शनिवार, 5 मई 2018

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (33)


-अरुण माहेश्वरी
फायरबाख के आधिभौतिक भौतिकवाद से मुक्ति

(आज कार्ल मार्क्स के जन्म के 200 साल पूरे हो गये हैं । काफी दिनों के अंतराल पर फिर एक बार हम मार्क्स के जीवन के बारे में अपने प्रकल्प पर लौट रहे हैं, जिसे हमने उनके द्विशताब्दी वर्ष के प्रारंभ में शुरू करने का बीड़ा उठाया था । हमने इसकी कई किश्ते लिखी, लेकिन नाना कारणों से यह आठ महीने पहले बीच में ही छूट गया । इसके मूल में इस विषय की अपनी विशेष जरूरतों का एक दबाव भी रहा, जिसे हम पूरी तरह से व्याख्यायित नहीं कर सकते हैं । किसी भी लेखन के साथ लेखक के अपने संतोष-असंतोष का सवाल अनिवार्य तौर पर जुड़ जाता है। जो भी हो, देखते-देखते पूरा साल बीत गया । अब फिर हम मार्क्स के 201वें जन्मदिन से इसे आगे बढ़ाने की कोशिश करना चाहते हैं। इतने दिनों के अंतराल के बाद एक ऐसे लेखन से तालमेल बैठा पाना किसी भी पाठक के लिये कितना कठिन हो सकता है, इसे हम समझ सकते हैं । इसके लिये हम सभी पाठकों से क्षमा-प्रार्थी है । अंतिम किश्त 13 अगस्त के दिन जारी की गई थी । इसके बाद दिल्ली प्रवास की मजबूरी और दूसरे तात्कालिक विषयों के दबाव को न टाल पाने की अपनी प्रकृति के कारण भी इस जरूरी काम में व्यवधान आते गये । हमारा लिखना तो बदस्तूर पुरदम जारी रहा, लेकिन यही विषय छूटता चला गया । अब फिर एक बार, कुछ और तैयारियों के साथ साहस जुटा कर इस काम को शुरू कर रहा हूँ । आगे और व्यवधानों की संभावनाओं से इंकार नहीं कर सकता, लेकिन यथासंभव कोशिश रहेगी कि भले रुक रुक कर ही क्यों न हो, यह काम जारी रहे । बूंद-बूंद से ही समुद्र नहीं तो घड़ा ही भर जाए तो वह शायद कुछ काम का साबित हो जाए । )

पिछली किश्त में हम मार्क्स-एंगेल्स की कृति 'पवित्र परिवार' के बारे में चर्चा कर रहे थे । मार्क्स की सर्वहारा विश्वदृष्टि की आधारशिला को तैयार करने में इस कृति की एक अहम भूमिका थी । फिर भी यह मार्क्स के विचारों के पूरे महल के निर्माण में एक प्रकार का नींव का पत्थर ही थी । अभी इस पर उनकी इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा का और वैज्ञानिक साम्यवाद के मूलभूत सिद्धांतों का निरूपण होना बाकी था । अब तक भी मार्क्स, एंगेल्स अपने पूर्वजों, जिन्हें कहा जा सकता है अपने गुरुओं के प्रभाव के दायरे से निकल कर अपनी स्वतंत्र विश्व-दृष्टि को प्राप्त करने से काफी दूर थे । अभी वे पुराने प्रभावों से मुक्ति के लिये जूझ रहे थे ताकि विचार के अपने नये वृत्त में प्रवेश कर सके । अब भी अपने और पूर्ववर्ती सिद्धांतकारों के बीच के फर्क की सीमा-रेखा निर्धारित नहीं कर पाए थे । इनमें खास तौर पर हम फायरबाख का उल्लेख कर सकते हैं। फायरबाख के पुराने प्रकार के भौतिकवादी दर्शन की कमजोरियों से मार्क्स, एंगेल्स मुक्त नहीं हो पाये थे इसीलिये वे अपने को फायरबाख का अनुयायी और उनके अर्वाचीन विचारों के 'सच्चे मानवतावादी' समर्थक कहा करते थे ।
लुडविग फायरबाख

लेकिन यह सच है कि इसके साथ ही वे मूलगामी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी विचारों की दिशा में, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की दिशा में कदम बढ़ा चुके थे । उनके द्वारा प्रयुक्त पदावली में नये अर्थ दिखाई देने लगे थे । बहुत तेजी के साथ उनमें पहले के भौतिकवाद के आधिभौतिक चरित्र और उसकी आंतरिक असंगतियों के प्रति असंतोष दिखाई देने लगा था ।

'भौतिकवाद का आधिभौतिक चरित्र' ! अर्थात प्रकृति की प्राथमिकता को इस हद तक निर्णायक मान लेना जिसमें चेतना की कोई भूमिका ही न रहे, ईश्वरीय नियतिवाद का ही प्रतिरूप — प्रकृति-पूजा का नियतिवाद !

हमारे भारतीय दार्शनिक अभिनवगुप्त बिल्कुल इसी बिंदु पर अपने को सांख्य दर्शन के प्रकृतिवाद से अलग करते हैं और सांख्य दर्शन को विज्ञान-शून्य कहते हैं । उन्होंने लिखा कि क्षोभ के उदय होने से ही विभिन्न कार्यों का उदय होता है । बिना वैषम्य आये, कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि कारण ही उत्पन्न नहीं रहता। जड़ कारण क्षोभ के बिना कार्यान्तर की उत्पत्ति नहीं कर सकता । अतः उनके अनुसार सीधे प्रकृति से उत्पत्ति मानना बुद्धिमानी नहीं है और इसीलिये उन्होंने अपने तंत्रालोक में साफ शब्दों में कहा कि सांख्य दर्शन का गुणों की उत्पत्ति का सिद्धांत इस विज्ञान से शून्य हैं ।
“क्षुब्धात प्रधानात कर्त्तव्यान्तरोदयः । न अक्षुब्धादिति । क्षोभः अवश्यमेव अन्तराले अभ्युपगन्तव्य इति सिद्धं सांख्यापरिदृष्टं पृथरभूतं गुणतत्वम् ।” (तंत्रसारः, अष्टममाह्निकम्, द्वितीय खंड, चौखंभा सुरभारती प्रकाशन, पृष्ठ — 36-37)

फायरबाख के चिंतन में इसी क्षोभ के तत्व की, द्वंद्वात्मकता की अनुपस्थिति के कारण मार्क्स उनके काल्पनिक चिंतन और सर्वहारा के यथार्थ दृष्टिकोण के बीच के मूलभूत फर्क को देखने लगे थे । 1845 के अप्रैल में मार्क्स ने “ फायरबाख पर थिसिस“ शीर्षक अपने दो पन्ने के नोट में फायरबाख के दार्शनिक विचारों पर कटु विचार व्यक्त किये थे । उनके इस नोट को वस्तुतः फायरबाख से उनकी स्वतंत्रता का घोषणापत्र कहा जा सकता है ।

इसके पहले कि हम 'पवित्र परिवार' के कुछ खास पक्षों, मार्क्स की खंडन-मंडन की अनोखी शैली पर ठोस रूप से गौर करे, हमें अपने गुरुओं से मुक्ति की श्रृंखला में ब्रुनो बावर के साथ मार्क्स के संबंधों की पृष्ठभूमि पर कुछ विस्तार से विचार करना उचित लगता है । इससे उनके स्वतंत्र चिंतक के रूप में निर्माण के प्रारंभिक बिंदुओं की हमें और भी अच्छी समझ हासिल हो सकती है । अभिनवगुप्त कहते हैं कि साधक का शाम्भवयोग, अर्थात उसका स्वयं शिव में रूपांतरण तभी संभव है जब वह गुरुमंत्रों के जाप (आणवयोग) और ज्ञान की विभिन्न धाराओं से प्रभाव ग्रहण करता हुआ (शाक्तयोग) से आगे बढ़ कर सीधे अपने शिव से संबंध जोड़ लेता है (शांभवयोग) । उसके बाद मंत्रों का जाप या पूजा-पाठ अथवा कोरी पुनरुक्ति उसे जहर समान लगने लगते हैं । इसीलिये जरूरी है कि मार्क्स के निर्माण का कोई भी आख्यान उनकी अपने गुरुओं से मुक्ति की प्रक्रिया के आख्यान को छोड़ कर नहीं लिखा जा सकता है ।

बहरहाल, बर्लिन में प्रवास के काल में डाक्टर्स क्लब की बैठकबाजियों में ब्रुनो बावर के साथ मार्क्स की मुलाकातों पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं । 1839 से 1841 के बीच जब मार्क्स अपने शोध पत्र की तैयारियां कर रहे थे, उस समय ब्रुनो बावर उनके सबसे करीबी मित्र और सलाहकार हुआ करते थे । बाइबल की मूलगामी आलोचना और हेगेल के दार्शनिक विचारों के प्रति एक समझौताहीन धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण की वजह से उन दिनों वे काफी लोकप्रिय हो चुके थे । मार्क्स से उनकी जब मुलाकात हुई तब वे बर्लिन विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र के विभाग में अस्थायी लेक्चरर थे । मार्क्स ने 1836 में उनके लेक्चर सुने थे । डाक्टर्स क्लब में तो मुलाकात थी ही ।

ब्रुनो बावर

बावर को 1839 में कुछ छुद्र धर्मशास्त्रियों की आलोचना करने की वजह से बर्लिन विश्वविद्यालय से हटा कर बॉन भेज दिया गया था । मार्क्स ने 1841 के अप्रैल महीने में अपना शोध पत्र जमा कराके बॉन में बावर से मिले थे । लेकिन 1842 में बावर को बॉन विश्वविद्यालय से भी हटा दिया गया और इसके साथ ही मार्क्स की भी शिक्षा जगत में जाने की संभावना खत्म हो गई । बावर वापस बर्लिन लौट गये और मार्क्स कोलोन शहर में आए जहां चंद रोज पहले ही शुरू हुए अखबार ह्राइनेशे ताइतुंग (Rheinische Zeitung) 'ह्राइनिश समाचार पत्र' से जुड़ गये ।

इस काल में प्रशिया के राजा की मृत्यु के बाद अनुदारवादियों का दबदबा बढ़ा हुआ था और इसीलिये राजनीति के क्षेत्र में तीखी वैचारिक टकराहटें दिखाई दे रही थी । मार्क्स ह्राइनेशे ताइतुंग के जरिये उस दौर के राजनीतिक विचारधारात्मक संघर्ष में पूरे उत्साह से शामिल हो गये । और इसके साथ ही शैक्षणिक दुनिया से दूर मार्क्स एक तीखी दृष्टि संपन्न राजनीतिक टिप्पणीकार के रूप में उभर कर सामने आ गये । शैक्षणिक जगत पीछे छूट गया ।

जहां तक बावर का सवाल है, 1839 के बाद से ही मार्क्स को लिखे गये उनके पत्रों से पता चलता है कि उन्होंने अपने से मार्क्स के अभिभावक की भूमिका अपना ली थी । दिसंबर 1939 में मार्क्स को लिखे अपने  एक पत्र में वे मार्क्स की लेखनी के तीखे तेवरों को देख कर यह चिंता जाहिर कर रहे थे कि कहीं मार्क्स एक प्रकार के बुद्धि-विलासी न बन जाए । वे हेगेल की कृति 'साइंस आफ लॉजिक' में प्राणी-सत्ता से सार-तत्व में संक्रमण की बात में दोष की चर्चा करते हुए साथ में यह सलाह भी दे रहे थे कि पहले तुम अपने शोध-प्रबंध के काम को पूरा कर लो । जब मार्क्स ने अपना शोध-प्रबंध जमा किया, तब भी बावर ने उनसे कहा था कि वह अपने किसी भी चीज को देख कर नाहक उत्तेजित न हो । मार्क्स ने 6 अप्रैल 1839 को अपना शोध-पत्र जमा करते हुए दर्शन विभाग के डीन से एक पत्र में निवेदन किया था कि उनके प्रबंध की जांच में विलंब न किया जाए । मजे की बात यह रही कि 6 अप्रैल को मार्क्स के जमा करने के नौ दिनों बाद ही, 15 अप्रैल को मार्क्स को विभाग की ओर से डाक्टरेट का डिप्लोमा भेज दिया गया ।

उन दिनों मार्क्स पर बावर का प्रभाव इस तथ्य से जाहिर होता है कि अपने शोध प्रबंध के प्राक्कथन में उन्होंने दर्शनशास्त्र के हवाले से लिखा था कि वह उन सभी स्वर्ग के और धरती के देवताओं से नफरत करता है जो “मानवीय आत्म-चेतना को सबसे बड़ा ईश्वरीय वरदान के रूप में देखने से इंकार करते हैं ।” (MECW, Vol.1. page – 30)
(Philosophy makes no secret of it. The confession of Prometheus — In simple words, I hate the pack of gods (Aeschylus, Prometheus Bound).— is its own confession, its own aphorism against all heavenly and earthly gods who do not acknowledge human self-consciousness as the highest divinity.)

हेगेल के बारे में बावर के अध्ययन इसी 'आत्म चेतना' पद का एक केंद्रीय स्थान था । बावर जिसे 'विशिष्टता' अथवा 'सार्वलौकिकता' को हासिल करने की प्रक्रिया कहते हैं उसमें यह आत्म ही विशेष और सार्वलौकिकता के बीच की द्वंद्वात्मक खाई को धारण करता है । यह आदमी की एक प्रकार की तन्मयता है, जिसमें खास ही सार्वलौकिकता का रूप ले लेता है । मननशील व्यक्ति ही उन गुणों को आयत्त कर पाता है जिसे हेगेल एक प्रकार का परम भाव (absolute spirit) कहते हैं । एक तन्मयीभाव, महाभाव । बावर ने जिसे आत्म चेतना का अनंत विकास कहा था उसमें बाह्य ऐतिहासिक यथार्थ की प्रगति भी व्यक्त होने लगती है जिसे व्यक्ति अपनी उपलब्धि समझने लगता है । हमारे यहां अनुभवगुप्त इस तन्मयीभाव को कैवल्य (एक निश्चय) को अधिगत करने का महाप्रयास कहते हैं (विद्याधिपते, अनुभवस्तोत्रे महान संरम्भः) और कहते हैं कि बिना किसी दुराग्रह के इसके अनुरूप आचरण करना चाहिए, निश्चय करना ही निरूढ़ि है।(एवं विधे यागादौ योगान्ते च पञ्चके प्रत्येकं बहु प्रकारं निरूढ़िः यथा यथा भवति तथैव आचरेत्)

बहरहाल, बावर की इस 'आत्म चेतना' की अवधारणा में खुद को हेगेल से अलग दिखाने की उनकी महत्वाकांक्षा भी काम कर रही थी । हेगेल के चिंतन के इसी पहलू की वजह से संरक्षणवादी हेगेलपंथी मानते थे कि हेगेल के चिंतन में एक अलौकिक ईश्वर का स्थान बना हुआ था । बावर ने उनकी स्थिति को याद करते हुए 1840 में लिखा था कि “हेगेल के शिष्य विचारों के साम्राज्य में एक अनश्वर ईश्वर की तरह के किसी पिता की छाया में रह रहे थे । इन विचारों को उनके गुरु ने उन्हें विरासत में सौंपा था ।”   (Bruno Bauer, The Trumpet of last judgement against Hegel the atheist and anti-Christ, An Ultimatum, Lawrence Stepelevich, Lewisten, Edwin Mellen Press,1989, (1841), page- 189-190 ; Stedmen Jones,  उपरोक्त – page – 92-92)

(क्रमशः)     

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