मंगलवार, 23 जुलाई 2019

विपक्ष के न होने के ख़तरें


-अरुण माहेश्वरी

आज भारत की समग्र राजनीतिक परिस्थितियाँ अनपेक्षित न होने पर भी कुछ अजीब सी बन चुकी है । वरिष्ठ मीडिया पत्रकार पुण्यप्रसून वाजपेयी इधर की अपनी कांग्रेस-केंद्रित निजी वार्ताओं में प्रकारांतर से इसी की चर्चा कर रहे हैं ।

परिस्थिति यह है कि मोदी तो खुद डूबेंगे ही, पर विकल्प का सवाल उससे कहीं ज़्यादा टेढ़ा बना हुआ है । कांग्रेस का मामला को बिल्कुल अबूझ होता जा रहा है । लेकिन अन्य दलों का मामला भी कम पेचीदा नहीं है ।

ऐसे में अगर आपको वैकल्पिक पथ की तलाश है तो सचमुच जनता पर ही इसका पूरी तरह से दारोमदार लगता है । पहली बार लग रहा है कि जनता की स्वत:स्फूर्तता राजनीतिक दलों के सचेत और संगठित नेतृत्व की तुलना में ज्यादा संभावनापूर्ण है । इसकी एक क्षणिक झलक भारत में कभी 1970 के ज़माने के जेपी आंदोलन में देखने को मिली थी। लगता है फिर एक बार कभी कुछ वैसा ही कोई नया राजनीतिक संयोग तैयार होगा । स्थानीय प्रतिवाद और विद्रोह राष्ट्र-व्यापी प्रतिरोध का स्वरूप ग्रहण करेंगे, क्योंकि आज कम से कम इतना तो साफ़ है कि मोदी से यहाँ की परिस्थितियाँ सँभलने वाली नहीं है ।

रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के उस भाषण की अभी काफी चर्चा है जिसमें उन्होंने विस्तार के साथ अर्थ-व्यवस्था की बीमारी के मूल में मोदी सरकार की फिजूलखर्चियों की बातें कही हैं । वे अपने भाषण में तथ्य देकर बताते हैं कि जीडीपी का सात प्रतिशत से अधिक तो सरकार खुद पर ख़र्च कर लेती है । इसकी वजह से सबसे अधिक व्याहत हुए हैं निजी क्षेत्र में मध्यम और लघु क्षेत्र के उद्योग । सरकार के पास इनमें निवेश के लिये रुपया ही नहीं बचता है । उन्हें बाजार से काफी ऊँची ब्याज की दरों पर बाजार से क़र्ज़ उठाना पड़ता है, जिसके बोझ को उठाने में अक्षम होने के कारण इनकी कमर टूटती जा रही है । यही बेरोज़गारी में बेतहाशा वृद्धि के भी मूल में है । रिजर्व बैंक के वेबसाइट पर विरल आचार्य का यह भाषण लगा हुआ है ।

ध्यान रखने की बात है कि विरल आचार्य ने मोदी सरकार से ख़फ़ा होकर अपने कार्यकाल से छ: महीना पहले ही अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और अध्यापन का काम अपना कर विदेश चले गये हैं।

सचमुच, यही आज का सबसे बड़ा संकट है । और, कहना न होगा, मोदी खुद इस पूरी समस्या के केंद्र में है ।

नोटबंदी से लेकर जीएसटी पर अनाप-शनाप ख़र्च और बैंकों तथा सरकारी ख़ज़ाने को घाटा, लगातार बड़े-बड़े सरकारी प्रचार आयोजन, मोदी की ताबड़तोड़ विदेश यात्राएँ, पटेल की मूर्ति पर अढ़ाई हज़ार करोड़ का ख़र्च और भाजपा शासित राज्यों में ऐसी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ लगाने की होड़, मोदी की यात्राओं पर दो हज़ार करोड़ का ख़र्च, मोदी के अपने रख-रखाव पर निजी तौर पर करोड़ों का ख़र्च, फिर चुनाव के ठीक पहले हज़ारों करोड़ सम्मान राशि के रूप में किसानों में, लाखों करोड़ बैंकों को एनपीए का घाटा पूरा करने में, लाखों करोड़ मुद्रा योजना के ज़रिये अपने कार्यकर्ताओं के बीच बँटवाने आदि में ख़र्च करने के कारण जीडीपी का अधिक से अधिक रुपया तो खुद मोदी स्वेच्छाचारी तरह से लुटाते रहे हैं । इसके बाद निजी या सरकारी क्षेत्र में निवेश के लिये रुपया कहाँ से आयेगा ?

अब आगे ये विदेश से सोवरन बांड के ज़रिये क़र्ज़ लेकर इसी प्रकार लुटाते जाने की योजना बना रहे हैं । अर्थात् ख़तरा यह है कि मोदी जाने के पहले भारत की सार्वभौमिकता को बेच कर जायेंगे, जिसकी आशंका आरएसएस के संगठन भी व्यक्त करने लगे हैं । 

कहना न होगा, मोदी व्यक्तिगत रूप से अब भारत की अर्थ-व्यवस्था का संकट बन चुके हैं ।

दूसरी ओर, जेपी आंदोलन के बाद इस बीच चार दशक से ज़्यादा का समय बीत चुका है । सारी दुनिया बदल चुकी है । ऐसे में जनता की स्वत: स्फूर्तता बेहिसाब अनिश्चितताएँ से भरी दिखाई देती है । यह बहुत ही ख़तरनाक रूप भी ले सकती है । उस पर कोई भी शक्ति सवार होकर इस देश की राजनीति की बागडोर अपने हाथ में ले सकता है । ख़तरा इतना है कि सीधे अमेरिका भी आ धमक सकता है । ‘अरब बसंत’ का अनुभव दुनिया के सामने हैं । खास तौर पर मिस्र में, जनतंत्र और चुनाव ने मुस्लिम ब्रदरहुड वाले तत्ववादियों को सत्ता सौंप दी और उसके विरुद्ध फिर धर्म-निरपेक्षतावादियों ने परोक्षत: सीधे अमेरिका को ही बुला लिया । सीरिया, इराक़ और मध्यपूर्व को बुरी तरह से रौंदने के साम्राज्यवादियों के नंगे खेल का सबब ‘अरब बसंत’ ही बना दिखाई देता है । भारत में बढ़ती हुई लींचिंग ही सीधे विदेशी नाकेबंदी से लेकर हस्तक्षेप तक का कारण बनने के लिये काफी है । भारत-पाकिस्तान और कश्मीर मामले में ट्रंप का कथन सिर्फ ज़ुबान का फिसलना नहीं है, इस उप-महादेश में तांडव मचाने की साम्राज्यवादियों की लालसा की अभिव्यक्ति है ।

ऐसे में, कोई भी भारत में मोदी के केंद्रीयतावाद के प्रतिरोध में उग्र प्रादेशिकता के उभार की संभावना को साफ़ देख सकता है । इसमें अभी के आर्थिक संकट की विशेष भूमिका होगी । मोदी की मनमानियां और जनता के जीवन के तनाव उग्र स्थानीयतावादी ताक़तों को निश्चित तौर पर बल देंगे । और यही प्रक्रिया भारत में साम्राज्यवादी खेल के रास्ते को प्रशस्त करने के लिये काफी होगी । अर्थात्, मोदी अपने साथ भारत को ही ले डूबेगा । 

मोदी के प्रतिरोध में किसी अखिल भारतीय शक्ति के न उभरने के ये तमाम ख़तरे बिल्कुल साफ़ दिखाई देते हैं।

इन्हीं कारणों से कांग्रेस का पूरी तरह डूबना बेहद विध्वंसकारी लग रहा है । इस विध्वंसक प्रक्रिया को टालने का एक ही उपाय हो सकता है कि कांग्रेस सहित सारे विपक्षी दलों को एक स्थायी समन्वय समिति बना कर कांग्रेस को आज़ादी के दिनों की तरह के व्यापकतम मंच के रूप में उभारने में योगदान करना चाहिए । कांग्रेस नेतृत्व के साथ नियमित संपर्क सभी विपक्ष के गंभीर दलों का स्थायी एजेंडा होना चाहिए । इस प्रकार की एक औपचारिक और अनौपचारिक विपक्षी दलों की नियमित अन्तरक्रिया का सांस्थानिक स्वरूप ही हमारे जनतंत्र का आगे का कोई नया और रचनात्मक रास्ता तैयार कर सकता है ।



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