बुधवार, 15 जनवरी 2020

असंभव की साधना के राजनीति के मूल सत्य को आज प्रमाणित करने की घड़ी आ चुकी है

—अरुण माहेश्वरी



नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन ने इसी बीच भारत को सचमुच बदल डाला है । देश भर में इस आंदोलन में कूद पड़ी ऊर्जस्वित महिलाओं ने तो जैसे राजनीति के टाट को ही उलट दिया है । सिर्फ छः महीने पहले पूर्ण बहुमत से चुन कर आए मोदी और उनके शागिर्द शाह का आज देश के आठ राज्यों में तो जैसे प्रवेश ही निषिद्ध है और पूरे देश में एक भी ऐसा राज्य नहीं बचा है जहां वे भारी विरोध की आशंका से मुक्त हो कर निश्चिंत हो कर घूम-फिर सकते है । यहां तक कि बाहर के देशों में भी मोदी आज एक अवांछित व्यक्ति हैं । हर जगह उनके लिये काले झंडे और मोदी गो बैक के नारे प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

दुनिया के राजनीतिक इतिहास में यह आंदोलन लगभग उसी प्रकार से स्वयं में एक विरल घटना के रूप में सामने आया हैं, जैसे कभी भारत का स्वतंत्रता आंदोलन अपने आप में एक विरल संघर्ष था । तमाम परिवर्तनकारी राजनीतिक घटनाक्रमों की खूबी यही है कि वे न किसी अन्य आंदोलन की अनुकृति होते हैं और न उन्हें दूसरी किसी जगह हूबहू दोहराया जा सकता है । ये विज्ञान के प्रयोग या गणित के समीकरण नहीं हैं जिन्हें बार-बार दोहरा कर एक ही परिणाम हासिल किया जा सकता हैं । दुनिया के राजनीतिक घटना-क्रमों में किसी भी काल में कितनी ही एकसूत्रता क्यों न दिखाई दे, हर घटना अपने में अद्वितीय ही होती है ।

इसीलिये भारत में पूरे देश के पैमाने पर अभी जो लहर उठी है, वह भी अद्वितीय है । मोदी ने अपने शासन के इस दूसरे दौर में अपनी बुद्धि के अनुसार आजादी के अधूरे कामों को पूरा करने के इरादों से राज्य के धर्म-निरपेक्ष चरित्र को बदलने का जो संघी खेल कश्मीर से शुरू किया था, उसीका अब कुल जमा परिणाम यह दिखाई देता है कि आजादी की लड़ाई में ही अर्जित मूल्यों और संविधान के मूलभूत आदर्शों को हमेशा के लिये सुरक्षित कर देने के लिये पूरा भारत अब मचल उठा है । मोदी के जहरीले सांप्रदायिक इरादों और शाह की दमनकारी हुंकारों ने जैसे अंग्रेजों के शासन के बचे हुए दंश-बोध को देश के छात्रों, नौजवानों और खास तौर पर महिलाओं में जिंदा कर दिया है और जैसे तमाम देशवासियों में आजादी की लड़ाई का हौसला पुनर्जीवित होता जा रहा है ।

भारत का यह महा-आलोड़न स्वयं में विरल है, क्योंकि न यह किसी कैंपस विद्रोह की अनुकृति है और न ही किसी ‘अरब बसंत’ की तरह का कोरा विध्वंसक तूफान । हर बीतते दिन के साथ यह आंदोलन अपने अंदर एक नये भारत का निर्माण कर रहा है । यह आंदोलन हमारे संविधान के विस्मृत कर दिये गये, और आज फाड़ कर फेंक दिये जा रहे पन्नों को सहेज कर एकजुट और न्यायप्रिय भारत को नये सिरे से तैयार करने लगा हुआ है । इसीलिये, जो यह समझते हैं कि समय के साथ यह आंदोलन शिथिल हो जायेगा या यह किसी अंजाम तक नहीं जायेगा या इसे पाशविक दमन के बल पर कुचल दिया जायेगा — वे भारी मुगालते में हैं । इस आंदोलन में वाकई अनंत संभावनाएं है, इसकी गहराई और विस्तार का कोई ओर-छोर नहीं है और इसकी आंतरिक ऊर्जा अकूत है — इसके सारे संकेत इसी बीच मिलने लगे हैं ।

जो आंदोलन शुरू में असम के साथ ही भारत के चंद विश्वविद्यालयों के कैंपस से शुरू हुआ था, वह इसी बीच भारत के उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों के शहरों, कस्बों, गांवों और गली कूचों तक को पूरी तरह से अपनी जद में ले चुका है । बंगाल का कोई जिला केंद्र ऐसा नहीं है जहां रोजाना लाखों की संख्या में लोग प्रदर्शन न कर रहे हो । पूरा दक्षिण भारत आज इसके विरोध में उबल रहा है । पश्चिम में महाराष्ट्र, गोवा, और गुजरात में भी भारी प्रदर्शन चल रहे हैं । बिहार और उड़ीसा भी पीछे नजर नहीं आते । उत्तर प्रदेश का सच किसी से छिपा नहीं है । दिल्ली तो आंदोलन का एक केंद्र-स्थल बना हुआ है । हर रोज नये-नये क्षेत्रों में इसका उफान दिखाई देता है ।

देश के तकरीबन 16 राज्यों की सरकारों ने साफ ऐलान कर दिया है कि उनके राज्यों में नागरिकता कानून को लागू नहीं किया जायेगा । केरल सरकार ने तो सीधे सुप्रीम कोर्ट में जाकर केंद्र सरकार को ललकारा है । इसी सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट भी अब अपनी नींद से उठने लगा है । हाल में उसने धारा 144 के प्रयोग और इंटरनेट सेवाओं पर रोक के बारे में एक ऐतिहासिक फैसला दे कर मोदी सरकार के मुँह पर एककरारी चपत मारी है । फिर भी मोदी और उनके लोगों की दशा बदहवास पागलों की तरह की बनी हुई है । कोई पागल ही तो अपने चारों ओर के इस कदर जलते हुए यथार्थ के प्रति इतना अंधा हो सकता है !

मोदी और उनके लोग अभी भी राजनीति की घृणित चालबाजियों और झूठे प्रचार की शक्ति पर भरोसा लगाये बैठे हैं । मोदी धोखेबाजी से छोटे-छोटे बच्चों के बीच अपने नागरिकता कानून के पक्ष में कहीं हाथ उठवा लेते हैं, तो कहीं उसके लोग पोस्टकार्ड से बच्चों का समर्थन लेने की कोशिश करते हैं । हद तो तब हो गई जब मिस्ड कॉल के जरिये समर्थन पाने के लिये कामुक बातें करने वालों के विज्ञापनों का सहारा लिया जाने लगा । गंदी से गंदी गालियाँ और कामुक बातें जिनके राजनीतिक प्रचार के औज़ार होंगे वे सिर्फ़ लिंचर्स और रेपिस्ट ही तैयार कर सकते हैं, इसके सबूत समाज में भी अब आए दिन देखने को मिल रहे हैं !

उनका कोई नेता कहता है कि ‘यदि किसी ने मोदी-योगी के विरुद्ध आवाज उठाई तो उसे जिंदा गाड़ दूंगा’, तो कोई कहता है ‘कुत्तों की तरह गोली मारूंगा’, ‘शहर फूंक दूंगा’, ‘नागरिकता कानून और एनआरसी का विरोध करने वालों का एक घंटे में सफाया कर दिया जायेगा’ । कुल मिला कर परिस्थिति इतनी खराब होती जा रही है कि आगे कोई भी सभ्य आदमी बीजेपी के नेताओं के बग़ल में खड़ा होने से कतराने लगेगा । वे तमाम प्रकार की बुराइयों के प्रतीक बन कर रह गये हैं । लेकिन मोदी-शाह को इसका होश ही नहीं है । कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे सत्ता के केंद्र में आकर अमित शाह ने मोदी को ही पूरी तरह से एक मज़ाक़ का विषय बना दिया है । मोदी अपनी जिन संघ वाली बुराइयों को पहले अंधेरे में रखना चाहते थे, उनकी इन कोशिशों को ही शाह ने प्रकाश में ला दिया है । कॉमेडी का मतलब ही होता है — छिपाने की कोशिश का खुला मंचन।

मोदी-शाह पूरी बेशर्मी से इस झूठ को दोहराते रहते हैं कि सीएए नागरिकता देने के लिये है, किसी की नागरिकता छीनने के लिये नहीं ! आज देश का हर समझदार आदमी जानता है कि इस क़ानून से धर्म के आधार पर नागरिकों के बीच भेद-भाव की जो ज़मीन तैयार की गई है, वही तो शुद्ध वंचना है ।

केंद्र का गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी कहता है कि सीएए 130 करोड़ लोगों में से यदि एक को भी प्रभावित करेगा तो वे इस क़ानून को वापस ले लेंगे । उसे यह नहीं मालूम कि यह किसी एक को नहीं, सारे 130 करोड़ लोगों को, भारत के संविधान को प्रभावित करने वाला कानून है । और, जो चीज सबको समान रूप से प्रभावित करती है, उसके प्रभाव को किसी एक पर प्रभाव के ज़रिये नहीं समझा जा सकता है !

फासीवाद, नाजीवाद इटली और जर्मनी में किसी एक के विरुद्ध नहीं था । उसने इन देशों के प्रत्येक नागरिक के जीवन को प्रभावित किया था । राज्य के धर्म-निरपेक्ष चरित्र को नष्ट करके मोदी सरकार अपने हाथ में नागरिकों के बीच भेद-भाव करने का जो अधिकार लेना चाहती है, वही देश के हर नागरिक के जीवन को नर्क बनाने के लिये काफ़ी है ।

जेएनयू के छात्रों पर हमलों के लिये जिस प्रकार गुंडों और पुलिस का प्रयोग किया गया, उसने इनके नाजी चरित्र को और भी उजागर कर दिया । जिन्हें सताना है और जिनका सफाया करना है, उनका चिन्हीकरण करना नागरिकों पर जर्मन नाजियों के जुल्मों का पहला चरण था । जेएनयू में इन्होंने बाकायदा पहले से चिन्हित करके छात्रों के होस्टल के कमरों पर हमले किये थे । यूपी में योगी ने नागरिकता कानून के नियमों के बनने के पहले ही इस प्रकार का चिन्हीकरण का काम शुरू कर दिया है । कहना न होगा, सीएए-एनपीआर-एनआरसी का पूरा प्रकल्प ही राष्ट्र-व्यापी नाजी चिन्हीकरण के प्रकल्प के अलावा कुछ नहीं है । जिन्होंने भी सीएए-एनपीआर-एनआरसी को दमन और हत्या के त्रिशूल के रूप में देखा है, उन्होंने इसके सत्य की सही पहचान की है ।

बहरहाल, जैसा कि हमने शुरू में ही कहा है, राजनीति में कभी किसी फार्मूले के अनुसार कुछ भी घटित नहीं होता है । इसीलिये संघियों का नाजी प्रकल्प भी आगे बढ़ने के पहले ही मुंह के बल गिरने के लिये अभिशप्त है । भारत की अपनी वैविध्यमय विशेषता और इसका राजनीतिक इतिहास ही नाजीवादी प्रयोग की कब्र खोद देगा । देश व्यापी शांतिपूर्ण विद्रोह की शक्ल ले चुके इस आंदोलन की यही सबसे बड़ी उपलब्धि होगी ।

सचमुच चिंतनशील राजनीति हमेशा एक असंभव की साधना है । सच्चे राजनीतिक कार्यकर्ता हमेशा जो चल रहा है उससे अलग परिस्थिति की संभावना के बारे में सोचते हैं । इसके विपरीत चालू राजनीतिक नेता तो सोचते ही नहीं है । जब भी आपको किसी राजनीतिक लेखन में कोरा दोहराव दिखाई दे, तो मान कर चलिये कि वह वास्तविकता में कोरा शब्दाडंबर और अंदर से खोखला होता है । वह घटिया किस्म की पत्रकारिता वाली टिप्पणी अथवा ड्राइंग रूप की गप से ज्यादा कुछ नहीं होता । इसी के आधार पर कोई भी सच्चे राजनीतिक कार्यकर्ताओं और बैठे-ठाले राजनीतिक नेताओं के बीच फर्क कर सकता है । सच्चे राजनीतिक कार्यकर्ता यह मान कर चलते हैं कि कोई भी परिस्थिति अंतिम नहीं होती है और न उसमें परिवर्तन को किसी भी अन्य जगह के घटना-क्रम की नकल करके किया जा सकता है, जबकि चालू राजनीतिक नेता पुरानी बातों का ही पिष्टपेषण करते हुए भाषण झाड़ते रहते हैं ।

कहने का तात्पर्य यह है कि चिंतनशील राजनीति ही किसी भी ढर्रेवर जीवन से अलग सामूहिक संभावनाओं की नई दिशा खोलती है और नई परिस्थिति के निर्माण के सूत्र प्रदान करती है । वही तमाम मान ली गई प्रभुत्वशाली चीजों से हमें अलग करने का रास्ता सुझाती है । बस इसके लिये इतना ही जरूरी होता है कि राजनीति अपनी खुद की जड़ता से मुक्त हो कर बनती हुई नई संभावनाओं के क्षेत्र में प्रवेश करे । अपनी परंपरागत स्थिति से हट कर विमर्श की एक व्यापक प्रक्रिया में शामिल होना, और इस प्रकार एक असामान्य स्थिति की ओर बढ़ना राजनीति की सच्ची भूमिका की एक प्रमुख शर्त है । जो राजनीति ऐसा नहीं करती, वह इतिहास के कूड़े पर फेंक दिये जाने के लिये अभिशप्त विचारशून्य नेताओं की कोरी भीड़ होती है ।

जो भी यह कहता है कि शाहीन बाग में संविधान की रक्षा लड़ाई का अंत ग़ैर-राजनीतिक तरीक़े से ही संभव है, वह सचमुच महा मूर्ख है । राजनीति की असंभव की साधना के पहलू को उसने सिर्फ जोड़-तोड़ की धंधेबाजी के रूप में समझा है । लेकिन असल में, राजनीति के सच्चे मर्म को खुद को साबित करने की आज ही सबसे बड़ी चुनौती है । देश की प्रमुख धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक राजनीतिक ताक़तों का इस आंदोलन में शामिल होना ही इसके सकारात्मक विकास के लिये ज़रूरी है और सबसे अधिक उत्साहजनक बात है कि इसी बीच इसके सारे संकेत भी मिलने लगे हैं । राज्यों में बीजेपी की पराजय और तमाम गैर-बीजेपी सरकारों का इस आंदोलन में पूरी तरह से शामिल होते जान इसी बात को प्रमाणित करता है । विपक्ष की लगभग सभी पार्टियों ने इस आंदोलन के प्रति अपनी पूर्ण एकजुटता जाहिर की है । चुनावों की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के मैदान में भी मोदी-शाह-आरएसएस को पूरी तरह से पराजित करना इस ऐतिहासिक आंदोलन के युगांतकारी तार्किक अंत का एक अनिवार्य हिस्सा है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें