—अरुण माहेश्वरी
डा. अशोक मित्रा हमारे बीच नहीं रहे । आज सुबह कोलकाता के एक अस्पताल में 90 साल की आयु में लंबी बीमारी के बाद उनका देहांत हो गया ।
डा. मित्रा का जाना अपनी मनीषा में एक अर्थशास्त्री, राजनेता, वैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्यकार, पत्रकार, स्तंभकार से लेकर मजदूर और किसान तक के मनोभावों को एक साथ जीने और उन्हें बेलाग और प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने वाले हमारे समय के एक प्रमुख सार्वजनिक बुद्धिजीवी के जाने की तरह है । उनके पास यदि पुस्तकों से मिले ज्ञान का अकूत खजाना था तो 'कविता से लेकर जुलूस तक' पसरे हुए जीवन के आवेग और उच्छल उत्साह की भी कोई कमी नहीं थी । अपने समय के प्रत्येक महत्वपूर्ण विषय पर अपनी बात को पूरे अधिकार के साथ कहने में वे जरा भी विलंब नहीं करते थे । अपनी पुस्तक ‘Terms of Trade and Class Relations (1977)’ को, जिसे हिंदी में मैकमिलन ने 'विनिमय की शर्तें और वर्ग संबंध'(1982) शीर्षक से प्रकाशित किया था, उन्होंने उन लोगों को समर्पित किया था 'जिन्होंने आस्था नहीं खोई' ।
उनकी यह पुस्तक सत्तर के दशक के उस जमाने में परंपरागत अर्थशास्त्रीय चर्चाओँ को उसकी रूढ़िबद्धता से निकालने की एक महत्वपूर्ण कोशिश थी । आज के समय के सबसे लोकप्रिय अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने जिस प्रकार आय और संपत्ति के बटवारे में गैर-बराबरी के विषय को अभी अर्थशास्त्र के केंद्र में स्थापित करने का महत्वपूर्ण काम किया है, हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि डा. मित्र ने तभी अपनी उस पुस्तक में इस बात को स्थापित किया था कि परिसंपत्ति और आय के वितरण में असमानता के सवाल को केंद्र में बिना रखे अर्थनीति संबंधी चिंतन निर्रथक है । उन्होंने बाजार के दोषों को उजागर करते हुए यह कहा था कि वह अर्थनीति की समस्याओं की कोई रामवाण दवा नहीं है । बाजार-पूजक अर्थशास्त्र पर उनका आरोप था कि उनके यहां यह सवाल उठाना भी निषिद्ध है कि आखिर बाजार में मांग के अवयव क्या है । मांग का चरित्र भी समाज की वर्गीय सचाई को, जनता की क्रय शक्ति और उनकी आर्थिक स्थिति को जाहिर करता है । वर्गों में विभाजित समाज विक्रेता और क्रेता में विभाजित समाज होता है । किसी की क्रय शक्ति का ज्यादा और किसी का कम होना अकारण नहीं होता है । मालों की कीमतें आय के वितरण का साधन है और कीमतों में वृद्धि हमेशा विक्रेताओं के पक्ष में आय में वृद्धि को सुनिश्चित करती है ।
ऐसे तमाम मानकों पर सरकारी नीतियों को परखने के कारण ही डा. अशोक मित्र की तरह के अर्थशास्त्री सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बने रहने के बावजूद प्रतिष्ठानों को जड़ होकर मृत होने से बचाने के कारक की भूमिका अदा करते रहे और इस प्रकर तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी नाउम्मीदी को निराशा के बजाय एक अलग प्रकार के साहस में बदलने की भूमिका अदा करते रहे ।
डा. मित्रा विश्व बैंक, भारत सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकारों के अलावा 1977 में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार के गठन के बाद शुरू के सबसे उपलब्धिपूर्ण दस साल तक पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री और बाद में राज्य सभा के सांसद भी रहे । लेकिन यह सच है कि प्रशासनिक संस्थानों से इतने लंबे जुड़ाव के बावजूद डा. मित्रा के चिंतन पर सांस्थानिक जड़ता कभी हावी नहीं हुई, बल्कि वे उन विरल लोगों में थे जिनके जरिये संस्थाएं भी अपनी गतिशीलता को बनाये रखती है । आज जब हम भारत की संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा की बात करते हैं तो यह डा. मित्रा की तरह के लोगों का ही कर्त्तृत्व है जो आज तक इनकी सामाजिक प्रासंगिकता को किसी न किसी रूप में बनाये हुए हैं ।
डा. मित्रा नियमित और विपुल लिखने वाले अर्थशास्त्री और लेखक थे । कोलकाता के सबसे लोकप्रिय आनंदबाजार समूह के अखबार, 'आनंदबाजार पत्रिका' और 'टेलिग्राफ' के पृष्ठों पर वर्षों तक उनके लेख प्रकाशित होते रहे । उनका स्तंभ 'कलकत्ता की डायरी' तो इतना लोकप्रिय हुआ था कि उसके लेखन को पुस्तकाकार में भी काफी सम्मान और चाव के साथ पढ़ा जाता है । भारत में आर्थिक-सामाजिक विषयों की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका 'इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली ' के भी वे काफी वर्षों तक नियमित लेखक और स्तंभकार रहे । अंग्रेजी और बांग्ला, दोनों भाषाओं में उनकी पैठ के तो उनके वैचारिक विरोधी भी मुरीद रहे हैं । हम भी उन सौभाग्यशालियों में थे जिन्हें उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने और उनके साथ विचार-विमर्श करने के कुछ अवसर मिले थे।
डा. मित्रा इधर के दो-चार सालों से काफी बीमार चल रहे थे, इसीलिये समसामयिक विषयों पर उनकी टिप्पणियां पढ़ने को नहीं मिल रही थी । अभी के कठिन समय में उनके जैसे एक प्रखर बुद्धिजीवी का चला जाना निश्चित तौर पर भारत के बौद्धिक जगत की एक बड़ी क्षति है । डा. मित्रा की पत्नी गौरी का निधन दस साल पहले ही हो गया था । आज उनकी स्मृतियों के प्रति हम गहरी श्रद्धा के भाव से नमन करते हैं ।
डा. अशोक मित्रा हमारे बीच नहीं रहे । आज सुबह कोलकाता के एक अस्पताल में 90 साल की आयु में लंबी बीमारी के बाद उनका देहांत हो गया ।
डा. मित्रा का जाना अपनी मनीषा में एक अर्थशास्त्री, राजनेता, वैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्यकार, पत्रकार, स्तंभकार से लेकर मजदूर और किसान तक के मनोभावों को एक साथ जीने और उन्हें बेलाग और प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने वाले हमारे समय के एक प्रमुख सार्वजनिक बुद्धिजीवी के जाने की तरह है । उनके पास यदि पुस्तकों से मिले ज्ञान का अकूत खजाना था तो 'कविता से लेकर जुलूस तक' पसरे हुए जीवन के आवेग और उच्छल उत्साह की भी कोई कमी नहीं थी । अपने समय के प्रत्येक महत्वपूर्ण विषय पर अपनी बात को पूरे अधिकार के साथ कहने में वे जरा भी विलंब नहीं करते थे । अपनी पुस्तक ‘Terms of Trade and Class Relations (1977)’ को, जिसे हिंदी में मैकमिलन ने 'विनिमय की शर्तें और वर्ग संबंध'(1982) शीर्षक से प्रकाशित किया था, उन्होंने उन लोगों को समर्पित किया था 'जिन्होंने आस्था नहीं खोई' ।
उनकी यह पुस्तक सत्तर के दशक के उस जमाने में परंपरागत अर्थशास्त्रीय चर्चाओँ को उसकी रूढ़िबद्धता से निकालने की एक महत्वपूर्ण कोशिश थी । आज के समय के सबसे लोकप्रिय अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने जिस प्रकार आय और संपत्ति के बटवारे में गैर-बराबरी के विषय को अभी अर्थशास्त्र के केंद्र में स्थापित करने का महत्वपूर्ण काम किया है, हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि डा. मित्र ने तभी अपनी उस पुस्तक में इस बात को स्थापित किया था कि परिसंपत्ति और आय के वितरण में असमानता के सवाल को केंद्र में बिना रखे अर्थनीति संबंधी चिंतन निर्रथक है । उन्होंने बाजार के दोषों को उजागर करते हुए यह कहा था कि वह अर्थनीति की समस्याओं की कोई रामवाण दवा नहीं है । बाजार-पूजक अर्थशास्त्र पर उनका आरोप था कि उनके यहां यह सवाल उठाना भी निषिद्ध है कि आखिर बाजार में मांग के अवयव क्या है । मांग का चरित्र भी समाज की वर्गीय सचाई को, जनता की क्रय शक्ति और उनकी आर्थिक स्थिति को जाहिर करता है । वर्गों में विभाजित समाज विक्रेता और क्रेता में विभाजित समाज होता है । किसी की क्रय शक्ति का ज्यादा और किसी का कम होना अकारण नहीं होता है । मालों की कीमतें आय के वितरण का साधन है और कीमतों में वृद्धि हमेशा विक्रेताओं के पक्ष में आय में वृद्धि को सुनिश्चित करती है ।
ऐसे तमाम मानकों पर सरकारी नीतियों को परखने के कारण ही डा. अशोक मित्र की तरह के अर्थशास्त्री सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बने रहने के बावजूद प्रतिष्ठानों को जड़ होकर मृत होने से बचाने के कारक की भूमिका अदा करते रहे और इस प्रकर तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी नाउम्मीदी को निराशा के बजाय एक अलग प्रकार के साहस में बदलने की भूमिका अदा करते रहे ।
डा. मित्रा विश्व बैंक, भारत सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकारों के अलावा 1977 में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार के गठन के बाद शुरू के सबसे उपलब्धिपूर्ण दस साल तक पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री और बाद में राज्य सभा के सांसद भी रहे । लेकिन यह सच है कि प्रशासनिक संस्थानों से इतने लंबे जुड़ाव के बावजूद डा. मित्रा के चिंतन पर सांस्थानिक जड़ता कभी हावी नहीं हुई, बल्कि वे उन विरल लोगों में थे जिनके जरिये संस्थाएं भी अपनी गतिशीलता को बनाये रखती है । आज जब हम भारत की संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा की बात करते हैं तो यह डा. मित्रा की तरह के लोगों का ही कर्त्तृत्व है जो आज तक इनकी सामाजिक प्रासंगिकता को किसी न किसी रूप में बनाये हुए हैं ।
डा. मित्रा नियमित और विपुल लिखने वाले अर्थशास्त्री और लेखक थे । कोलकाता के सबसे लोकप्रिय आनंदबाजार समूह के अखबार, 'आनंदबाजार पत्रिका' और 'टेलिग्राफ' के पृष्ठों पर वर्षों तक उनके लेख प्रकाशित होते रहे । उनका स्तंभ 'कलकत्ता की डायरी' तो इतना लोकप्रिय हुआ था कि उसके लेखन को पुस्तकाकार में भी काफी सम्मान और चाव के साथ पढ़ा जाता है । भारत में आर्थिक-सामाजिक विषयों की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका 'इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली ' के भी वे काफी वर्षों तक नियमित लेखक और स्तंभकार रहे । अंग्रेजी और बांग्ला, दोनों भाषाओं में उनकी पैठ के तो उनके वैचारिक विरोधी भी मुरीद रहे हैं । हम भी उन सौभाग्यशालियों में थे जिन्हें उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने और उनके साथ विचार-विमर्श करने के कुछ अवसर मिले थे।
डा. मित्रा इधर के दो-चार सालों से काफी बीमार चल रहे थे, इसीलिये समसामयिक विषयों पर उनकी टिप्पणियां पढ़ने को नहीं मिल रही थी । अभी के कठिन समय में उनके जैसे एक प्रखर बुद्धिजीवी का चला जाना निश्चित तौर पर भारत के बौद्धिक जगत की एक बड़ी क्षति है । डा. मित्रा की पत्नी गौरी का निधन दस साल पहले ही हो गया था । आज उनकी स्मृतियों के प्रति हम गहरी श्रद्धा के भाव से नमन करते हैं ।
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