सोमवार, 7 सितंबर 2020

आलोचना एक सृजनात्मक विधा है

 

(‘अनहद’ के नए अंक की समीक्षा)

—अरुण माहेश्वरी

 

  

इलाहाबाद से प्रकाशित ‘अनहद’ पत्रिका का जून 2020 का अंक चार दिन पहले ही मिला । इसे ‘अनहद’ का एक आलोचना विशेषांक कहा जा सकता है । हाल में दिवंगत कुछ लेखकों पर श्रद्धांजलि स्वरूप समीक्षामूलक लेखों और आलोचना के सिद्धांतों पर लेखों का लगभग चार सौ पन्नों का एक भारी अंक । 


आलोचना साहित्य की स्वयं में एक अनोखी सर्जनात्मक विधा है जो रचनात्मक साहित्य से कहने के लिए महज इतनी ही अलग है कि रचनात्मक साहित्य में जहां जीवन के कथित यथार्थ के चित्रों का रचना की आधार-सामग्री के तौर पर इस्तेमाल होता है, तो आलोचना में साहित्य के पाठों में वर्णित छवियों और विषयों को आधार बनाया जाता है । पर वास्तव में, दोनों में ही प्रयुक्त तो लेखक के चित्त में बैठी छवियां ही होती है, भले वे यथार्थ की छवियां हो या छवियों की छवियां । किसी भी स्थिति में ज्ञेय तत्व का पूर्ण प्रकाश इसीलिये संभव नहीं है क्योंकि यदि वह पूर्ण प्रकाशित हो जाए तो फिर सर्जनात्मकता की संभावना ही शेष हो जाएगी । अर्थात् वस्तु का अभाव तो सर्जनात्मकता की पहली शर्त है । यदि प्रत्यक्ष जीवन के बजाय जीवन के किसी अन्य पाठ के आधार पर ही कोई लेखन किया जाता है तो उसमें वस्तु तत्त्व का अभाव उसकी सर्जनात्मकता पर किसी प्रश्न चिन्ह का कारण नहीं बन सकता है । कह सकते हैं कि साहित्य यदि मनुष्य के जीवन जगत की विधा है तो आलोचना उसके प्रतीकात्मक जगत की, उसके भाषाई जगत की, पर मनुष्य के चित्त में इन दोनों का ही दूसरे से कमतर स्थान नहीं है । मार्क्सवादी पदावली में यह भी एक आधार और अधिरचना की द्वंद्वात्मकता का विषय है, जिसमें अधिरचना के तत्त्व कब आधार की भूमिका अदा करने लगते हैं, पकड़ना मुश्किल होता है । आधार की निर्णायक महत्ता द्वंद्वों की बहुलता को स्थायी रूप में स्वीकार लेने पर तत्त्वतः कोई विशेष मायने नहीं रखती है । आलोचना में जीवन भाषा के पाठ रूपों के जरिये प्रतिबिंबित होता है तो रचनात्मक साहित्य में भाषा के मानवीय व्यवहार के चित्रों के जरिए । साहित्य और आलोचना के बीच भाषा के जगत की इस तात्त्विक समानता को यदि समझ लिया जाए तो हमें लगता है, बहुत संभव है, आलोचना के प्रति हमारा नजरिया बुनियादी रूप से बदल सकता है । साहित्य में जीवन के सारे बिंब उसी भाषाई मिट्टी से गढ़े जाते हैं, जो आलोचना के लिए भी प्रयुक्त होती है और अपने नाना पाठों के जरिये सभी आलोचकीय उद्भावनाओं का स्रोत बनती है । 


बहरहाल, ‘अनहद’ के इस अंक में हमारा भी एक लेख है — ‘आलोचना के एक सर्वकालिक ढांचे की तलाश में’, जिसे नामवर सिंह पर अन्य कई लेखों के साथ मिला कर प्रकाशित किया गया है, संभवतः इसलिये क्योंकि हमारे लेख में अन्य कई प्रसंगों के साथ ही नामवर सिंह भी एक प्रमुख विषय के रूप में आए हैं । पर सच बात यह है कि इस लेख की पृष्ठभूमि में हिंदी आलोचना में एक गहरे गतिरोध की हमारी वह अनुभूति रही है जिसे हमने एक खास श्रृंखला में लिखे गए अपने आलोचनात्मक लेखों के संकलन, ‘आलोचना के कब्रिस्तान से’ में कई व्यवहारिक कोणों से व्यक्त करने की कोशिश की थी । ‘अनहद’ के इस लेख में हमारी मूल कोशिश आलोचना के उन्हीं अभावों से उसके एक सर्वकालिक ढांचे को हासिल करने की जरूरत को बताना है, जो साहित्य और विचारधारा के वैविध्यपूर्ण समुच्चय में हर विधा और हर क्षेत्र के अपने और अन्य से जुड़े द्वंद्वात्मक सूत्रों से उस विधा विशेष की अलग पहचान का आधार मुहैय्या करा सके, ताकि अन्य की संगति में उसके आगे के विकास के रास्ते का संधान मिल सके । 


अब जब एक गुच्छ आलोचना से तैयार किया गया यह पूरा अंक हमारे हाथ में है, हमने इसे बड़े ध्यान से उलटा-पुलटा, इस उम्मीद के साथ कि ‘कब्रिस्तान’ के खंडहर में से क्यों न हम कुछ ऐसे टूटे हुए दीयों को ही तलाशें, जिनसे सर्जनात्मक स्फोटों की संभावनामय आलोचना के कुछ संकेतों को तो पाया जा सके । 


अंक में प्रवेश की पहली ठोकर, जिसने आगे कदमों को सावधानी से बढ़ाने का संदेश दिया, नमिता सिंह के ‘मित्रो मरजानी : एक पुनर्पाठ’ के पहले लेख से ही लगी ।

 

‘मित्रो’ हिंदी का एक क्लासिक, एक ठेठ परिवार की स्त्रियों के सुखों-दुखों की ठाठ का जीवंत शब्द चित्र है । किसी पहाड़ी नदी की तरह का उमड़ता-घुमड़ता इसका तेज प्रवाह ऐसा कि कथा का सहभागी पाठक उसकी ताजगी भरी हवा में उड़ने लगे । स्त्री की कामुकता, सारे छल-छंद और वासनाएं समर्पण, प्रेम, वात्सल्य और उदात्तता जितने ही सहज काम्य हो उठते हैं । आदमी नए मानव-बोध से संस्कारित होता है ।

 

कहने के लिए तो ‘मित्रो’ एक चरित्र-केंद्रित कथा है । पर सच कहा जाए तो वह गुरुदास के संयुक्त परिवार की भांति-भांति की स्त्रियों के एक भरे-पूरे संसार की कहानी है । गुरुदास की पत्नी धनवंती, बड़ी बहू सुहाग, मंझली मित्रो, छोटी फूलाँवंती, फूलाँवंती की मां मायावंती और मित्रो की मां बालो इन सबकी कहानी है । बाकी सब हैं तभी मित्रो है और मित्रो है तो बाकी सब भी हैं । कोई भी अपने में पूरा नहीं है । पर मित्रो जैसे सबकी उड़ान का कोई खुला हुआ कोना है । मित्रो हिस्टेरिक है । वह मर्यादाओं की ओट छिपी नामर्दी, धूर्तता और स्वार्थपरता को उघारने से संकोच नहीं करती, इसीलिये सबकी कामना और आशंका, दोनों की पात्र है । वह हमलावर है, इसीलिये तो वरेण्य भी है । लेखक का मुख्य आकर्षण ।

 

मित्रो जैसे किसी चरित्र पर इस समझ की बुनियाद पर कैसे कोई चर्चा हो सकती है कि ‘साहित्य समाज का प्रतिबिंब है’ ? यह आलोचना मात्र का एक बुनियादी सवाल है । प्रतिबिंब तो विषय का एक स्थिर, ऊपर से दिखाई देने वाला सामान्य रूप होता है । वह चरित्र के प्रति आकर्षण की पहली झलक जितनी अहमियत जरूर रख सकता है । पर रचना की निर्मिति तो चरित्र के साथ लेखक के निबाह के उपक्रम से होती है । यदि आलोचना का सरोकार साहित्य से है, तो उसे अपनी जगह को रचना की लय में ढूंढना होगा, राजनीति और समाजशास्त्र की जरूरतों को पूरा करने वाली श्रेणियों में नहीं, जिनके लिए साहित्य अन्य कईं स्रोत सामग्रियों में महज ‘और एक’ है । चरित्रों के सामान्यीकरण के सिद्धांत उनके काम के तो हो सकते हैं, पर गहराई से देखने पर पता चलेगा कि साहित्य की संरचना में प्रवेश के लिए वे बेहद अनुपयुक्त है । लेखक के पास चरित्र किसी वर्ग, जाति, लिंग का प्रतिनिधि बन कर नहीं आता है जिस पर खास-खास सूत्रों के प्रयोग से उसका चित्रण किया जा सके । इस यांत्रिकता को कृत्रिम बुद्धि वाले सिलिकन वैली के बादशाहों की उन महत्वाकांक्षी योजनाओं में उसके चरम रूप में देखा जा सकता है जिसमें उनका दावा है कि वे दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य के चरित्रों और ब्यौरों का डाटा के रूप में इस्तेमाल करके और भी उन्नत रचनात्मक साहित्य का उत्पादन कर देंगे । 


नमिता जी के ‘पुनर्पाठ’ का 75 फीसदी हिस्सा तो मित्रो के समय की सामान्यताओं और स्त्री मात्र की विशेषताओं की चर्चा से भरा हुआ है । जहां तक मित्रो की विशिष्टता का सवाल है, नमिता जी ने इस मामले में कृष्णा जी के उसकी कामुकता को बताने वाले चंद ब्यौरों को उद्धृत करना ही काफी समझा है । उन्होंने उन ब्यौरों में कृष्णा जी के अवचेतन में बैठे परिवार के बंद ढांचे में कैद स्त्रियों के संसार को भेदने की सुराख को नहीं पकड़ा । कहा जा सकता है कि इस प्रकार रचना के मुखर अहम् को सहला कर ही नमिता जी ने अपने आलोचकीय कर्म की इतिश्री कर ली । आलोचकीय विश्लेषण उस वक्त तक रचना के साथ न्याय नहीं कर सकता है जब तक वह रचानाकार की अटकन के तल तक नहीं जाता है और रचना के मर्म को नहीं पकड़ता । पात्र प्रत्यक्ष को भेदते हुए रचना को उजागर करने का माध्यम बनते हैं । रचनाकार का किसी पात्र को तेज रोशनी में लाना ही यथेष्ट नहीं होता । वह रोशनी ही अक्सर बाकी मंच के अंधेरे को गाढ़ा किया करती है । इस लिहाज से रचना के दायरे में रचनाकार का अहम्, जो ज्यादा ऊँची आवाज में बोला करता है, रचना में बाधक होता है । इसीलिये पात्र या रचना का परिवेश आलोचना का प्रस्थान बिंदु भर होता है, आलोचना अपना रास्ता बनाती है रचनाकार के अहम् से इंकार करके, सीधे पात्रों से अपना संपर्क बनाके । इतना कहना काफी नहीं होता है कि लेखक ने किसी खाम खयाली से अपने चरित्रों की रचना नहीं की है, वे हांड़-मांस के जीवित चरित्र है । सवाल है कि लेखक ने किसी चरित्र या वस्तु को अपना विषय क्यों बनाया ? इस सवाल से लेखक की अंतश्चेतना में प्रवेश करके आलोचना का रचनाकार से भी एक जीवंत संपर्क कायम होता है । कहानी समाज का प्रतिबिंब है, इतना सा कह के मित्रो की अहमियत पर सिर्फ उपयोगितावादी पर्दा डाला जा सकता है जबकि साहित्य की अस्मिता ही उपयोगितावाद के अस्वीकार पर टिके वास्तविक जीवन के एक स्वतंत्र प्रति-जगत के निर्माण पर टिकी होती है । आलोचना का विश्लेषणमूलक ढांचा जीवन के असंख्य विचित्र रूपों के संधान में साहित्य का सहयोगी बनता है, और इस प्रकार रचनाकार का भी सहभागी । आलोचना चरितार्थ होती है इस विश्लेषणात्मक सहभागिता से । बाकी सारे सामाजिक, वर्गीय, लैंगिक, जातिवादी सामान्यीकृत ढांचे अंततः जैसे  रचनाकार के पैरों की बेड़िया बनते हैं, जीवन के बारे में चंद तयशुदा, सख्त चौखटों में साहित्य को उतारने का सबब, साहित्य आलोचना में भी उनकी उपयोगिता सीमित ही होती है । आलोचना का काम लेखक की अपनी स्वतंत्र गति और उसकी लेखकीय परिणतियों को पेश करने का होता है और पात्रों की मानवीय संभावनाओं का संधान देने का होता है, जहां बाकी सारे सामान्यीकरण के चौखटे टूट जाते हैं । 

 

अगर ऐसा होता तो नमिता सिंह के पुनर्पाठ में मित्रो को स्त्री यौनिकता का विषय न बनाया गया होता ; मित्रो का स्वातन्त्र्य-बोध  ही अंत में उसकी कथित अन्तःप्रज्ञा के उदय के रूप में रेखांकित होता । तब नमिता जी की ही यह बात अधिक सार्थक होती कि “अगर एक गहरा विचार रचना की आत्मा में है, लेखक के मंतव्य में है तो फिर भाषा का रचाव, उसका शिल्प उसे असीमित ऊँचाई तक पहुंचने में मदद करते हैं ।” मित्रो कोई अकेला चरित्र नहीं, एक गृहस्थी की स्त्रियों के पूरे संसार का अंग है । यही इस कहानी की सबसे बड़ी खूबी है जो इसे किसी भी विश्व क्लासिक के समकक्ष दर्जा प्रदान कर सकती है । 


इसी प्रकार, नामवर जी पर लेखों में भी पुरानी इतिवृत्तात्मक अथवा सिद्धांत-चर्वण की ऊबाऊ शैली में लेखक की मंशा की तलाश आलोचना की एक बड़ी समस्या है । इनमें पंकज पाराशर के श्रद्धांजलि लेख में कुछ नई बातें कहने की कोशिश नजर आती है । “सौन्दर्यशास्त्र ने संस्कृति को सीमित और संकुचित किया । संस्कृति जीवन जगत की वास्तविकता से कट कर अलग हुई...इस प्रक्रिया में संस्कृति अपने सही अर्थ में एक विचारधारा बन गई...नाम पड़ा संस्कृतिवाद । ...सौन्दर्यशास्त्र की जन्मकुंडली को ध्यान में रखें तो मार्क्सवाद की जमीन पर कोई सौन्दर्यशास्त्र रचने में खतरे ही खतरे हैं ।...जर्मनी में ‘ जर्मन विचारप्रणाली’ के रूप में मार्क्स ने जिस मानसिकता का विवेचन किया है, यह सौन्दर्यशास्त्र उसी का एक अंग है ।” पाराशर ने नामवर जी के कथन से ‘संस्कृतिवाद’ के सच को इसमें सटीक रखा है । 


कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह पर जमा की गई सामग्री शोधार्थियों की टिप्पणियां है जो ऐसे किसी भी संकलन की मजबूरी हुआ करते हैं । दूधनाथ सिंह पर लगभग डेढ़ सौ पेज की सामग्री पहले से ही लेखक के कद से बहुत बड़ी है, अब उस पर और विस्तार से जाना सही नहीं लगता है ।

 

जो भी हो, कोरोना काल में ‘अनहद’ के इस अंक का प्रकाशन बहुत स्वागतयोग्य है । किसी भी बहाने यह अंक अगर हिंदी आलोचना के गतिरोध को झकझोरने का थोड़ा सा भी कारण बन सके तो इसका प्रकाशन सार्थक होगा ।                                


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