-अरुण माहेश्वरी
देखते-देखते क्रिप्टो करेंसी, अर्थात् तमाम राष्ट्रीय सरकारों की जद से मुक्त ऐसी सार्वलौकिक करेंसी के चलन पर विचार और क्रिया का सिलसिला शुरू हो गया है जो मुद्रा को क्रय-विक्रय के लेन-देन में मध्यस्थता की अपने मूलभूत भूमिका के अतिरिक्त उस पर लाद दिये गये बाक़ी सभी राजनीतिक कर्त्तव्यों से आज़ाद कर दे रही है ।
मूल्यवान धातु का मुद्रा के रूप में इस्तेमाल तो आज बाबा आदम के ज़माने की बात लगती है । व्यापारियों के बीच आपसी लेन-देन के लिये हुंडी-पुर्ज़ों के प्रयोग से राष्ट्रों के केंद्रीय बैंक के भुगतान के शपथ पत्र के रूप में काग़ज़ की मुद्रा तक की यात्रा में मुद्रा पर लगभग हमेशा राज्य का एक बोझ लदा रहता है । भुगतान को सुनिश्चित करने वाला राज्य का शपथ पत्र काग़ज़ के नोट को अतिरिक्त शक्ति प्रदान करता था । लेकिन अब स्वयं मुद्राओं के वैश्विक बाजार के कारण मुद्रा पर राज्य का नियंत्रण एक विचार का विषय हो गया है । यह किसी न किसी रूप में खुले बाजार का माल बन चुकी है ।
जब मुद्रा की धातु का कोई मायने नहीं रह गया, तब राज्य की विश्वसनीयता प्रमुख हो गई थी । अब वह क्रमश: बाजार के विषय का रूप लेने लगी । यहीं से मुद्रा के मामले में राज्य की भूमिका के अंत के एक नये दौर का प्रारंभ हुआ । माल के उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य के द्वैत का रहस्य अब विनिमय के साधन के ठोस रूप से क्रमश: सांकेतिक रूप की दिशा में प्रगट होने लगा । काग़ज़ की मुद्रा प्लास्टिक मुद्रा से होते ह्ए अब पूरी तरह से अदृश्य डिजिटल मुद्रा, क्रिप्टो करेंसी का रूप ले रही है ।
बिटकायन को तो इस प्रकार की आभासित मुद्रा (crypto currency) का तत्त्वमूलक जनक कहा जा सकता है । बिटकायन को न किसी राज्य का समर्थन है और न किसी भारी-भरकम बहुराष्ट्रीय निगम का । उसका आधार है ब्लाक चेन की वह तकनीकी प्रणाली जिसमें कोई भी लेन-देन गोपनीय नहीं रहता है । आदान-प्रदान की श्रृंखला जहाँ भी टूटती है, उसे चिन्हित करके उसके लिये ज़िम्मेदार व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है और उस टूटी हुई श्रृंखला को बाक़ायदा जोड़ा जा सकता है । इस प्रकार, इस क्रिप्टो करेंसी में लेन-देन को हमेशा सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी किसी राज्य अथवा कंपनी की न होकर उन सभी लोगों की एक सामूहिक ज़िम्मेदारी होगी जो इसके ज़रिये लेन-देन की श्रृंखला में स्वेच्छा से शामिल होंगे । अर्थात्, मुद्रा का स्वरूप कुछ भी क्यों न हो, अंतत: भुगतान के लिये जो उसका प्रयोग करेगा, भुगतान न होने पर वही, उन लोगों का समुदाय उसके लिये ज़िम्मेदार होगा । चूँकि तकनीक ने इस प्रकार के ताने-बाने को असीम बना दिया है, इसीलिये इसका प्रसार किसी भी राज्य की भी सीमा का मोहताज नहीं होगा । राज्य या कंपनियाँ इस लेन-देन के जगत के बीच में अपनी भूमिका के ज़रिये बैंकिंग का जो कारोबार कर रही थी, बिटकायन उस कारोबार के मुनाफ़े को ख़त्म करके इस मुद्रा को उसके बोझ से भी मुक्त कर देता है ।
इस प्रकार की क्रिप्टो करेंसी से जुड़े दो पहलू है । पहला तो इसका वह तकनीकी आधार है, ब्लाक चेन प्रणाली वाला, जो इसके व्यापक वैश्विक चलन को संभव बनाता है और दूसरा इसका एक वैचारिक-दार्शनिक स्वरूप है जो इसे राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त करके एक स्वतंत्र आर्थिक समुदाय की संरचना के आधारभूत तत्त्व का रूप प्रदान करता है ।
मज़े की बात यह है कि आज की दुनिया में इस क्रिप्टो करेंसी के तत्त्वों को लेकर न जाने कितने प्रकार के प्रयोग किये जा रहे हैं । खास तौर पर ब्लाक चेन प्रणाली का इसका तकनीकी आधार सारी दुनिया के राष्ट्रीय राज्यों को जहाँ बेहद आकर्षित कर रहा है, वहीं इसके बिटकायन की तरह के राज्यों के जज से पूरी तरह मुक्त सामुदायिक आर्थिक व्यवहार का विचारधारात्मक पहलू राष्ट्रीय राज्यों में उतना ही भारी विकर्षण भी पैदा कर रहा है ।
आज उसकी तकनीक के आकर्षण के चलते भुगतान के न जाने कितने सरकारी, ग़ैर-सरकारी डिजिटल प्लेटफ़ार्म तैयार हो रहे हैं । कहा जाता है कि चीन में तो बाजार में भुगतान के लिये कार्ड प्रणाली लगभग ख़त्म हो गई है । भारत में हर मामले की तरह, इस मामले में भी कोई साफ़ दृष्टि नहीं होने से, जो भी हो रहा है, आधे-अधूरे तरीक़े से ही हो रहा है । सरकार की ओर से भुगतान के देशी-विदेशी और सरकारी डिजिटल प्लेटफ़ार्म का ज़ोर-शोर से प्रचार चल रहा है ; सरकारी भीम ऐप और रुपे के अलावा नोटबंदी के समय का बदनाम पीटीएम, अमेजन वैलेट, गूगल पे आदि चल ही रहे हैं । अब अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर ऐपल और फ़ेसबुक के तरह के संस्थान अपनी अन्तरराष्ट्रीय करेंसी तक चलाने की तैयारी कर चुके हैं । लेकिन इन सबके प्रति, खास तौर पर इनकी तार्किक परिणति क्रिप्टो करेंसी के प्रति, भारत सरकार का रुख़ क्या होगा, यह अभी तक भारी विवाद का विषय बना हुआ है । इसी विवाद के चलते पिछले दिनों अति-उत्साही वित्त सचिव सुभाष गर्ग को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था ।
बहरहाल, वर्तमान भारत सरकार को इस पूरे प्रसंग में एकमात्र जो चीज सबसे अधिक आकर्षित कर रही है, वह है इससे जुड़ी हुई ब्लाक चेन तकनीक - अर्थात् वह तकनीक जो इसमें शामिल होने वाले देश के प्रत्येक नागरिक के समूचे आर्थिक व्यवहार के बारे में सरकार को सूचित कर सकती है । मोदी सरकार इसे समाज पर अपने पूर्ण प्रभुत्व की स्थापना के एक कारगर हथियार के रूप में देखने की वजह से ही इसके प्रति काफी ज्यादा आकर्षित है ।
मोदी ने जब अपना नोटबंदी का तुगलकी फ़ैसला लिया था कि इससे पूरा काला बाहर निकल आयेगा, तभी उस अभियान के ही एक अनुषंगी के रूप में उन्होंने डिजिटलीइजेशन का नारा दिया; आधार कार्ड की अनिवार्यता पर बेजा बल देना शुरू किया । ब्लाक चेन प्रणाली से एक ओर जहाँ सूचनाओं के केंद्रीकरण और सामाजिक यथार्थ की सठीक जानकारी किसी भी राज्य के नीतियों के लिये ज़रूरी सांख्यिकी की ज़रूरत पूरी हो सकती है, वहीं इतनी सूक्ष्म, व्यक्तिगत स्तर की सूचनाओं के आधार पर राज्य का दमनतंत्र बेहद मारक साबित हो सकता है ।
लेकिन बिटकायन की तरह की राज्य-विहीन क्रिप्टो करेंसी इस मामले में, प्रत्येक नागरिक के आर्थिक व्यवहार पर राज्य के प्रभुत्व को तोड़ता है, इसीलिये
कोई भी राज्य उसे अपनाने के लिये तैयार नहीं है । यह एक ऐसा ज़रिया है जो सूचनाओं के चरम केंद्रीकरण की तकनीक से ही सत्ता के चरम विकेंद्रीकरण का आधार तैयार करता है । इसीलिये दुनिया का हर राज्य इसके प्रति जितना आकर्षित है उतना ही शंकित भी है ।
ऐसे में, ऐपल, गूगल या फ़ेसबुक की तरह की विशालकाय कंपनियों के द्वारा तैयार किये जा रहे क्रिप्टो करेंसी के नये साम्राज्य आज पूँजीवाद के विकास के एक बिल्कुल नये स्वरूप को हमारे सामने रख रहे हैं ।
यह किसी भी चीज के विकास का वह चरम रूप है, जब उसमें ऐसे स्फोट होते हैं, जो उसके गुणात्मक रूप से भिन्न स्वरूपों को प्रकट करने लगता है । जैसे भ्रूण वैज्ञानिकों का मानना है कि मानव भ्रूण के विकास के एक चरण में आंतरिक दबाव से जब मस्तिष्क की झिल्ली फटती है, तभी उससे होने वाले स्फोट के चलते शरीर के अलग-अलग अंगों के बीच एक प्रकार का तारतम्य क़ायम होता है ।
आज क्रिप्टो करेंसी से जुड़े विषयों पर चर्चा की स्थिति यह है कि इसके जन्म से जुड़े तमाम मूलभूत तकनीकी प्रयोग तो अमेरिका के सिलिकॉन वैली में चल रहे हैं, लेकिन इसके व्यवहारिक प्रयोग के सारे कर्मकांड चीन और भारत की तरह के देशों में किये जा रहे हैं । अमेरिकी आदमी आज भी अपनी जेब में चेकबुक लेकर घूमना पसंद करता है और जापानी नगद मुद्रा ही चाहते हैं । लेकिन चीन और भारत डिजिटल मुद्रा के लिये तो जरूर आकुल-व्याकुल है, पर उसकी एक अनिवार्य तार्किक परिणति, बिटकायन की तरह की सामुदायिक आभासित मुद्रा के विचार से बुरी तरह परेशान है ।
दुनिया के विकसित राज्य अपने नागरिकों के निजी आर्थिक व्यवहार से पहले से जितना अवगत है, उससे अधिक जानकारी की उन्हें अभी ज़रूरत नहीं लग रही है । नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन वहाँ के राज्य के मूलभूत जनतांत्रिक विन्यास के विपरीत है । जनतंत्र और नागरिकों की स्वतंत्रता ने ही इन राज्यों की लगातार प्रगति को अब तक सुनिश्चित किया है ।
लेकिन चीन और भारत की प्रयोगशालाओं में इस नई तकनीक के बल पर सत्ता के केंद्रीकरण के जो कारनामें चल रहे हैं, उन पर उनकी बराबर नजर बनी हुई है । उन्होंने भारत को नोटबंदी का प्रयोग करने के लिये प्रेरित किया और इसके आर्थिक दुष्परिणामों को देख कर अपने लिये ज़रूरी शिक्षाएँ प्राप्त कर लीं । इसीप्रकार, वे डिजिटलाइजेशन के अंध-अभियान की परिणतियों को देखना चाहते हैं ।
बहरहाल, भारत की दशा इन मामलों में सबसे विचित्र है । आज भारत की सत्ता पर ऐसे तत्वों का क़ब्ज़ा है, जिन्हें सिर्फ अपने हाथ में अंतहीन सत्ता की कामना है । सत्ता के प्रयोग की उनकी अगर कोई अवधारणा है तो वह हिटलर के नाज़ीवाद की अवधारणा के अलावा कुछ नहीं है । ऐसे में, मुद्रा के स्वरूप के विकास से जुड़े सामाजिक-राजनीतिक-दार्शनिक पहलू उनके विचार के दायरे से कोसों दूर है । ये तभी तक इसके प्रति आग्रहशील हैं, जब तक इसमें इन्हें अपने एकातिमवादी राज्य की दमन की ताक़त में वृद्धि की संभावना दिखाई देती है । अगर इससे अपने वर्चस्व के हित नहीं सधते हैं, तो जाहिरा तौर पर इसके विकास के प्रति इनका कोई आग्रह भी नहीं हो सकता है । यही वजह है कि इस विषय पर इनका रुख़ दुविधाओं से ग्रस्त आधा-अधूरा ही रहेगा, जैसा आज नजर आ रहा है ।
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