मंगलवार, 6 अगस्त 2019

पुण्य प्रसून क्यों किसी 'उद्धारकर्ता' के झूठे अहंकार में फंस रहे है ?

—अरुण माहेश्वरी


कल रात ही धारा 370 को हटाये जाने के बारे में पुण्य प्रसून वाजपेयी की लंबी, लगभग पचास मिनट की वार्ता को सुना ।

अपनी इस वार्ता में उन्होंने घुमा-फिरा कर, कश्मीर के भारत में विलय से जुड़े इतिहास और आरएसएस के धारा 370 विरोधी 1950 के ज़माने से चले आ रहे अभियान के बारे में तथ्यों का एक सम्मोहनकारी आख्यान पेश करने के बाद अंत में बड़ी उदारता से लोगों से कहा कि अब सारे तथ्य आपके सामने हैं,  यह आप पर है कि आप अपने लिये कौन सा पक्ष चुनते हैं ! जहां तक खुद के पक्ष का सवाल था, उन्होंने मोदी जी को इस बात पर बधाई दी कि सालों के विवादास्पद विषय का उन्होंने एक समाधान कर दिया ।

यद्यपि, यह समाधान कोई समाधान है या समस्या की जटिलता को एक और नया आयाम देने का एक नया बिंदु भर है,  इस पर उन्हें भी संदेह था,  लेकिन इस संदेह को उन्होंने ठीक वैसे ही कश्मीर के युवाओं के ‘सुंदर’ भविष्य के सपनों के ‘आसरे’ खारिज करने की भी कोशिश की, जिस प्रकार संसद में अमित शाह कर रहे थे और कश्मीर को 'बाकी भारत' की तर्ज पर 'स्वर्ग' बना देने का आश्वासन दे रहे थे !

इसके पहले कि हम पुण्य प्रसून वाजपेयी की अन्य बातों पर गौर करें, उन्हें थोड़ा सा कश्मीर की सच्चाई के उनके द्वारा अछूते एक पहलू, बल्कि हमारी जान में सबसे महत्वपूर्ण पहलू, के बारे में बताना उचित समझते हैं । वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में कश्मीर पहला ऐसा राज्य था जहां भूमि सुधार का काम सबसे पहले और बिल्कुल क्रांतिकारी तरीके से हुआ था । कश्मीर के भारत में विलय के प्रति शेख अब्दुल्ला ने इसी एक कदम के जरिये वहां की जनता के व्यापक समर्थन को सुनिश्चित किया था । यह भूमि-सुधार महज कोई पका-अधपका खयाली पुलाव नहीं था, भारत के शेष भागों के 'जमींदारी उन्मूलन' की तरह का, बल्कि एक ठोस जमीनी हकीकत थी । इसीलिये अब्दुल्ला के इस कदम का कश्मीर के जन-जीवन पर इतना गहरा असर हुआ था कि आज तक कश्मीर शायद अकेला राज्य है जहां के प्रत्येक निवासी के पास अपना घर और अपनी जमीन भी है ।

कश्मीरी जीवन की यही वह शक्ति रही है, जिसने उन सभी कठिन कालों में भी वहां के लोगों को जीने के साधन प्रदान किये हैं, जिन कालों में नाना कारणों से सैलानियों ने कश्मीर से अपना मुंह मोड़ लिया था । कांग्रेस और वाजपेयी के शासन काल में एक बार, लगभग चौदह साल (1987-2001) तक कश्मीर में भारत से सैलानियों का जाना बिल्कुल रुक गया था । लेकिन तब भी कश्मीर के लोग इस धरती से उठ नहीं गये थे । उस कठिन काल में भी जीने के साधन उनके पास प्रकृति, अपनी जमीन और घर के बल पर हमेशा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहे ।

फिर भी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि कश्मीर के लोगों और  नौजवानों की आंकांक्षाओं का वही कोई अंतिम पड़ाव नहीं है, और न हो सकता है । निश्चित तौर पर ऊंची से ऊंची शिक्षा के जरिये अपनी उपलब्धियों से वह देश-विदेश में अपने को स्थापित करना चाहता है, आधुनिक जीवन की तमाम सुख-सुविधाओं को पाना चाहता है । यह पूरी तरह से अपेक्षित, न्यायसंगत और इतिहासृसंगत भी है ।

हमारे कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि जीने के जो साधन कश्मीर के निवासियों को अब तक ताकत देते रहे हैं और जो उनकी कश्मीरियत वाली प्राणी सत्ता के गठन और अस्तित्व के मूल तत्व रहे हैं, उन्हें विकास और नई संभावनाओं की मरीचिका में फंसा कर उनसे छीन लेने के खतरों से भरी कोई भी पेशकश या सिफारिश पर विचार के पहले क्या उन्हें कश्मीरियों के वास्तविक हितों की कसौटी पर परख कर देखने की जरूरत नहीं है ?  क्या यह सवाल उठाने की जरूरत नहीं है कि इसमें कश्मीरियों का कितना हित है और उनके संसाधनों पर गिद्ध दृष्टि लगाये हुए कॉरपोरेट जगत और उनके राजनीतिक दलालों का कितना हित है ?

अर्थनीति के तथाकथित तर्क के अनुसार संभव है, चू कर कुछ लाभ नीचे के लोगों को भी मिल जाएं । विकास की अंधी दौड़ में लोगों को उतारने का यही तो सारी दुनिया का आजमाया हुआ फार्मूला है । लेकिन यहां कश्मीर में तो शुरू में ही धारा 35 ए को हटाने की सिफारिश करके, उन लाभों को लूटने के लिये भी नीचे से लोगों को लाने की व्यवस्था की जो सिफारिश की गई है, वह ऐसे विभ्रमों को भी तोड़ने के लिये काफी है । फिर क्यों, वाजपेयी इस सवाल को उतना तूल नहीं देना चाहते ! यह तब है जब वे इस सच्चाई से भी वाकिफ है कि स्थानीय हिस्सेदारों के साथ मिल कर कश्मीर में अभी भी अनेक पांच सितारा होटल आदि काम कर रहे हैं और जहां अधिक से अधिक कश्मीरी ही काम कर रहे हैं ! क्या आज कश्मीरी भागीदारों की जगह भारत के अन्य हिस्सों के राजनीतिक भागीदारों का लालच उमड़ रहा है ?

पुण्य प्रसून पर आगे आने के पहले थोड़ा और भटकते हुए हम कहना चाहते हैं कि विकास की मरीचिका के पीछे दौड़ने का यह पूरा मामला मूलतः किसी आईने में दिखने वाली सामने की छवियों के विभ्रम से बच्चे का खुद को जोड़ लेने अथवा 'दूर के सुहावने ढोल' की तरह के सम्मोहन में फंसने की तरह का मामला ही होता है । यदि कोई अपने को अपने से बाहर की किसी छवि से जोड़ लेता हैं तो संभव है वह ऐसी चीजें कर सकता है, जो पहले नहीं कर पाता था । लेकिन ऐसा करने की उसे एक कीमत देनी पड़ती है । वह एक ऐसी छवि में फंस जाता है, जो बुनियादी रूप से उससे बाहर की होती है, अलग है । इस प्रकार वह मिथ्या छवि वास्तविक यथार्थ की नहीं, एक प्रकार के मिथ्या यथार्थ बोध के संघटनकारी की भूमिका अदा करती है ।

पुण्य प्रसून शायद विषय के इस पहलू को कोई महत्व नहीं देना चाहते, जबकि हमारी नजर में सही विश्लेषणमूलक पत्रकारिता की भूमिका ऐसी छवियों के मिथ्याभास को तोड़ने की ही होती है । आदमी का ज्ञान प्रकृति के वशीभूत पशु से ज्यादा स्वतंत्र होता है, लेकिन जो चीज इस ज्ञान को हमेशा सीमित करती है, वह है इसमें यथार्थ का अभाव । इस अभाव के अभाव को दूर करके ही ज्ञान और यथार्थ के बीच की दूरी को कम किया जा सकता है ।

हेगेल की एक बहुत प्रसिद्ध उक्ति है — शब्द यथार्थ की हत्या है । अर्थात् जीवन का जो भी यथार्थ शब्द के रूप में आपके सामने ढल कर आता है, वह बेहद आंशिक होने के नाते, यथार्थ की हत्या का कारक होता है, वह हमेशा एक धोखे के सिवाय कुछ नहीं होता है । इसी प्रकार फ्रायड अपने मनोविश्लेषण में रोगी के अहम् से निकली बातों को शुद्ध धोखा मानते थे और मनोविश्लेषण को उससे दूर रहने की सिफारिश करते थे । उनके शिष्य जॉक लकान का प्रसिद्ध कथन था — अभाव का अभाव ही यथार्थ होता है ।

पुण्य प्रसून के इस पूरा ऐतिहासिक आख्यान में जो केंद्रीय बात एक सिरे से गायब है, और जो इसका सबसे बड़ा अभाव है, वह है इसमें भारत की तरह के एक विविधताओं से भरे देश में संघीय ढांचे के महत्व की बात । यह विविधता का तत्व किसी की कामना मात्र से एकता के सूत्र में नहीं बदल सकता है, इसीलिये विविधता में ही एकता के लिये सारी दुनिया में राज्य के संघीय ढांचे की, और देशों के बीच आपसी संबंधों में संप्रभुता, स्वतंत्रता की बात की जाती है ।

भारत को अमेरिका बना देंगे के सपने दिखा कर अमेरिका की अधीनता को मान लेने का नुस्खा, इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में, उपनिवेशवादियों के 'सभ्यता के प्रसार' के पवित्र अभियान की तरह बेहद कुत्सित नुस्खा है, जिसे ठुकराने के लिये सारी दुनिया के लोगों की कुर्बानियों की बात को यहां कहने की जरूरत नहीं है । पुण्य प्रसून शायद नहीं समझ रहे हैं कि कश्मीरियों के कल्याण की उनकी पवित्र भावना इससे बेहतर नहीं सुनाई दे रही है ।

मनोविश्लेषण में रोगी के मन की बात को बिना किसी अपेक्षा के अधिक से अधिक सुनने पर बल दिया जाता है । शुद्ध रूप से सुनने पर, बिना किसी स्मृति अथवा विश्लेषक की कामना को बिना बीच में लाए सुनने पर । यही सभ्यता की समस्याओं के समाधान में जनतंत्र का भी प्रमुख सूत्र, उसकी शक्ति है । लेकिन यहां तो कश्मीरियों की बात को सुनने की कोई बात ही नहीं है, उन्हें तो जेलों में या अपने घरों की चारदीवारियों में बंद कर दिया गया है, संचार के सारे साधनों से काट दिया गया है, और हम 'महामुनि' उन्हें इतिहास का, और बाकी भारतवासियों की कामना का पाठ पढ़ा कर उनकी मुक्ति का रास्ता दिखाने का नाटक कर रहे हैं !

वाजपेयी जी ! आरएसएस सत्तर साल से एक विषय को दोहरा रहा है, इसीलिये इस विषय पर उनकी कार्रवाई का कोई औचित्य नहीं हो जाता है ! यह तो 'हिंदू ही राष्ट्र है' और 'भारत को अपनी पुण्य भूमि न मानने वाले भारत के नागरिक नहीं हो सकते हैं' की तरह की उनकी उन मूलभूत निष्ठाओं से जुड़ा, भारत में मुसलमानों की हैसियत को पूरी तरह से समाप्त कर देने का उनके जन्म के साथ जुड़ा एक बुरा राजनीतिक एजेंडा भर है । यह भारत का राजनीतिक एजेंडा न था, न आज बन सकता है, क्योंकि भारत आज भी एक संघीय राज्य है । आज अपने उस मूल एजेंडा पर अमल की शक्ति से उस बुराई में किसी भी प्रकार की अच्छाई पैदा नहीं हो जाती है । क्या किसी जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष विश्लेषक को इस बात को भूल कर ऐसे विषय पर राय देनी चाहिए ?

हमें यह देख कर आश्चर्य होता है कि पुण्य प्रसून इस विषय पर अपनी वार्ता में भारत के संघीय ढांचे के पहलू के महत्व को पूरी तरह से गौण बना देते हैं, जबकि वही इस पूरे विषय का केंद्रीय मुद्दा है । राज्य के संघीय ढांचे के बजाय, एकीकृत ढांचे की ओर बढ़ना वैविध्यमय भारत को एकजुट रखने वाले सबसे प्रमुख तत्व का विरेचन है ।

इसीलिये केंद्र के इस कदम पर अपनी पहली टिप्पणी में ही हमने लिखा कि “कश्मीर संबंधी जो धाराएँ भारतीय जनतंत्र और संघीय ढाँचे का सबसे क़ीमती गहना थी, उन्हें उसके शरीर से नोच कर सरकार हमारे जनतंत्र को विपन्न और बदसूरत बना रही है । कश्मीर की जनता के साथ तो यह ऐसी बदसलूकी है कि यदि इसी तरह चलता रहा तो आगे कश्मीर घाटी में चिराग़ लेकर ढूँढने पर भी शायद भारत के साथ रहने की आवाज़ उठाने वाला कश्मीरी नहीं मिलेगा ।

“कश्मीर को भारत से जोड़ने वाली धारा की समाप्ति का अर्थ है कश्मीर को भारत से तोड़ने वाली राजनीति को मान्यता । मोदी सरकार ने बिल्कुल यही किया है । कश्मीर के बारे में यह प्रयोग केंद्रीकृत शासन के लक्षण हैं जो आगे नग्न तानाशाही की शासन प्रणाली के रूप में ही प्रकट होंगे । मोदी जी ने अपनी दूसरी पारी का प्रारंभ संविधान की पोथी पर माथा टेक कर किया था, लेकिन अभी तीन महीनें बीते नहीं है, उसी संविधान की पीठ पर वार किया है । भारतीय राज्य का संघीय ढाँचा ही हमारे वैविध्यपूर्ण राष्ट्र की एकता की मूलभूत संवैधानिक व्यवस्था है । इसे कमजोर बना कर राष्ट्र के किसी भी हित को नहीं साधा जा सकता है । कश्मीर के विषय में की गई घोषणा हमारे पूरे संघीय ढाँचे के लिये ख़तरे का खुला संकेत है ।”

1971 में बांग्लादेश के उदय से प्रमाणित हुआ था कि सिर्फ धर्म किसी राज्य के गठन का आधार नहीं हो सकता है । अब भारत का संघी शासन यह प्रमाणित करने में लगा है कि धर्म-निरपेक्षता भी राष्ट्र की एकता की गारंटी नहीं हो सकती है ।

अफसोस है कि पुण्य प्रसून वाजपेयी के लिये इन बातों का कोई मूल्य नहीं है ! वे एक सांप्रदायिक उन्माद में फंसी जनता की भावनाओं की तो कद्र कर रहे हैं, लेकिन उत्पीड़ित कश्मीर के जनों और भारत के भविष्य के प्रति उदासीन, परोपकार के थोथे आदर्श की श्रेष्ठता के भाव बोध में डूब रहे हैं !

थोड़ा अवांतर होने पर भी, हम यहां पुण्य प्रसून की तर्ज पर ही जाक लकान के एक कथन के अपने काव्य रूपांतरण को रखना चाहेंगे -

सत्य और हम

हम जहां पहुंचते है
उसका तर्क हमसे छूटता जाता है
जैसे छूट गया है
हिटलर के यातना शिविरों में
जहरीली गैस की घुटन से निकला
अस्तित्ववाद का सच
जैसे कैदखाने की दीवारों में सामने आया
स्वतंत्रता का सच
जैसे बुद्धि जब काम न करे
तब हमारी प्रतिबद्धताओं का सच
जैसे परपीड़क रति के
आदर्शीकरण का सच
जैसे आत्म हत्या से
अपने मुकाम को पाने की
आदमी की कामना का सच
जैसे जीवन से इंकार का
शब्दों का सच ।

सच को हम जान तो सकते हैं
लेकिन बदलना,
एक नई सच्ची यात्रा के मुहाने पर आना
लगता है
हमारे वश में नहीं है ।

(जॉक लकान के कथन पर आधारित)
 







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