(सीपीआई (एम) की 23वीं कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे पर एक दृष्टिपात)
—अरुण
माहेश्वरी
सीपीआई(एम)
की 23वीं कांग्रेस केरल के कन्नूर शहर में आगामी 6-10 अप्रैल 2022 को होने जा रही
है । इस कांग्रेस में बहस के लिए पार्टी की केंद्रीय कमेटी ने राजनीतिक प्रस्ताव
का एक मसौदा जारी किया है । आगे एक सांगठनिक रिपोर्ट, और यदि जरूरी लगा तो पार्टी
के संविधान में कुछ संशोधनों का मसौदा भी जारी किये जाएँगे।
किसी
भी विश्व-दृष्टिकोण पर टिकी हुई राजनीतिक पार्टी के लिए अन्तर्राष्ट्रीय और
राष्ट्रीय राजनीति के आकलन के साथ ही संगठन संबंधी आकलन आपस में इस कदर एक
बोरेमियन गांठ (Borromean knot) में बंधा होता है कि इनमें से किसी एक को भी बाकी दोनों से कभी अलग
नहीं किया जा सकता है । अगर इन्हें जोर-जबर्दस्ती अलग किया जाता है, तो पार्टी के अंदर की पूरी संहति ही
बिखर जाने के लिए बाध्य है; पूरी पार्टी ही अचल हो जाएगी ।
कहने
की जरूरत नहीं है कि आज के जिस काल में सीपीआई(एम) की यह पार्टी कांग्रेस हो रही
है, उसमें प्रकट रूप में ही भारत सहित सारी दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन का गतिरोध
दिन-प्रतिदिन और ज्यादा गहरा और कठिन होता हुआ ही दिखाई देता है । लगता है जैसे कहीं
से भी इस गतिरोध की अंधेरी सुरंग से निकलने की कोई रोशनी, कोई रास्ता दिखाई नहीं देते
हैं ।
यही
कारण है कि सीपीआई(एम) ने अपनी कांग्रेस के लिए राजनीतिक प्रस्ताव का जो मसौदा
जारी किया है, उसके बहाने ही सही, कहीं बहुत ही गहरे में जाकर इस गतिरोध के कुछ मूलभूत
कारणों को टटोलने की जरूरत है ।
कहना
न होगा, परिस्थिति इतनी गंभीर है कि यह काम कम्युनिस्ट आंदोलन के उसके सामान्य
विवेक, विचार के उसके अब तक के प्रचलित मानदंडों की सीमा में रह कर संभव नहीं जान
पड़ता है । बल्कि इसके लिए जरूरी लगता है कि इस पारंपरिक सोच के ढांचे के बुनियादी
आधारों को ही चुनौती देते हुए किसी भी प्रकार से क्यों न हो, सोच के इस पूरे ढांचे
का अतिक्रमण करते हुए पूरे विषय को समझा जाए ।
अन्तर्विरोधों
के बारे में :
राजनीतिक
प्रस्ताव के मसौदे में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों का एक आख्यान पेश
करते हुए बिल्कुल सही वर्तमान काल के मुख्य अन्तर्विरोध के तौर पर साम्राज्यवाद और
समाजवाद के बीच के अन्तर्विरोध का जिक्र करते हुए कहा गया है कि “चीन-अमरीका टकराव,
क्यूबा तथा डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ कोरिया के प्रति अमरीकी साम्राज्यवाद का
लगातार बना हुआ आक्रामक रुख, साम्राज्यवाद और समाजवाद के बीच के केन्द्रीय
अंतर्विरोध को तीव्र करने वाला है ।” (पृष्ठ – 14)
यहीं
पर हमारा यह मूलभूत प्रश्न है कि किसी भी काल के ‘मुख्य, प्रमुख या केन्द्रीय
अन्तर्विरोध’ से हमारा तात्पर्य क्या होता है ? ‘काल का मुख्य अन्तर्विरोध’ सिर्फ राष्ट्रों
के बीच का अन्तर्विरोध नहीं हो सकता है । यह एक प्रकार से हमारे काल की सभ्यता का
मुख्य अन्तर्विरोध है जो दुनिया के हर कोने में, प्रत्येक राष्ट्र में, और
राष्ट्रों के बीच संबंधों में भी किसी न किसी रूप में अवश्य प्रकट होता है । इससे
कोई भी अछूता नहीं रह सकता है । दुनिया के पटल पर एक बार समाजवाद के उदय के साथ ही
पूंजीवाद और समाजवाद के बीच के अन्तर्विरोध ने मानव सभ्यता के एक ध्रुवसत्य का रूप
ले लिया है । हम किसी भी देश को किसी भी विशेषण, साम्राज्यवादी या समाजवादी, के
साथ क्यों न पुकारें, इस युग के अन्तर्विरोध के प्रभाव से इनमें से कोई भी मुक्त
नहीं रह सकता है ।
इसीलिए,
यह बुनियादी सवाल उठ जाता है कि क्या अमेरिका को साम्राज्यवादी कह कर वहां के समाज
में समाजवाद और जनतंत्र की ताकतों की उपस्थिति से पूरी तरह से इंकार किया जा सकता
है ? अथवा चीन को समाजवादी कह कर क्या वहां के समाज में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी
और जनतंत्र-विरोधी ताकतों की मौजूदगी से इंकार किया जा सकता है ?
अगर
ऐसा संभव होता तो अमरीका के राजनीतिक घटनाचक्रों का दुनिया के समाजवादी-जनतांत्रिक
आंदोलन के लिए कोई अर्थ ही नहीं हो सकता था ? तब ट्रंप के उदय के खतरे और ट्रंप के
पतन से पैदा होने वाली वैश्विक संभावनाओं पर चर्चा पूरी तरह से बेमानी, और एक सिरे
से खारिज कर देने लायक हो जाती है ।
ऐसी
स्थिति में जब लेनिन ने नवंबर क्रांति के बाद सोवियत संघ के निर्माण के वक्त
अमेरिका में उत्पादन-पद्धति तथा वहां के विकसित जनतंत्र के बारे में जो सकारात्मक
बातें की थी, अथवा उसी तर्ज पर अंतोनियो ग्राम्शी ने फोर्डवाद और अमेरिका की
पायनियरिंग सोसाइटी की जो विस्तृत और सकारात्मक चर्चा की थी, उन सबका कोई मायने ही
नहीं रह जाता है ! तब कला, विज्ञान और मानविकी के क्षेत्र में भी तब अमेरिकी समाज
से किसी प्रकार की उपयोगी अन्तरक्रिया बेमानी हो जाती है ।
बल्कि
सच यही है कि आज भी दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश होने के नाते अमेरिका में जनता
के पक्ष या विपक्ष में सरकार के हर मामूली कदम का सारी दुनिया के देशों की राजनीति
पर तीव्र असर पड़ता है ।
इतिहास
को टटोले तो यह समझने में कोई कष्ट नहीं होगा कि अमेरिका या किसी भी देश को
साम्राज्यवाद अथवा सोवियत संघ या किसी भी देश को समाजवाद का पर्याय मान लेना कम्युनिस्ट
आंदोलन की उस समझ का अभिन्न अंग है जो उसे शीत युद्ध के काल में सोवियत संघ से
विरासत में मिली हुई है, और जिसे उस काल में सोवियत संघ के विदेश नीति के हितों को
साधने के लिए विकसित किया गया था ।
यही
वह समझ है जिसकी वजह से हमारा कम्युनिस्ट आंदोलन अपनी राष्ट्रीय राजनीति के मामले
में भी अक्सर गंभीर चूक करता रहा है । इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण मनमोहन सिंह के
वक्त न्यूक्लियर ट्रीटी के वक्त सीपीआई(एम) की उस बचकानी समझ को भी कहा जा सकता है
जब वह अमेरिका-केंद्रित एकध्रुवीय विश्व की परिस्थिति में भारत सरकार से यह उम्मीद
करती हुई जान पड़ती थी कि वह सरकार अमेरिका से अपना कोई सरोकार ही नहीं रखे !
इस मूलभूत
समझ के कारण ही सीपीआई(एम) यह व्याख्यायित करने में हमेशा विफल रहती है कि कैसे
चीन और उत्तर कोरिया जैसे देश आज की दुनिया में जनतांत्रिक और समाजवादी ताकतों को
बल पहुंचाने के बजाय तानाशाही और साम्राज्यवादी-विस्तारवादी ताकतों को बल पहुंचाने
के कारकों की भूमिका भी अदा करते हुए जान पड़ते हैं ।
इस
समझ के कारण ही सीपीआई(एम) यूक्रेन में रूस के खिलाफ नैटो की साजिशों को तो देख
पाती है, पर रूस के द्वारा युक्रेन की राष्ट्रीय सार्वभौमिकता के बर्बर अतिक्रमण
की तीव्र निंदा से परहेज करती दिखाई देती है । इसके कारण ही हम भारत की सीमाओं पर
चीन की गतिविधियों के सम्यक आकलन में भी चूक कर सकते हैं । ताइवान को अपने में
मिलाने को लेकर चीन के अतिरिक्त आग्रह के पीछे के उग्र राष्ट्रवाद से आँखें मूँद
सकते हैं ।
चीन
में पनप रही इजारेदारियों, उनके बहु-राष्ट्रीय निगमों की गतिविधियां भी इन्हीं
कारणों से हमारी नजर के बाहर रह सकती है, जबकि खुद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में
भी उनके प्रति चिंता जाहिर करने वालों की कमी नहीं है । चीन की सरकार को भी समय-समय
पर वहां के विशालकाय कॉरपोरेट्स के खिलाफ कार्रवाई की बात करते हुए देखा जाता है ।
कहने
का तात्पर्य यही है कि अन्तर्विरोधों के बारे में बुनियादी तौर पर यह भूल समझ कि
उन्हें एक समग्र काल के अन्तर्विरोध के रूप में देखने के बजाय चंद राष्ट्रों के
बीच स्वार्थों की टकराहट के रूप में देखना अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के आकलन को
पूरी तरह से पटरी से उतार देने का कारक बन जाता है ।
इसीलिए
जरूरी है कि हमें बुनियादी रूप में दुनिया के प्रत्येक समाज की संरचना और उसकी गति
को सिर्फ दो वर्गों के बीच के अंतिम द्वंद्व के रूप में देखने के बजाय अनेक प्रकार
के द्वंद्वों के समूह की सामूहिक गति के रूप में देखने का अभ्यास करना चाहिए । तभी
हम दुनिया के तमाम देशों में समय-समय पर सामने आने वाले परस्पर-विरोधी रुझानों को
व्याख्यायित करने की एक समझ हासिल कर पायेंगे ।
चीन
का ही आर्थिक विकास वहां के राजनीतिक ढांचे को तमाम कमजोरियों से मुक्त किसी आदर्श
व्यवस्था का प्रमाणपत्र नहीं बन सकता है । उत्तर कोरिया के घोषित लक्ष्य ही वहां की
राजनीतिक व्यवस्था की गुह्यता से जुड़ें सवालों का कोई सही उत्तर नहीं हो सकता है
।
हम
फिर से दोहरायेंगे कि वैश्विक प्रमुख अथवा गौण अन्तर्विरोध कभी भी राष्ट्रों की
परिधि तक सीमित नहीं रह सकते हैं । ये अन्तर्विरोध दुनिया के हर देश में किसी न
किसी रूप में अनिवार्य तौर पर प्रकट होंगे ।
अन्तरविरोधों
के बारे में इस मूलभूत समझ के अभाव में विश्व परिस्थिति का हर आख्यान निरर्थक हो
जाता है । यदि समाजवाद और साम्राज्यवाद के बीच का अन्तर्विरोध दुनिया का केंद्रीय
अन्तर्विरोध है तो इसे दुनिया के सबसे विकसित और शक्तिशाली राष्ट्र में भी प्रकट
होना होगा, जितना यह सबसे कमजोर राष्ट्रों में होगा और सभी राष्ट्रों के बीच
संबंधों में भी दिखाई देगा ।
जैसा
कि हमने शुरू में ही कहा, कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों में उसका अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों
का परिप्रेक्ष्य, राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिप्रेक्ष्य और उसका सांगठनिक ढांचा,
ये सब आपस में इस प्रकार गुंथे होते हैं कि इनमें से किसी को भी अन्य से अलग नहीं
किया जा सकता है । इनमें से किसी एक को भी अलग कर देने पर बाकी दोनों भी अपने मूल
अर्थ को गंवा देने के लिए अभिशप्त हैं ।
यह
बात जितनी भारत के कम्युनिस्ट पार्टियों पर लागू होती है, उतनी ही चीन की
कम्युनिस्ट पार्टी, वियतनाम और दुनिया की किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी पर लागू होती
है । पार्टियों का सांगठनिक ढांचा भी उनकी सभी नीतियों को अनिवार्य रूप से
प्रभावित करता है ।
सीपीआई(एम)
की 23वीं कांग्रेस के लिए जारी किए गए राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे में अन्तर्विरोधों
के बारे में पुरानी, दोषपूर्ण बुनियादी समझ के कारण ही यह दस्तावेज भारत के कम्युनिस्ट
आंदोलन को उसके गतिरोध से निकालने में सहयोगी नहीं बन सकता है । इसीलिए हमारी
दृष्टि से, जरूरी यह है कि इस पूरे दस्तावेज को एकमुश्त खारिज करते हुए, इसे वैश्विक
अन्तर्विरोधों और समाज की गति में द्वंद्वों की सामूहिकता की नई समझ के आधार पर पुनर्रचित
किया जाए ।
जैसे
राजनीति का अर्थ सिर्फ़ राज्य की नीतियाँ नहीं, इसके
दायरे में एक नागरिक के रूप में व्यक्ति मात्र की नैतिकता और आचरण के प्रश्न आ
जाते हैं । वह कला, विज्ञान और प्रेम की तरह ही समग्र रूप से पूरी मानव संस्कृति के एक
प्रमुख उपादान की भूमिका अदा करती है । ठीक उसी प्रकार, युग के प्रमुख और गौण
अन्तर्विरोध सभी राष्ट्रों में राजनीति और जीवन की सभी समस्याओं में प्रतिबिंबित
होते हैं । उनसे कोई भी अप्रभावित नहीं रह सकता है । उनकी कोई एक सीमित राष्ट्रीय
पहचान नहीं हो सकती है ।
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