विरासत में मिली दिमागी बीमारियां स्नायु विज्ञान के लिए एक स्थायी चुनौती का विषय है । मनोविश्लेषण भी अक्सर इसे छूने में सफल नहीं होता है । इसके कारणों का रहस्य क्या है और इसके निदान के क्या रासायनिक उपाय संभव है, इस पर पिछले कई दशकों से शोध जारी है । इस बात का तो पता चल चुका है कि इसके कारण दिमाग के किन हिस्सों की खास मज्जागत बनावट में है । इन्हें एमिग्डला (Amygdala), हिप्पोकैंपस (Hippocampus) और कॉरटेक्स (Cortex) क्षेत्र कहते हैं । इस बीमारी को Fragile X Syndrome (FXS) के नाम से जाना जाता है । इस जानकारी के बावजूद अब तक यह पता नहीं चला है कि इनमें से किस हिस्से की गतिविधियों को मंदा किया जाए और किसे तेज, ताकि इस रोग पर नियंत्रण कायम किया जा सके ।
वैसे तो मनुष्य की बौद्धिक सीमाओं के बारे में संधान का काम, उनके भावनात्मक रुझानों ओर प्रतिक्रियाओं की प्रकृति पर शोध के काम में कई दशकों से दुनिया की दवा कंपनियां लगी हुई हैं । पर इस खास विषय में तकरीबन सात साल पहले उम्मीद की एक किरण पैदा हुई थी जब प्रयोगशाला में चूहों में उनके दिमाग के इस क्षेत्र पर नियंत्रण के लक्षण मिले थे । लेकिन जब वही प्रयोग मनुष्यों के मामले में पूरी तरह से विफल हो गया तो उस शोध में लगी हुई नोवार्टिस और रोश की तरह की भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भी हथियार डाल दिए । इसके बाद इस दिशा में उन्होंने अपने काम को पूरी तरह से रोक दिया ।
पर विज्ञान के क्षेत्र में हर विफलता ही आगे की सफलता के लिए कोई नया रास्ता खोज लिया करती है । बिल्कुल इसी तर्क पर दिलचस्प रूप में बंगलौर के नेशनल सेंटर फार बायोलोजिकल साइंसेस (NCBS) के शोधकर्ताओं ने सात साल पहले की विफलता के कारण की तलाश की और इसके साथ ही इस शोध में फिर से नई जान फूंक दी है । NCBS के शोधकर्ता सुमान्त्रा चटर्जी के नेतृत्व में इस दल में आज यूरोप और अमेरिका की कई संस्थाओं के जिसेल फर्नांडीस, प्रदीप मिश्रा, मोहम्मद सरफराज, नवाजा अलमा कायनात, अनुपम हाजरा और धीरज सोनग्रा आदि भी शामिल हैं ।
इस शोध दल ने अपने को खास तौर पर मनुष्यों की संवेदनाओं और उनके भय के केंद्र माने जाने वाला एमिग्डाला क्षेत्र पर ही अपने को केंद्रित किया । उन्होंने पाया कि दिमाग के इस हिस्से पर काम करने वाली औषधि ही दिमाग के दूसरे हिस्से में हिप्पोकैंपस क्षेत्र में भी समान रूप से काम करती है, जबकि उसकी जरूरत नहीं है । उनके काम के लिए जरूरी है कि दूसरे हिस्से में वह विपरीत दिशा में काम करें । अर्थात् जिन रिसेप्टर्स को एमिग्डाला क्षेत्र में तेज करना है, उन्हें ही दूसरे हिप्पोकैंपस क्षेत्र में मंद करना है । यह एक तीर से एक साथ दो विपरीत दिशाओं के लक्ष्य को साधने के असंभव की साधना है । इन शोधकर्ताओं ने पाया कि मनुष्य के आनुवंशिक FXS को दूर करने के लिए एमेग्डाला की गतिविधियों को रोकने के बजाय उनमुक्त किया जाना चाहिए । अर्थात् हिप्पोकैंपस और कॉरटेक्स क्षेत्र में तो रिसेप्टरों को मंद किया जाए और एमिग्डाला क्षेत्र में उन्हें तेज किया जाए । नोवार्तिस और रोश के शोध में एमिग्डला में ही इन्हें मंद करने की दिशा में काम किया जा रहा था ।
चटर्जी ने ‘टेलिग्राफ’ को दिए एक साक्षात्कार में कहा है कि हमने जितना सोचा था उससे यह काम कहीं ज्यादा कठिन साबित हो रहा है । पिछले 14 साल से एमआईटी के मार्क बियर भी उनके साथ इस समस्या के समाधान में जुटे हुए हैं ।
अंतिम शोध में NCBS के दल ने देखा है कि प्रयोगशाला में चूहे की संवेदनाओं और भय के भाव को नियंत्रित करने वाले एमिग्डाला के रिसेप्टर को एक बार तेज करके उन्हें क्रमशः पूर्ववत स्थिति में लाया जा सकता है । अर्थात् अन्य क्षेत्र पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को दूर किया जा सकता है । इससे मनुष्यों पर भी इस प्रकार के प्रयोग की एक संभावना पैदा होती है ।
पर इस विषय में मनोविश्लेषकों के कुछ हलकों की ओर से यह संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि ये सारे प्रयोग दिमाग के एक सीमित क्षेत्र पर किए जा रहे हैं । पर इन क्रियाओं से दिमाग के दूसरे क्षेत्रों को पूरी तरह से काट कर अलग नहीं रखा जा सकता है । आगे इस पर भी ध्यान देने की जरूरत होगी । अर्थात् अभी दिल्ली दूर है, पर उम्मीद की एक किरण जरूर पैदा हुई है कि जन्मजात आनुवंशिक मानसिक रोगों, FXS से देर-सबेर निपटा जा सकेगा । यह बात स्वयं में मनोविश्लेषण के क्षेत्र के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें