बुधवार, 5 अगस्त 2020

राम मंदिर के शिलान्यास का भव्य सरकारी आयोजन किस बात के संकेत देता है ?


­अरुण माहेश्वरी

आज सभ्यता के सबसे बड़े संकट कोरोना के काल में भारत में राम जन्मभूमि मंदिर के शिलान्यास का जो भव्य आडंबरपूर्ण कार्यक्रम संपन्न हुआ वह भारतीय राज्य की धार्मिक निष्ठा की शक्ति का नग्न प्रदर्शन था । जिस काल में राज्य की स्वास्थ्य, शिक्षा और जन-कल्याणकारी पाशुपत शक्ति को संजोने और पूरी निष्ठा के साथ उसको सामने लाने की जरूरत है, उस काल में धार्मिक आस्था के विषय को राष्ट्र की सबसे प्रमुख जरूरत के रूप में पेश करना ही इस सच को दर्शाता है कि अभी भारत में राष्ट्र की प्राथमिकताएं किस हद तक अपनी धुरी से हट कर पूरी तरह से गड्ड-मड्ड हो चुकी है । इसके भारी दुष्परिणाम हम रोजमर्रा के सामाजिक-आर्थिक जीवन में देख ही रहे हैं । किसी भी सामाजिक-आर्थिक समस्या का तो जैसे कहीं कोई अंत ही नहीं दिखाई देता है । सबसे दुर्भाग्यजनक बात यह है कि सरकार को खुद इस देश की वास्तविकता का कोई बोध नहीं हो पा रहा है क्योंकि उसने इन छः सालों में अपने दैनंदिन राजनीतिक स्वार्थों को साधने के लिए सभी आर्थिक-सामाजिक तथ्यों के आंकड़ों को इस हद तक विकृत कर दिया है कि पुख्ता सूचनाओं के आधार पर सटीक नीतिगत निर्णयों तक पहुंचना आज सबसे अधिक दुष्कर काम हो चुका है । विडंबना देखिये कि इस संकट के काल में आज सभी प्रमुख अर्थनीतिविदों की भारत सरकार से सबसे बड़ी और पहली मांग यह है कि वह तत्काल ऐसे जरूरी कदम उठाए जिनसे सब को अर्थनीति संबंधी सही आंकड़े उपलब्ध हो सके । तभी अर्थव्यवस्था के रोगों के निदान का भी कोई सटीक रास्ता खोज पाना संभव होगा ।  
यहां तक कि कोरोना के इलाज और वैक्सिन के मामले में भी सरकार का यही रुख दिखाई देता है । हर रोज सरकार की ओर से झूठे आंकड़े दिये जाते हैं और झूठी आशाओं से सच पर पर्दा डाला जाता है । यथार्थ परिस्थिति के बारे में राष्ट्र को, और खुद सरकार के अलग-अलग विभागों को भी पूरी तरह से अंधेरे में रखा जाता है । आज के ‘टेलिग्राफ’ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में वैक्सिन को विकसित करने के काम में लगे खास गवेषकों ने इसके बारे में आईसीएमआर के दावों को बिल्कुल झूठा बताया है । 

बहरहाल, इन तमाम कारणों से ही आज देश पूरी तरह से अस्त-व्यस्त नजर आता है । सरकार की विफलताएँ जीवन के सभी क्षेत्रों में उसकी नाना प्रकार की अतियों के जरिये भी व्यक्त होती है । इसे हम सीमा की रक्षा से लेकर जनता के मूलभूत अधिकारों की रक्षा और आर्थिक नीतियों के मामले में भी साफ देख सकते हैं । 

इन हालात में पूरी सरकार का एक मंदिर के निर्माण को सबसे बड़ी राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाना सिर्फ और सिर्फ धर्म-आधारित राजनीति का ही एक विचारधारात्मक मुद्दा हो सकता है । जो लोग अपनी धार्मिक आस्था के चलते बड़ी मासूमियत से यह कह रहे हैं कि इससे उनके भगवान राम को अपना एक आलीशान घर मिल गया है, वे ऐसे अभागे है जो आज भी पूरी तरह से धर्म और अंधविश्वासों के जंजाल में ही फंसे हुए हैं । बुद्धि और विवेकवाद के वैज्ञानिक प्रकाश से वंचित वे ही तमाम प्रकार के बाबाओं और धर्मगुरुओं के कारोबार के विषय बने हुए हैं । मानसिक तौर पर वे इतने अविकसित है कि उनके दिमाग में इसकी प्रयोजनीयता के बारे में, एक आधुनिक राष्ट्र की प्राथमिकताओं के बारे में कोई सवाल ही नहीं पैदा हो सकते हैं । वे संशयहीन हो कर धर्म को ही आधुनिक राष्ट्र की आत्मा बताते हैं और पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि राम भारत की आत्मा है, उनके लिये एक भव्य महल का निर्माण ही भारत का निर्माण है ।
 
शिलान्यास समारोह में आरएसएस के मोहन भागवत और प्रधानमंत्री मोदी, दोनों ने ही इस मंदिर के निर्माण को राष्ट्र के उस आत्म-विश्वास की उपलब्धि बताया जो उनके अनुसार किसी भी राष्ट्र के आगे आत्म-निर्माण के लिये जरूरी होता है । धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले आरएसएस की यह हमेशा की जानी-पहचानी नीति रही है कि पहले बहुसंख्यक हिंदू धर्मावलंबियों में उग्र और जुझारू धार्मिक भावनाएं जाग्रत की जाए, राष्ट्र के निर्माण का रास्ता स्वतः खुल जाएगा । यही वजह रही है कि आरएसएस ने देश की सभी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के केन्द्र में हमेशा धर्म को रखा । जीवन के जिन तमाम पक्षों में धर्म का कोई स्थान नहीं होता है, वैसे लौकिक विषय कभी भी संघ की सोच के गंभीर विषय नहीं बन पाएँ हैं । 

कहना न होगा, आरएसएस के लोगों के मस्तिष्क की इसी धर्म-केंद्रित संरचना का खामियाजा पिछले छः साल से हमारा देश चुका रहा है जब देश की पूरी सत्ता आरएसएस के हाथ में आ चुकी है । आर्थिक, कूटनीतिक और जन-कल्याण के तमाम सामाजिक सवालों पर मोदी सरकार की विफलताओं का इन छः सालों में जो एक विशाल पहाड़ तैयार हो गया है, उसके मूल में भी मोदी और उनके पूरे दल-बल का यही मानस काम कर रहा है जिसमें राष्ट्रीय निर्माण के तमाम आधुनिक वैज्ञानिक पहलू कभी उभर ही नहीं पाते हैं । 
    
यह सही है कि किसी भी विचारधारा में कर्मकांडी आडंबरपूर्ण आयोजनों का काफी महत्व होता है । कर्मकांड का तात्पर्य ही यह है कि जो तबका मानसिक तौर पर इतना विकसित नहीं होता है कि बौद्धिक स्तर पर विचारधारा को आत्मसात कर जरूरी निष्ठा को अर्जित कर सके, उसकी आस्था और निष्ठा को सुनिश्चित करने के लिये उसे कर्मकांडों के आयोजनों में फंसा कर रखा जाए । यह वैसे ही है जैसे उपनिषद् कभी किसी कर्मकांड का विधान नहीं करतें । उपनिषदों के महान भाष्यकार शंकराचार्य कहते हैं कि जो वैदिक कर्मकांड अनुष्ठानादि करते हैं वे निम्न स्तर के होते हैं । उपनिषद् ज्ञानियों के लिए हैं जो सांसारिक एवं भौतिक सुखों से उपरत हों गए हैं और जिनके लिए वैदिक कर्मकांड का कोई विशेष प्रयोजन नहीं रह गया है । कहने का मतलब है कर्मकांड सिर्फ लाठियां भांजने वाले कार्यकर्ताओं को उलझाए रखने के लिए होते हैं, किसी ज्ञान चर्चा, निर्माण के सुचिंतित कामों के लिए नहीं । 

हमारा दुर्भाग्य है कि राष्ट्र सिर्फ लाठी भांजने वालों के हाथ में चला गया है । इसीलिये पंडित नेहरू ने आधुनिक सिंचाई और औद्योगिक प्रकल्पों को आधुनिक भारत के मंदिर कहा था, वहीं मोदी और संघ परिवार भगवान के मंदिर को ही आधुनिक राष्ट्र की आत्मा बता रहे हैं । आज के काल में सारी दुनिया में आतंकवाद ऐसी धर्म-आधारित उग्र राजनीति के कोख से ही पैदा हुआ है । रामजन्म भूमि को हथियाने का कथित संविधान-सम्मत तरीका कितना संविधान-सम्मत रहा है, इसे राजनीति के जगत का बच्चा भी अच्छी तरह से जानता है । बाबरी मस्जिद को ढहाने से लेकर संविधान की मूलभूत धर्म-निरपेक्ष भावना के साथ किये गये विश्वासघात के इतिहास को यहां दोहराने की जरूरत नहीं है । इसीलिये कहते हैं कि भारत आज क्रमशः उसी आतंकवादी राजनीति के एक सबसे बड़े केंद्र के रूप में उभरता हुआ दिखाई दे रहा है । गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा की तरह की तमाम प्रकार की समस्याओं जूझते किसी भी राष्ट्र पर आधिपत्य की राजनीति का यह सबसे पतनशील रूप बेहद डरावना है ।     
    

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