कल समानांतर इलाहाबाद के फ़ेसबुक लाइव पर अशोक वाजपेयी जी का पूरा घंटे भर का वक्तव्य सुना । नेमीचंद्र जैन की रंग दृष्टिके संदर्भ में भारतीय रंगमंच से उनकी प्रतिबद्धता का यह वृत्तांत अपनी तथ्यात्मकता की वजह से ही काफी महत्वपूर्ण था । इसकेलिये अशोक जी आंतरिक बधाई के पात्र है ।
अशोक जी के इस वक्तव्य में साहित्य और कला की तरह ही नेमी जी की रंग दृष्टि और रंग भाषा की बात आई पर जब रंग आलोचनाका विषय आया तो कविता के प्रतिमानों की बात होने लगी । रंगमंच को किसी न किसी प्रकार से कविता और उसमें जीवन कीसूक्ष्मताओं की अभिव्यक्ति का ही एक और रूप बताने का आग्रह दिखाई देने लगा जो हमें ज़रा भी उपयुक्त नहीं जान पड़ा ।
रंगमंच पर कविता के प्रतिमानों का प्रयोग कुछ मायनों में सांस्कृतिक क्षेत्र की दो बिल्कुल विपरीत चीजों में मेल बैठाने की एकज़बर्दस्ती की तरह था ।
अगर हम रंगमंच को महज सामूहिक मनोरंजन का ज़रिया नहीं मानते हैं, उसे एक गंभीर कला-रूप में देखते हैं तो रंग कला का ताना-बाना ही उसे जीवन की तमाम छुद्रताओं और उदात्तताओं के प्रकट रूप की सबसे मुखर अभिव्यक्ति का माध्यम बना देता है । यह एकप्रकार से बिल्कुल नि:स्व, आवरण-रहित प्रत्यावर्त्तित जीवन का प्रदर्शन होता है । इसमें कविता की तरह शब्द की शक्तियों और तात्पर्यार्थों का, लिखित पाठों के मौन और रिक्तताओं से जुड़ी संभावनापूर्ण अमूर्त सूक्ष्मताओं का कोई मायने नहीं होता । इसीलिये उसमें दुखांत होतेहैं, प्रहसन होते हैं , अर्थात् उदात्तता है या छुद्रता । यह विचारों की क्रियात्मकता का क्षेत्र है । इसीलिये इसका गहरा संबंध राजनीति से होता है ।कला के क्षेत्र की वह विधा जहां जैसे हर चीज बोलती है । रंगमंच में भावात्मक स्फोट की संभावनाओं का विषय हमेशा से एक विचारणीयमुद्दा रहा है । इसी आधार पर रंगमंच की दो अलग अलग धाराओं, ब्रेख्तियन और स्तानिस्लोवास्कियन धाराओं के बीच बुनियादी तौरपर भेद किया जाता है, यद्यपि अक्सर इस फ़र्क़ को प्रस्तुति की शैलियों का विषय बना कर छोटा कर दिया जाता है । रंगमंच जीवन के निचोड़ का प्रस्तुतीकरण होता है क्योंकि इसमें जीवन की पुनर्वापसी होती है । नि:शब्द अवचेतन का भी मुखर नाट्यांतरण । इसीलिये यह मूलत: संदेशवाही होता है ।
अगर रंगमंच की इस जैविक सच्चाई को नहीं समझा गया और उसे साहित्य के मानदंडों पर ही जाँचा-परखा जाने लगा तो इसकेविकास में किसी प्रकार का गंभीर योगदान संभव नहीं प्रतीत होता है ।
आधुनिक भारतीय रंगमंच उन क्षेत्रों में ही वास्तव अर्थों में क्यों विकसित हुआ जिनमें आधुनिक सामाजिक जीवन और नवजागरण केबुद्धिवादी आंदोलन का इतिहास मिलता है, यह विचार का एक प्रमुख विषय होना चाहिए । इसकी ज़मीन तीव्र भावनात्मक और विचारधारात्मक घात-प्रतिघातों की ज़मीन होती है ।
हम नहीं जानते कि नेमी चंद्र जी ने रंगमंच के इस सामाजिक उत्स की दिशा में कितना काम किया था । इस वार्ता से यदि उस परकुछ रोशनी गिरती तो शायद यह वार्ता और भी उपयोगी होती । नेमी जी की रंग दृष्टि की सीमाओं-संभावनाओं केआलोचनात्मक विश्लेषण का एक रूप सामने आ पाता । हिंदी रंगमंच की चुनौतियों को ज़्यादा यथार्थ रूप में समझा जा सकता था।
- अरुण माहेश्वरी
हम यहाँ अशोक जी के वक्तव्य को मित्रों से साझा करते हैं :
https://www.facebook.com/samanantarallahabad/videos/393142218315837/
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