दो दिन पहले भारत का सबसे बड़ा साइकिल बनाने का एटलस का कारखाना बंद हो गया । एटलस के बंद होने ने हमारे लिए बंगाल के सेन रेले कारखाने की यादों को ताजा कर दिया ।
सेन रेले आसनसोल के निकट के कन्यापुर में स्थित कारखाना था जिसकी सालाना 2 लाख साइकिल बनाने की क्षमता थी । इसकी रॉयल, रॉबिनहुड और हंबर साइकिलों की गुणवत्ता में कोई भी इसके बगल में खड़ा नहीं हो सकता था । 1952 में भारत के औद्योगिकरण की खास मुहिम के दिनों में इस कारखाने की स्थापना हुई थी । रेले बाइसिकल्स कंपनी इंगलैंड के नाटिंह्गटन में स्थित दुनिया की सबसे बड़ी और बेहतरीन साइकिल निर्माता कंपनी थी जो 1885 से वहां साइकिल बना रही थी । उसकी साइकिलें पूरे यूरोप और अमेरिका तक में छाई हुई थी । उसी कंपनी के साथ सहयोग के आधार पर साइकिल पार्ट्स के आयातकर्ता सेन एंड पंडित के सुबीर सेन और उनके दो बेटों, अभिजीत और संजय ने सेन रेले के कारखाने की स्थापना की थी ।
कन्यापुर में लगभग सवा लाख वर्गफुट पर बने इस साइकिल कारखाने का पूरा कैंपस आज भी किसी कारखाने के कैंपस के लिये ईर्ष्या का विषय हो सकता है । अधिकारियों, मजदूरों के आवासीय बंगलों के साथ ही कैंटीन, गैरेज, मेन्टेनेंस, स्पोर्ट्स आदि की शानदार सुविधाओं से भरा यह कैंपस पेड़ों और तराशी हुई घास से हमेशा चमकता रहता था ।
लेकिन उत्पादन शुरू होने के पंद्रह साल बाद ही ’70 के जमाने में देखा गया कि यह कंपनी क्रमशः एक बीमार उद्योग में बदलती जा रही है । अंत में 1975 में केंद्र सरकार ने इसका आंशिक अधिग्रहण करके साइकिल कॉरपोरेशन आफ इंडिया की स्थापना की । 1980 में केंद्र ने इसका पूर्ण अधिग्रहण कर लिया और अंत में 2001 में यह कारखाना पूरी तरह से बंद हो गया ।
सेन रेले बंगाल के ट्रेडयूनियन आंदोलन की एक गजब मिसाल था जहां के मजदूरों की सांस्कृतिक गतिविधियों की भी चर्चा हुआ करती थी । लेकिन इस कारखाने के क्रमशः पतन की भी अपनी ही एक कहानी है ।
बंगाल के वर्दवान जिले के आसनसोल के ही सीपीआई(एम) के एक सबसे बड़े नेता हुआ करते थे — रबीन सेन । वे ब्रिटिश नौ सेना के सैनिक थे और 1946 में जब मुंबई में अंग्रेजों के खिलाफ नौ विद्रोह हुआ था, रबीन सेन उस विद्रोह में शामिल थे । 1946 के उन क्रांतिकारी दिनों के अपने अनुभवों पर उन्होंने एक बहुत शानदार किताब लिखी है जिसका नाम अभी याद नहीं आ रहा है । वे 1971 और 1977 में आसनसोल से ही सांसद हुए थे ।
सेन रेले के बारे में उनके मुंह से सुनी कहानी ही हमें आज याद आ रही है । वे बताते थे कि हम कारखाने के मजदूरों को पूंजीवादी शोषण के बारे में बताते हुए कहते थे कि कैसे उत्पादन के जरिये अतिरिक्त मूल्य उत्पन्न होता है जिसे पूंजीपति अपने मुनाफे के तौर पर हड़प लेता है । इसकी और भी ज्यादा सरलीकृत समझ देते हुए समझाया जाता था कि दिन के आठ घंटों के काम में मजदूर अपने लिये सिर्फ चार या पांच घंटे ही काम करता है और बाकी समय का काम वह मालिक के लिए करता है ।
कामरेड सेन ने मजाक करते हुए कहा कि हमारी इस सरल शिक्षा का एक असर यह हुआ कि मजदूरों ने चार-पांच घंटे काम करने के बाद काम में ढील देनी शुरू कर दी, क्योंकि उनकी वर्ग चेतना उन्हें मालिक के लिए काम करने से रोकने लगी थी । फलतः जो होना था, वही हुआ । एक बार बिगड़ चुकी स्थिति को बाद में संभालना ही कठिन हो गया । और, अंत में सेन रेले साइकिल कारखाना ही उठ गया ।
वैसे भी विचारों के हर ठोस रूप की यही विडंबना है कि वह विषय को बहुत कुत्सित ढंग से संकीर्ण और सीमित कर दिया करता है । किसी भी प्रकार का सरलीकरण विश्लेषण के अर्थ का अनर्थ कर देता है, यह उसी का एक उदाहरण है । इस पूरी कहानी का आज के काल में एटलस के बंद होने से दूर-दराज का भी कोई संपर्क नहीं है । उससे सिर्फ इतना ही संबंध है कि सेन रेले भी एटलस की तरह का एक सबसे बेहतरीन साइकिल कारखाना था जो अब अतीत की चीज बन चुका है ।
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