्त्री धन तक पर डाका डाल कर पूरी आबादी की न्यूनतम आर्थिक स्थिरता को जड़ों से हिला दिया है। कृषि संकट जो पहले से था, उसे और भी गहरा कर दिया है। जो उद्योग और कारोबार सिर्फ उम्मीद के बल पर अपनी गाड़ी खींच रहे थे, उन्हें नोटबंदी और फिर जीएसटी के दो झटकों ने पूरी तरह से पटरी से उतार दिया हैं। इसका सीधा असर बैंकों के एनपीए (डूबत) पर हुआ है। कोई भविष्य न दिखाई देने, और नये दिवालिया कानून की सुविधा के चलते व्यक्तिगत रूप से किसी परेशानी में न पड़ने की स्थिति में पहले ही हाथ खड़ा कर देने में सबकों अपनी भलाई दिखाई देने लगी । एनपीए की समस्या यूपीए के समय भी थी, लेकिन सारे उद्योग फिर से खड़े हो जाने के किसी न किसी नये अवसर की आस में गाड़ी खींच रहे थे । मोदी ने आते ही, बिना सोचे समझे पूंजीपतियों को भय-मुक्त करने के लिये छप्पन इंच की छाती के जोर पर भारी उत्साह में जो दिवालिया संहिता (The Insolvency and Bankruptcy Code, 2016) लागू की और उतने ही जोश से बैंकों के बैलेंसशीट को शुद्ध करने का जो अभियान शुरू किया, उसका परिणाम हुआ कि बैंकों के एनपीए में तेजी से उछाल आया । उद्योगपतियों ने उद्योगों को चंगा करने की कोशिश के बजाय इस नई संहिता की ओट में पतली गली से निकल पड़ना ही श्रेयस्कर समझ लिया है ।
एक ऐसी परिस्थिति में मोदी के नोटबंदी के तुगलकीपन ने वास्तव अर्थ में अर्थ-व्यवस्था के लिये जहर का काम किया । बाजार में मांग में एक साथ इतनी तेजी से गिरावट आई कि चारो ओर मंदी का वातावरण छा गया । इससे रोजगारों और मुद्रा-स्फीति पर भी प्रभाव पड़ना शुरू हुआ, जो आज मंदी को और ज्यादा बढ़ाने वाले दुष्चक्र की तरह काम कर रहा है । 1929 की महामंदी के बाद जॉन मेनार्ड केन्स ने मंदी के बारे में बहुत ही सही समझ दी थी कि मंदी में फंस चुकी अर्थ-व्यवस्था के व्यवहार को साधारण मांग और आपूर्ति के नियमों से कभी भी व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है । तथ्यों के जरिये उन्होंने दिखाया था कि बाजार में मांग की कमी से मालों की बहुतायत होने पर भी यह जरूरी नहीं होता है कि उससे चीजों के दाम गिर जायेंगे, अर्थात मुद्रा स्फीति कम हो जायेगी । उल्टे स्टाक रह जाने के चलते जो कारोबार पर अतिरिक्त खर्च का बोझ पड़ता है, उसी के कारण से मुद्रा स्फीति कम होने के बजाय बढ़ने लगती है । इसीलिये केन्स की यह साफ राय थी कि मंदी से पैदा होने वाली आर्थिक समस्याओं का समाधान कभी भी शुद्ध रूप से बाजार की शक्तियों के भरोसे नहीं पाया जा सकता है । मंदी से निकलने का एकमात्र तरीका है सरकार की ओर से आम लोगों में खरीद की शक्ति बढ़ाने, क्रेता को संकट के भाव से मुक्त करने के लिये अतिरिक्त प्रयास । अर्थात सरकारी खर्चों, सरकारी निवेश को बढ़ा कर नौकरियों आदि को बढ़ाने की अतिरिक्त कोशिशें । इन्हें यदि पूरी तरह से बाजार के भरोसे छोड़ दिया जायेगा तो कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि निजी पूंजीपति कभी भी आम लोगों की भलाई के लिये काम नहीं करते । आज के रोजगार-विहीन विकास के काल में वे अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल ऑटोमेशन के जरिये ज्यादा से ज्यादा लोगों की छंटनी के लिये करेंगे । निजी पूंजीपति का स्वार्थ उसे कभी भी खुद के नफे-नुकसान से आगे देखने की अनुमति नहीं देता है ।
दुनिया भर में आर्थिक मंदी से निपटने के इन तमाम अनुभवों के बावजूद पूंजीवादी सरकारें उस समय तक खुद अपनी भूमिका निभाने के लिये नहीं उतरती है, जब तक पानी सर के ऊपर से नहीं बहने लगता है । मोदी के इस काल में तो पानी सर के ऊपर से बहने भी लगा है, लेकिन सरकार जनता की सुध लें उसके पहले ही वित्त मंत्रालय को घेर कर बैठे हुए विश्व बैंक, आईएमएफ के तमाम लोग और कॉरपोरेट दुनिया के दलाल इसके दबाव में पहले अपना अर्थात देशी-विदेशी पूंजीपतियों का उल्लू सीधा कर लेना चाहते हैं ।
इतने दिनों बाद, कल मोदी जी को आगामी बजट के पहले अर्थशास्त्रियों से सलाह मशविरा करने की सूझी और जमा किये गये सब अर्थशास्त्रियों ने उम्मीद के अनुरूप ही सरकार को यह सख्त हिदायत दी कि वह वित्तीय घाटे को किसी भी कीमत पर न बढ़ने दे । अर्थात मंदी से निकलने के लिये सबसे बड़े और कारगर उपाय, सरकार के खर्च और निवेश में वृद्धि का रास्ता न अपनाए । इन सबकी हमेशा यह साधारण दलील होती है कि यदि वित्तीय घाटा एक सीमा को पार करेगा तो मूडीज, स्टैंडर्ड पूअर्स की तरह की क्रेडिट रेटिंग कंपनियां भारत की रेटिंग को गिरा देगी जिससे विदेशी निवेश गिर जायेगा ।
वैसे ही देशी निवेश नहीं हो रहा है, ऊपर से विदेशी निवेश भी गिर जाए ! मोदी की छप्पन इंच की छाती में उतना जोखिम उठाने की अब हिम्मत नहीं बची है । वे जो हिम्मत साधारण लोगों के धन को निकालने के मामले में दिखा सकते थे, वह हिम्मत बड़े-बड़े पूंजीशाहों के मामले में दिखाने की हैसियत नहीं रखते हैं ।
इसीलिये अब एफडीआई के मामले में छूट का सिलसिला शुरू हो गया है । चंद रोज पहले ही एपल कंपनी का एक प्रतिनिधि-मंडल जेटली जी से मिल कर गया था । इसी प्रकार दूसरी बड़ी-बड़ी कंपनिया भी भारत के बाजार पर गिद्ध दृष्टि लगाये हुए हैं । कल सिंगल ब्रांड के मामले में 100 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति दे दी गई है । यहां तक कि पहले उन पर जो बाध्यता थी कि उन्हें बेचने के लिये कम से कम 30 प्रतिशत सामानों को स्थानीय बाजार से खरीदना पड़ेगा, उसमें भी अब पांच साल तक की छूट दे दी है ।
इसी संदर्भ में कल एक बड़ा कदम निर्माण के क्षेत्र में उठाया गया है । इस क्षेत्र में दलाली का काम करने वाली कई विदेशी कंपनियां सक्रिय है । अब उनके मामले में भी सौ फीसदी एफडीआई की छूट दी गई है । जो भी इन क्षेत्रों की सच्चाइयों से वाकिफ हैं, वे यह जानते हैं कि इन विदेशी दलाल कंपनियों ने इसी बीच अपने-अपने निवेश के फंड भी तैयार कर लिये हैं । अब वे शुद्ध दलाली के बजाय निर्माण के क्षेत्र में निवेश के जरिये भी भारत से मुनाफा बटोर कर पूरा मुनाफा विदेश भेजेंगे और उन्हें कोई रोक नहीं पायेगा । इसी प्रकार, मंदी के दबाव में यह सरकार कंपनी कानूनों में भी कॉरपोरेट के हितों को साधने के लिये कई संशोधन किये हैं ।
आज कोई इस बात की जांच नहीं कर रहा है कि भारत में अचानक इतनी बड़ी मंदी आई कैसे ? नोटबंदी के प्रभाव को इस जांच से बाहर रख कर उससे सही शिक्षा लेने के रास्ते ही बंद कर दिये जा रहे हैं । पहले से सरकार से डरे हुए आम लोगों को एफआरडीआई कानून की चर्चा से और ज्यादा डरा दिया जा रहा है । सरकार के आश्वासनों के बावजूद मोदी जी के दंभ और दुस्साहस की अवधारणा के कारण किसी को इनकी बातों पर भरोसा नहीं हो रहा है । इसके चलते मंदी के इस काल में लोग सोना चांदी में अपनी बचत को फिर से निवेशित करने लगे हैं, जो हाल के जीडीपी के क्षेत्रवार आंकड़ों से भी जाहिर हुआ है ।
हमारी यह दृढ़ राय है कि जब तक आम लोगों का पूरी तरह भयमुक्त नहीं किया जाता है, अर्थ-व्यवस्था को मंदी से निकालना असंभव है । इसकी पहली राजनीतिक जरूरत है कि भारत के वित्त पर कुंडली मार कर बैठी मोदी-जेटली जोड़ी को वहां से हटाया जाए । भारत की अर्थ-व्यवस्था को चंगा करने के लिये ही यह जरूरी हो गया है कि मोदी सरकार का जल्द से जल्द अंत हो ।
यह एक भारी दुष्चक्र है । संकट है अर्थ-व्यवस्था के संकुचन का, जीडीपी में वृद्धि की दर में गिरावट का, मंदी का और हमारे प्रधानमंत्री इसका समाधान ढूंढ रहे हैं स्वतंत्र बाजार के नियमों में, देशी-विदेशी पूंजी को खुल कर खेलने देने के अवसरों में, खास तौर पर विदेशी पूंजी के वर्चस्व को और ज्यादा बढ़ाने में !
मोदी यह समझना नहीं चाहते कि भारत में सिर्फ निवेश की कमी के कारण से समस्या पैदा नहीं हुई है । निवेश में कमी आई है मांग में कमी की वजह से और मांग में अचानक भारी कमी का कारण है वे खुद, जिन्होंने परिवारों के स्त्री धन तक पर डाका डाल कर पूरी आबादी की न्यूनतम आर्थिक स्थिरता को जड़ों से हिला दिया है। कृषि संकट जो पहले से था, उसे और भी गहरा कर दिया है। जो उद्योग और कारोबार सिर्फ उम्मीद के बल पर अपनी गाड़ी खींच रहे थे, उन्हें नोटबंदी और फिर जीएसटी के दो झटकों ने पूरी तरह से पटरी से उतार दिया हैं। इसका सीधा असर बैंकों के एनपीए (डूबत) पर हुआ है। कोई भविष्य न दिखाई देने, और नये दिवालिया कानून की सुविधा के चलते व्यक्तिगत रूप से किसी परेशानी में न पड़ने की स्थिति में पहले ही हाथ खड़ा कर देने में सबकों अपनी भलाई दिखाई देने लगी । एनपीए की समस्या यूपीए के समय भी थी, लेकिन सारे उद्योग फिर से खड़े हो जाने के किसी न किसी नये अवसर की आस में गाड़ी खींच रहे थे । मोदी ने आते ही, बिना सोचे समझे पूंजीपतियों को भय-मुक्त करने के लिये छप्पन इंच की छाती के जोर पर भारी उत्साह में जो दिवालिया संहिता (The Insolvency and Bankruptcy Code, 2016) लागू की और उतने ही जोश से बैंकों के बैलेंसशीट को शुद्ध करने का जो अभियान शुरू किया, उसका परिणाम हुआ कि बैंकों के एनपीए में तेजी से उछाल आया । उद्योगपतियों ने उद्योगों को चंगा करने की कोशिश के बजाय इस नई संहिता की ओट में पतली गली से निकल पड़ना ही श्रेयस्कर समझ लिया है ।
एक ऐसी परिस्थिति में मोदी के नोटबंदी के तुगलकीपन ने वास्तव अर्थ में अर्थ-व्यवस्था के लिये जहर का काम किया । बाजार में मांग में एक साथ इतनी तेजी से गिरावट आई कि चारो ओर मंदी का वातावरण छा गया । इससे रोजगारों और मुद्रा-स्फीति पर भी प्रभाव पड़ना शुरू हुआ, जो आज मंदी को और ज्यादा बढ़ाने वाले दुष्चक्र की तरह काम कर रहा है । 1929 की महामंदी के बाद जॉन मेनार्ड केन्स ने मंदी के बारे में बहुत ही सही समझ दी थी कि मंदी में फंस चुकी अर्थ-व्यवस्था के व्यवहार को साधारण मांग और आपूर्ति के नियमों से कभी भी व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है । तथ्यों के जरिये उन्होंने दिखाया था कि बाजार में मांग की कमी से मालों की बहुतायत होने पर भी यह जरूरी नहीं होता है कि उससे चीजों के दाम गिर जायेंगे, अर्थात मुद्रा स्फीति कम हो जायेगी । उल्टे स्टाक रह जाने के चलते जो कारोबार पर अतिरिक्त खर्च का बोझ पड़ता है, उसी के कारण से मुद्रा स्फीति कम होने के बजाय बढ़ने लगती है । इसीलिये केन्स की यह साफ राय थी कि मंदी से पैदा होने वाली आर्थिक समस्याओं का समाधान कभी भी शुद्ध रूप से बाजार की शक्तियों के भरोसे नहीं पाया जा सकता है । मंदी से निकलने का एकमात्र तरीका है सरकार की ओर से आम लोगों में खरीद की शक्ति बढ़ाने, क्रेता को संकट के भाव से मुक्त करने के लिये अतिरिक्त प्रयास । अर्थात सरकारी खर्चों, सरकारी निवेश को बढ़ा कर नौकरियों आदि को बढ़ाने की अतिरिक्त कोशिशें । इन्हें यदि पूरी तरह से बाजार के भरोसे छोड़ दिया जायेगा तो कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि निजी पूंजीपति कभी भी आम लोगों की भलाई के लिये काम नहीं करते । आज के रोजगार-विहीन विकास के काल में वे अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल ऑटोमेशन के जरिये ज्यादा से ज्यादा लोगों की छंटनी के लिये करेंगे । निजी पूंजीपति का स्वार्थ उसे कभी भी खुद के नफे-नुकसान से आगे देखने की अनुमति नहीं देता है ।
दुनिया भर में आर्थिक मंदी से निपटने के इन तमाम अनुभवों के बावजूद पूंजीवादी सरकारें उस समय तक खुद अपनी भूमिका निभाने के लिये नहीं उतरती है, जब तक पानी सर के ऊपर से नहीं बहने लगता है । मोदी के इस काल में तो पानी सर के ऊपर से बहने भी लगा है, लेकिन सरकार जनता की सुध लें उसके पहले ही वित्त मंत्रालय को घेर कर बैठे हुए विश्व बैंक, आईएमएफ के तमाम लोग और कॉरपोरेट दुनिया के दलाल इसके दबाव में पहले अपना अर्थात देशी-विदेशी पूंजीपतियों का उल्लू सीधा कर लेना चाहते हैं ।
इतने दिनों बाद, कल मोदी जी को आगामी बजट के पहले अर्थशास्त्रियों से सलाह मशविरा करने की सूझी और जमा किये गये सब अर्थशास्त्रियों ने उम्मीद के अनुरूप ही सरकार को यह सख्त हिदायत दी कि वह वित्तीय घाटे को किसी भी कीमत पर न बढ़ने दे । अर्थात मंदी से निकलने के लिये सबसे बड़े और कारगर उपाय, सरकार के खर्च और निवेश में वृद्धि का रास्ता न अपनाए । इन सबकी हमेशा यह साधारण दलील होती है कि यदि वित्तीय घाटा एक सीमा को पार करेगा तो मूडीज, स्टैंडर्ड पूअर्स की तरह की क्रेडिट रेटिंग कंपनियां भारत की रेटिंग को गिरा देगी जिससे विदेशी निवेश गिर जायेगा ।
वैसे ही देशी निवेश नहीं हो रहा है, ऊपर से विदेशी निवेश भी गिर जाए ! मोदी की छप्पन इंच की छाती में उतना जोखिम उठाने की अब हिम्मत नहीं बची है । वे जो हिम्मत साधारण लोगों के धन को निकालने के मामले में दिखा सकते थे, वह हिम्मत बड़े-बड़े पूंजीशाहों के मामले में दिखाने की हैसियत नहीं रखते हैं ।
इसीलिये अब एफडीआई के मामले में छूट का सिलसिला शुरू हो गया है । चंद रोज पहले ही एपल कंपनी का एक प्रतिनिधि-मंडल जेटली जी से मिल कर गया था । इसी प्रकार दूसरी बड़ी-बड़ी कंपनिया भी भारत के बाजार पर गिद्ध दृष्टि लगाये हुए हैं । कल सिंगल ब्रांड के मामले में 100 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति दे दी गई है । यहां तक कि पहले उन पर जो बाध्यता थी कि उन्हें बेचने के लिये कम से कम 30 प्रतिशत सामानों को स्थानीय बाजार से खरीदना पड़ेगा, उसमें भी अब पांच साल तक की छूट दे दी है ।
इसी संदर्भ में कल एक बड़ा कदम निर्माण के क्षेत्र में उठाया गया है । इस क्षेत्र में दलाली का काम करने वाली कई विदेशी कंपनियां सक्रिय है । अब उनके मामले में भी सौ फीसदी एफडीआई की छूट दी गई है । जो भी इन क्षेत्रों की सच्चाइयों से वाकिफ हैं, वे यह जानते हैं कि इन विदेशी दलाल कंपनियों ने इसी बीच अपने-अपने निवेश के फंड भी तैयार कर लिये हैं । अब वे शुद्ध दलाली के बजाय निर्माण के क्षेत्र में निवेश के जरिये भी भारत से मुनाफा बटोर कर पूरा मुनाफा विदेश भेजेंगे और उन्हें कोई रोक नहीं पायेगा । इसी प्रकार, मंदी के दबाव में यह सरकार कंपनी कानूनों में भी कॉरपोरेट के हितों को साधने के लिये कई संशोधन किये हैं ।
आज कोई इस बात की जांच नहीं कर रहा है कि भारत में अचानक इतनी बड़ी मंदी आई कैसे ? नोटबंदी के प्रभाव को इस जांच से बाहर रख कर उससे सही शिक्षा लेने के रास्ते ही बंद कर दिये जा रहे हैं । पहले से सरकार से डरे हुए आम लोगों को एफआरडीआई कानून की चर्चा से और ज्यादा डरा दिया जा रहा है । सरकार के आश्वासनों के बावजूद मोदी जी के दंभ और दुस्साहस की अवधारणा के कारण किसी को इनकी बातों पर भरोसा नहीं हो रहा है । इसके चलते मंदी के इस काल में लोग सोना चांदी में अपनी बचत को फिर से निवेशित करने लगे हैं, जो हाल के जीडीपी के क्षेत्रवार आंकड़ों से भी जाहिर हुआ है ।
हमारी यह दृढ़ राय है कि जब तक आम लोगों का पूरी तरह भयमुक्त नहीं किया जाता है, अर्थ-व्यवस्था को मंदी से निकालना असंभव है । इसकी पहली राजनीतिक जरूरत है कि भारत के वित्त पर कुंडली मार कर बैठी मोदी-जेटली जोड़ी को वहां से हटाया जाए । भारत की अर्थ-व्यवस्था को चंगा करने के लिये ही यह जरूरी हो गया है कि मोदी सरकार का जल्द से जल्द अंत हो ।
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