रविवार, 13 सितंबर 2020

‘सरकारों का बढ़ता हुआ क़र्ज़’


सरकारें उतना अधिक क़र्ज़ ले सकती है जितना पहले सोचा नहीं गया था )  





 इकोनोमिस्ट’ पत्रिका के ताज़ा 12 सितंबर के अंक में आज महामारी के काल में दुनिया की सरकारों के द्वारा उठाए जा रहे क़र्ज़ के मसले पर एक लेख है - Govt. Debt : Putting on weight’  जो भी सरकार की मुद्रा और क़र्ज़ नीति के विषय दिलचस्पी रखते हैंउनकी समझ के लिये यह एक अच्छा लेख है  हम यहाँ हिंदी में उस लेख को सरल रूप में रख दे रहे हैं  कोरोना के प्रारंभ से ही सरकारके खर्च को बढ़ाने के लिए ज़रूरी मुद्रा और क़र्ज़ नीति की बात बार-बार कही जाती रही हैपर मोदी सरकार के कान पर जूं तक नहींरेंगती है  ‘इकोनॉमिस्ट’ का यह लेख इस माँग के पीछे के सैद्धांतिक पक्षों को पेश करता है  हम यहाँ उस लेख के लिंक को भी साझाकर रहे हैं  


लेख का शीर्षक है -‘सरकारों का बढ़ता हुआ क़र्ज़

सरकारें उतना अधिक क़र्ज़ ले सकती है जितना पहले सोचा नहीं गया था ) 


मैक्रोइकोनोमिक्स के जन्मदाता जॉन मैनर्ड केन्स के बारे में सभी जानते हैं कि वे खास परिस्थिति में सरकारों के द्वारा भारी मात्रा में बाजारसे क़र्ज़ उठाने की नीति के पक्षधर थे  लेकिन परवर्ती दिनों में ‘नव-केन्सवादी’ इस मामले में उनके जितने उदार नहीं रहे  वे क़र्ज़ उठाने मेंलाभ से ज़्यादा ख़तरा देखने लगे  


लेकिन 2010 के बाद पेंडुलम फिर दूसरी दिशा में मुड़ चुका है  और कोई चारा  देखकर इधर कई सरकारों ने काफ़ी क़र्ज़ उठाया हैंऔर इसके लिए उन्हें अब तक कोई परेशानी नहीं आई है  


क़र्ज़ उठाने के बारे में केन्स के विचार मंदी के बारे में उनके नज़रिये से जुड़े रहे हैं  सन् ‘30 की महामंदी के वक्त उन्होंने अपनी किताबरोज़गारब्याज और मुद्रा का सामान्य सिद्धांत’ लिखी जिसमें इसे उन्होंने एक दुश्चक्र बताया था  मंदी तब आती है जब लोगों में धनसंचय की प्रवृत्ति अचानक बढ़ जाती हैइससे लोग खर्च कम करते हैंजिससे बेरोज़गारी बढ़ती है और फिर बेरोज़गारी के चलते लोगों केद्वारा खर्च और कम होता है इत्यादि  यदि सरकार क़र्ज़ उठा कर खर्च बढ़ा देती है तो लोगों के द्वारा खर्च में कमी को पूरा किया जासकता है अथवा उसे रोका जा सकता है  


द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की परिस्थिति में वित्तीय प्रोत्साहन पर बहस उतनी महत्वपूर्ण नहीं रह गई थी  निर्माण के तेज कामों ने मंदी कीचिंता को वैसे ही दूर कर दिया था  कुछ अर्थशास्त्रियों ने कहना शुरू कर दिया था कि लोग अंत में प्रोत्साहक कदमों से इस प्रकार कामेल बैठा लेते हैं कि उनका असर कमजोर हो जाता है  इस सिद्धांत के एक प्रमुख प्रवर्त्तक राबर्ट बैरों का मानना था कि उल्टे इससे लोगखर्च में कटौती और ज़्यादा बचत करने लगते हैंक्योंकि उन्हें करों के बढ़ने का डर रहता है। सरकारी खर्च के लाभ का असर भी कम होजाता है  1970 और 1980 के जमाने की आर्थिक घटनाओं से केन्स की मूल चिंता का महत्व और कम हो गया  


सच यह है कि केन्स के सिद्धांतों को मानने वाली सरकारों ने तब जिस प्रकार अर्थ-व्यवस्था को चलायावे उसमें विफल रही थी  धीमाविकासमुद्रा स्फीति और बढ़ती हुई बेरोज़गारी के तिहरे असर ने प्रोत्साहन से मंदी से निपटने के सिद्धांत को अचल कर दिया 


अब सरकारों की मुद्रा नीति पर ज़ोर दिया जाने लगा  जब अर्थ-व्यवस्था धीमी हो तो मुद्रा नीति को ढीला कर दोक़र्ज़ उठाना आसानबना दो और इस प्रकार लोगों को खर्च के लिए प्रेरित करो  सरकार के द्वारा ज़्यादा क़र्ज़ मत उठाओ  जीडीपी के अनुपात में यदिसरकारें ज्यादा क़र्ज़ उठाती है तो बाज़ार आम लोगों को क़र्ज़ मुहैय्या नहीं करायेगा तथा ब्याज की दर बढ़ जाएगी  मुद्रा नीति कीउपयोगिता के लिए वित्तीय नीति के बारे में ज़्यादा संयम की माँग की जाने लगी। 


सन् 2000 के बाद से इस दृष्टिकोण की समस्याएँ फिर से सामने आने लगी। 1980 के जमाने के बाद से ही ब्याज की दर क्रमशगिरनेलगी थी  सन् 2000 तक वह सबसे कम स्तर पर पहुँच गई  इससे केंद्रीय बैंक के लिए ब्याज की दर में और कमी करके अर्थ-व्यवस्थाको प्रोत्साहित करने का रास्ता ही नहीं बचा  वैश्विक वित्तीय संकट के चलते ब्याज की दर लगभग शून्य तक पहुँच गई  सरकारों नेमुद्रा नीति के साथ नोट छाप कर मुद्रा की मात्रा बढ़ा कर उसकी उपलब्धता को आसान बनाने की तरह के और भी कई कदम उठाने शुरूकर दिये  लेकिन अर्थ-व्यवस्था चंगी नहीं हुई 


यहाँ से फिर एक बार सबका ध्यान केन्स की ओर जाने लगा  सन् 2012 में अमेरिका के एक पूर्व वित्त मंत्री और अर्थशास्त्री ब्रैड डी लौंगने क़र्ज़ उठा कर बड़े पैमाने पर केन्स का रास्ता अपनाने का सुझाव पेश किया  ब्याज की दर में कमी के चलते इससे जीडीपी में वृद्धि सेजो लाभ होगा वह क़र्ज़ पर पड़ने वाले सरकार के खर्च से कहीं ज़्यादा होगा  


आगे और भी कई केन्सवादी सामने आने लगे जो यह मानते हैं कि केन्सियन नीति कोई तात्कालिक नीति नहींबल्कि सरकारों की स्थाईनीति होनी चाहिए  आबादी की बढ़ती हुई उम्र और तकनीक के विकास की मंथर गति से वैसे ही माँग में दीर्घकालिक कमी पैदा होती है इसमें लंबे काल तक ब्याज की दर में कमी के बने रहने को भी माँग की कमी के प्रमाण के रूप में देखा गया  


जो सरकार के द्वारा क़र्ज़ उठाने की नीति पर संदेह करते हैंउनका तर्क है कि इससे ब्याज की दर बढ़ जाएगी  लेकिन जिस प्रकारलगातार ब्याज की दर कम बनी हुई हैउससे वित्तीय प्रोत्साहन के लिये क़र्ज़ उठाना और ज्यादा आकर्षक हो जाता है  बहुत कम ब्याजकी दर का अर्थ है कि अर्थ-व्यवस्था बहुत तेज़ी से बढ़ सकती है  कुछ देशों में जो नकारात्मक दर चल रही है उससे तो यह भी है कि क़र्ज़को चुकाने के वक्त क़र्ज़ ली गई राशि से कम का भुगतान करना पड़ेगा  


आधुनिक मुद्रा सिद्धांत’( एमएमटीको मानने वालों का तो और भी मानना है कि सरकारों को उस हद तक क़र्ज़ लेते जाना चाहिएजिससे वह सभी लोगों को रोज़गार में लगा सके। केंद्रीय बैंक को सिर्फ़ इस बात का ख़्याल रखना चाहिए कि ब्याज की दर  बढ़ने पाए अभी एमएमटी आर्थिक नीतियों के केंद्र में नहीं आया है  पर वामपंथियों ने इसे स्वीकारा  है  इसके समर्थकों में एक अमेरिकी सीनेटरबर्नी सैंडर्स भी हैं  


सरकार के क़र्ज़ के बारे में सोच में आए इस बदलाव के कारण ही आज जब महामारी के वक्त सरकारें भारी क़र्ज़ उठा रही है तो दुनियाके अर्थशास्त्री इससे जरा भी परेशान नज़र नहीं आते हैं  चर्चा इस बात पर है कि सरकारें किस हद तक क़र्ज़ उठाए ? जापान ने महामारीके पहले ही जीडीपी के 154 प्रतिशत जितना क़र्ज़ उठा लिया था  अब यदि महामारी के बाद भी जापान और क़र्ज़ उठा सकता है तोज़ाहिर है कि दूसरे देशों के लिए तो इसमें कोई बाधा नहीं होनी चाहिए  


पर ब्याज के दर का मसला बरकरार है  ऐसी नौबत भी  सकती है कि आज जिस दर पर क़र्ज़ लिया जा रहा हैउसे आगे जारी रखनेके लिये ज़्यादा दर चुकानी पड़े  


इसीलिये क़र्ज़ में उठाई गई राशि से लाभ का पहलू ध्यान में रखा जाना चाहिए  इसके अलावा यदि निजी कंपनियां क़र्ज़ पर ज़्यादाब्याज देती है तो सरकार को भी उससे संगति रखनी होगी  अमेरिका में पूँजी लगाने के लाभ के बावजूद वहाँ निवेश नहीं हो रहा है इससे पता चलता है कि निवेश के मामले में और भी कई कारण काम करते हैं  यह संभव है कि निवेश से वहाँ लोगों को अपेक्षित लाभनहीं हो रहा हो  इस मामले में सरकार के लिये बहुत कुछ करणीय होता है  जब तक निजी निवेश ज़्यादा नहीं होता हैसरकार के द्वाराक़र्ज़ उठाना लाज़िमी बना रहता है  सरकारी निवेश भी निजी निवेश को प्रोत्साहित करता है  


क़र्ज़ उठाने के बजाय व्यवस्थागत परिवर्तनों का रास्ता इस क्रानिक बीमारी से निकलने का एक रास्ता हो सकता है  लेकिन मुश्किल कीबात यही है कि माँग में कमी के कारण को कोई भी सटीक रूप में नहीं जानता है  क्या तकनीकी प्रगति के कारण ऐसा हो रहा है ? क्याग़ैर-बराबरी के कारण ऐसा है जिससे पैसे वालों के पास सारा धन चला जाता है ? क्या वित्तीय बाज़ार में अस्थिरता के कारण भी लोगऔर सरकारदोनों खर्च नहीं करते हैं ? क्या इन सबके पीछे आबादी की बढ़ती हुई उम्र है ? 


आबादी की उम्र को कम करना संभव नहीं है  माँग में बाधक दूसरी व्यवस्थागत समस्याओं से निपटने पर ब्याज की दर बढ़ सकती है जिन सरकारों पर पहले से ही क़र्ज़ का काफ़ी बोझ हैउनके लिए कठिनाइयाँ हो सकती हैं  लेकिन इससे होने वाले विकास से सरकारको आगे और क़र्ज़ की ज़रूरत कम हो जायेगीजीडीपी बढ़ेगा और कर-राजस्व में वृद्धि होगी  उससे सरकारों के लिए क़र्ज़ चुकाना आगेआसान होगा  बाज़ार की अस्थिरता को नियंत्रित किया जा सकता है  ग़ैर-बराबरी को भी कम किया जा सकता है  


अब सब मानने लगे हैं कि सरकार के द्वारा क़र्ज़ लेना और खर्च करना अर्थ-व्यवस्था को स्थिर करने का एक महत्वपूर्ण तरीक़ा है औरब्याज की दरों को सामान्य तौर पर कम रखना भी ज़रूरी है ताकि सरकारें न्यूनतम खर्च पर क़र्ज़ की शर्तों को पूरा कर सके  सरकार काक़र्ज़ लेना और खर्च करना प्रगति का सूचक है  


आज की दुनिया के अनेक दुखों को दूर करने का उपाय है सरकार के द्वारा क़र्ज़ उठाना  लेकिन इसमें दो बातों का ज़रूर ध्यान रखाजाना चाहिए : आमदनी से ज़्यादा खर्च करने पर यह हमेशा देखना चाहिए कि खर्च किस चीज़ पर किया जा रहा हैऔर दूसरा सरकारोंको अंततब्याज की दरों में वैश्विक परिवर्तन की परिस्थिति की तैयारी रखनी चाहिए  यह वैसा ही है जैसे 2020 ने बता दिया है किआपको किसी भी विरल क़िस्म की तबाही के लिये भी तैयार रहना चाहिए 


The Economist | Putting on weight 

https://www.economist.com/node/21791699?frsc=dg%7Ce 

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