बुधवार, 23 मार्च 2022

साहित्य और जीवन के भ्रम और यथार्थ

( हिंदी का लेखक-प्रकाशक विवाद )

—अरुण माहेश्वरी  



सोशल मीडिया पर हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों के बीच संबंध के बारे में अभी जो बहस उठी है, वह जितनी दिलचस्प है, उतनी ही विचारोत्तेजक भी है । इसमें एक प्रकार से हिंदी साहित्य और पाठकों के बीच के संबंधों की भी एक खास अभिव्यक्ति मिलती है । 

हिंदी साहित्य और उसके पाठकों के संबंध के बीच में इस साहित्य की भाषा के स्वरूप और उसके निर्माण के इतिहास का भी एक महत्वपूर्ण पहलू आता है, जो यहां हमारे विचार का विषय नहीं है । पर जिस प्रकार सचेत रूप में, तत्सम शब्दों से ठूस-ठूस कर इस भाषा को तैयार किया गया है, उस भाषा का हिंदी के पाठकों के साथ कितना संबंध बन पाया, इस सवाल के न सिर्फ सामाजिक आयामों, बल्कि खुद भाषा की अपनी शक्ति पर पड़े प्रभाव से भी पूरी तरह से आँख मूँद कर नहीं चला जा सकता है । 

जाहिर है कि इसने हिंदी साहित्य के लेखन को उसकी भाषा से जुड़ी एक ऐसी जन्मजात व्याधि से जोड़ दिया, जो उस साहित्य की सामाजिक प्रासंगिकता के सवाल को जैसे उसके जन्म के दिन से ही पैदा करती रही है । शुरू से ही हिंदी साहित्य अपने पाठकों की तलाश में ‘बोलचाल की भाषा’ की खोज की एक अतिरिक्त समस्या से भी जूझने के लिये मजबूर रहा है । ‘क्या साहित्य समाज में अप्रासंगिक होता जा रहा है ? ’, इस चिंता के साथ साहित्य संबंधी चर्चाओं को सुनते-सुनते लगता है जैसे हम सबके कान पक चुके हैं । 

बहरहाल, लेखक-प्रकाशक संबंध के मौजूदा विषय में भी हमारे सामने कुछ इसी से जुड़ा हुआ एक मूल सवाल आता है कि आखिर इस पूरे मामले में ‘मुद्दआ क्या है ?’ क्या यह सिर्फ मालिक-मजदूर के बीच के संबंध की तरह का उत्पादन और उसकी मिल्कियत से जुड़ा हुआ एक सामान्य विषय है या इसके कुछ और भी ऐसे पहलू है जिनका संबंध इस उत्पाद और इसके उत्पादन के अपने कुछ विशेष चरित्र से भी जुड़ा हुआ है ?   

इस पूरे विषय को जरा गहरे में जाकर उठाने की गरज से ही हमारे सामने यह पहला सवाल उठता है कि आखिर साहित्य होता क्या है ? और समाज ! उसकी वे ऐसी कौन सी जरूरतें हैं जिनमें साहित्य का अपना अलग स्थान होता है, उसकी एक अलग उपयोगिता होती है  ? 

यह सब कुछ ऐसे बुनियादी सवाल हैं, जिनके जवाब की तलाश से शायद हमें साहित्य, उसके प्रकाशन और लेखक तथा प्रकाशनतंत्र तक के रिश्तों के विशेष सच या रहस्य, जो भी कहें, उन्हें समझने की शायद कोई नई अन्तर्दृष्टि मिल सकती है ।

अगर साहित्य महज समाजोपयोगी किसी ठोस पण्य की श्रेणी में आता तो उस पर श्रम और पूंजी के रिश्तों और उनके बीच के अन्तरविरोधों, पूंजीपति के द्वारा इस संबंध के बीच से पैदा हुए अतिरिक्त मूल्य के हस्तगतकरण की क्लासिक सामाजिक मार्क्सवादी समझ को लागू करके आसानी से इस विषय की सारी कलनाएं की जा सकती थी । 

पर साहित्य का जगत तो मूलतः एक आत्मिक जगत है । आज साहित्य पुस्तकों, ई-पुस्तकों के क्रिस्टल स्क्रीन की तरह के माध्यमों पर पढ़ने के लिए उपलब्ध है, पर हजारों सालों का श्रुति परंपरा का अलिखित, अनाम्नात साहित्य ! पुस्तकों आदि में आए साहित्य की पहुंच का तो एक पैमाना संभव भी है, पर इस अलिखित, श्रुति परंपरा के साहित्य की पहुंच की माप के तो कोई ठोस पैमाने नहीं हैं, पर कोई भी उनके होने या समाज में उनकी भूमिका से इंकार की क्या कल्पना भी कर सकता है ?  

यह सच है कि साहित्य पाठक की किसी जैविक या जीवनोपयोगी जरूरत का विषय नहीं है, यदि उसे किसी स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल न किया गया हो तो, यह उसके अपने निजी चयन, उसकी मनमर्जी का विषय है । इसकी उपयोगिता पाठक के किसी कार्यसाधन से नहीं, पूरी तरह से भाषा से संबद्ध उसके अस्तित्व के आत्मिक विकास की जरूरत से जुड़ी हुई है । और यही वह बुनियादी बात है कि जिसके चलते साहित्य के उपभोग के दायरे को मापना, जिससे कि उससे होने वाली आमदनियों के विषय को अंतिम रूप से तय किया जा सकता है, हमेशा बहुत आसान नहीं होता है । सारी दुनिया में पुस्तकों के व्यवसाय में पायरेसी, अर्थात् जिन किताबों की मांग हो, उन्हें चोरी-छिपे छाप कर बेचने वालों की कमी नहीं होती है । गैब्रियल गार्सिया मार्केश तो ऐसे ग्रे मार्केट में अपनी पुस्तकों को देख कर, उससे होने वाले आर्थिक नुकसान की बिना कोई परवाह किए, उनकी लोकप्रियता के अहसास से खुश हुआ करते थे ।     

दरअसल, साहित्य एक प्रकार से मनुष्य के कामोद्दीपन के तरह ही उसकी मूलभूत प्रवृत्ति से जुड़ा एक नैसर्गिक विषय भी है, क्योंकि यही शरीर और भाषा के दो मूलभूत संघटकों से निर्मित मनुष्य की भाषा को जीवंत बनाए रखने का एक मात्र साधन होता है । आदमी के मस्तिष्क के विकास के दूसरे किसी भी मानसिक व्यायाम की तुलना में यह उसके अस्तित्व के मूल संघटक तत्त्व, उसकी भाषा को जीवित बनाए रखने का अकेला माध्यम होता है । भाषा के साथ साहित्य के संबंध पर तमाम शास्त्रीय चर्चाओं में साहित्य को ही जीवन और भाषा के बीच की ऐसी सबसे प्रमुख कड़ी के रूप में देखा गया है, जो परिवर्तनशील जीवन के यथार्थ से भाषा को जोड़ कर उसे मनुष्य के आत्मविस्तार का कारक बनाता है । इसीलिए पाया जाता है कि भाषा को लेकर किए जाने वाले सभी सामाजिक-राजनीतिक प्रयोगों की निष्पत्ति हमेशा साहित्य के पटल पर ही हुआ करती है । राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर अरबों रुपये खर्च करके भी जिन शब्दों और पदों को बनाने की कोशिश की जाती है, मसलन् ‘लौहपथ गामिनी’ से लेकर ‘लव जेहाद’ आदि-आदि, वे सब साहित्य से निष्काषित रहने और अंततः जीवन के प्रवाह में पूरी तरह से अवांतर साबित होने के कारण ही इतिहास के कूड़ेदान में जाने के लिए अभिशप्त होते हैं । 

इतना सब कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि साहित्य समाज के लिए उपयोगी मूलतः एक अभौतिक शक्ति है और इसके कारण ही इससे जुड़े विषयों पर किसी ठोस पण्य के रूप में विचार से कई दूसरे प्रकार की समस्याएं पैदा हो सकती है । यह मसला तब और जटिल भी हो जाता है, जब हम इसे मसीजीवी लेखक की जीविका के विषय के साथ ही, उतने ही महत्व के साथ इसे लेखक की अपनी आत्माभिव्यक्ति की मूलभूत जरूरत की वस्तु के रूप में भी देखना लाजिमी समझते हैं । 

साहित्य सृजन एक ऐसा काम है, जिसमें ‘अन्य’ सबसे से संवाद करता हुआ भी लेखक अकेला, और अनोखा होता है । उसकी रचनात्मकता की पहचान ही इस बात में है कि वह ‘अन्य से संवाद’ के किन्हीं निश्चित सामाजिक नियमों और मर्यादाओं से पूरी तरह बंधा नहीं होता है, और इसीलिए भाषा को यथार्थ के कई अनदेखे, अनचिन्हे आयामों से संवेदित कर पाता है । लेखक के अपने अभिनव आत्मबोध के प्रकाशन की इस आत्मिक जरूरत का ही एक आयाम यह भी है जो आज के काल में प्रत्येक लेखक को अपनी पुस्तक के प्रकाशन के लिए भी बेचैन रखता है । 

इसप्रकार, हम अपने सामने साहित्य के लेखन और प्रकाशन से लेकर उसकी सामाजिक भूमिका तक के एक स्वयं-संपूर्ण अभौतिक संसार का भी एक अलग प्रकार का तानाबाना देख पाते हैं । पाब्लो नेरुदा ने कैसे अपनी कविताओं के पहले संकलन Crepusulario (गोधुली) को अपने फर्नीचर और पिता की दी हुई घड़ी, और ‘कवि के खास सूट’ को बेच कर छपाया था, और अंत में अपने साहित्यिक मित्र के उधार के पैसों से उसे मुद्रक के चंगुल  से निकाला, और तब भी वे जब फटे जूतों के साथ अपने कंधे पर उस किताब के बंडल को उठा कर निकले, उस क्षण की उमंग की अनुभूति और उस किताब के स्याही और कागज की गंध को वे अपनी जिंदगी की आखिरी घड़ी तक कभी भूल नहीं पाए थे । कुछ ऐसी ही कहानी गैब्रियल मार्केश की भी रही है । सचमुच, कौन सा ऐसा लेखक होगा जो अपने जीवन में अपनी किताब के प्रकाशन से खुशी के ऐसे पलों के लिए तरसता न होगा ! दुनिया के तमाम लेखकों की आत्मजीवनियों में आपको इसके अनेक  किस्से मिल जाएंगें । 

‘मनुष्य और साहित्य’ तथा ‘पुस्तक और लेखक’ के बीच के कुछ ऐसे ही एक आत्मिक, अगोचर जगत के ताने-बाने में जब हम प्रकाशक और लेखक के शुद्ध नगद-कौड़ी से जुड़े वास्तविक संबंधों को समझने की कोशिश करते हैं तो यह उतना आसान नहीं होता है, जितना आसान यह ऊपर से दिखाई देता है । अहम् और स्वार्थ के सवाल के साथ ही यहां कुछ और भी बातें होती हैं, जो दोनों पक्षों में, कई-कई  स्तरों पर काम कर सकती हैं । 

इसीलिए, यह इस जगत का कटु सत्य है कि यदि लेखक खुद ही अपनी पुस्तक के प्रकाशन जितनी पुरुषार्थ रखता हो, तो बात बिल्कुल अलग है, अन्यथा विरले ही लेखक होंगे जो अपने प्रकाशक को नाखुश करना चाहते हो । और प्रकाशक भी, यदि उसने शर्म-हया को पूरी तरह से न गंवा दिया हो, तो विरले ही होंगे, जो लेखक के प्रति न्याय करने से इंकार की खुले आम घोषणा करने की हिम्मत रखते हो ! कुछ लोगों के पेशेवर अकादमिक हितों के लिए पैसे लेकर उनकी किताबें छापने का विषय इस चर्चा के परे, पाठ्य-पुस्तकों की सामाजिक उपयोगिता से जुड़े पण्य के उत्पादन और विनिमय की तरह का एक अलग विषय है । उसमें, या यहां तक कि सरकारी खरीद में आई पुस्तकों के मामले में भी यह चर्चा शायद उतनी माने नहीं रखती है, क्योंकि वहां बिक्री और मुनाफे के आकलन की कोई समस्या नहीं होती है । अन्यथा आम तौर तो लेखक और प्रकाशक के संबंध में हमेशा एक अपारदर्शिता, असंतोष और शक-सुबहे की गुंजाइश रखने वाली यथार्थ की अबूझ सी दूरी अनिवार्यतः बनी रहती है ।

समाज में साहित्य की भूमिका, उसके स्थान के परिमाप की समस्या से लेकर साहित्य के प्रकाशन की जरूरतों तक के लेखक और प्रकाशक से जुड़े सारे आत्मिक और आर्थिक आयाम इस पूरे विषय की अपारदर्शिता और परस्पर अविश्वास के विषय के वे यथार्थ कारण हैं जो लेखन के कर्म और उसकी कामना के बीच पसरे हुए ऐसे धुंधलके की तरह है, जिसकी दरारों में से ही हमें इस विषय के सत्य को पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए । 

हिंदी में इस विषय पर जो बहस खड़ी हुई है उसका एक विशेष पहलू हिंदी भाषा के साहित्यकारों का पहलू भी है । हिंदी भाषा से एक तात्पर्य यह भी है कि भारत के लगभग चालीस करोड़ लोगों की एक ऐसी भाषा, जिसे सरकारी प्रचार से उत्पन्न भ्रमों के चलते, देश के अन्य भागों में एक वर्चस्वशाली भाषा के रूप में भी अमूमन देखा जाता है । और निश्चित तौर पर अन्यजनों की इस अवधारणा की छाया कहीं न कहीं से हिंदी के लेखकों में भी एक भ्रांत श्रेष्ठता का  आत्मबोध पैदा करती होगी ।   

अंग्रेजी तो विश्व वर्चस्व की एक सर्वमान्य भाषा है, इसमें किसी को कोई शक नहीं है । और इसीलिए, इस भाषा में किसी भी प्रकार से प्रतिष्ठित हो जाने वाले लेखक की रॉयल्टी का मसला बहुत बड़ा मसला इसलिए नहीं बन पाता है क्योंकि वह अक्सर इतनी मात्रा में होती है कि उसे लेखक के मेहनताना के रूप में यथेष्ट मान लिया जाता है । 

पर हिंदी का सवाल बहुत कठिन है । भारत जैसे एक महादेशनुमा विशाल देश में उसका सामाजिक वर्चस्व ऊपरी तौर पर, और सरकारी प्रचार में कुछ भी क्यों न दिखाई दें, यथार्थ की जमीन पर वह कितना वास्तविक है, यह एक गहरे संदेह का विषय है। सच तो यह है कि हिंदी के प्रचार-प्रसार और पुस्तकों की खरीद संबंधी तमाम सरकारी तामजाम भी, उसके साहित्य के प्रसार और लेखक की जीविका के लिए कोई पुख्ता सामाजिक जमीन तैयार नहीं कर पाए हैं । 

भारत की दूसरी भाषाओं की तरह ही हिंदी भी आज तक, अंग्रेजी के सामने ही क्यों न हो, अपने अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई लड़ती हुई दिखाई देती है । यूरोप की सभी भाषाओं और अरबी-फारसी ने अपनी जो स्वतंत्र वैश्विक प्रतिष्ठा हासिल की है, उसके चलते उन भाषाओं में होने वाले लेखन के प्रति सारी दुनिया के लोगों की नजर टिकी होती है । उस मुकाम से हिंदी अभी कोसो दूर है । सबसे बड़ी विडंबना यह है कि अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में भी हिंदी आज तक अपने क्षेत्र की जनता के सांस्कृतिक निर्माण की भाषा के रूप में सामने आने के लिए कहीं ज्यादा जूझती हुई नजर आती है । इसीलिये तो, जैसा कि हमने शुरू में ही कहा है, साहित्य की सामाजिक प्रासंगिकता का सवाल हमारी चिंता का आज तक एक चिरंतन ज्वलंत सवाल बना हुआ है । 

भारतीय दर्शन और चिंतन के विषय में आज तक भी संस्कृत वाङ्मय का जो स्थान है, हिंदी अपनी इतनी व्याप्ति के बावजूद उसकी छाया से जरा भी निकल नहीं पाई है । प्रेमचंद के अलावा इसके साहित्य को सामान्यतः वह मान्यता नहीं मिल पाई है जिससे आधुनिक जगत में इस क्षेत्र की जनता की किसी अग्रगामी भूमिका का परिचय मिलता हो । उल्टे, हिंदी भाषा के स्वरूप पर आज तक लगा हुआ पोंगापंथी और रूढ़िवादी विचारों का ग्रहण एक ऐसा सत्य है, जो इसके साहित्य के सामाजिक परिसर के विस्तार की सबसे बड़ी बाधा है । यह जहां इस क्षेत्र की जनता के सांस्कृतिक पिछड़ेपन, उनकी सांप्रदायिक और जातिवादी चेतना का परिणाम है तो इस पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण भी । हिंदी साहित्य और भाषा के प्रति इस क्षेत्र के ही पढ़े-लिखे नौजवानों की विमुखता भी पूरी तरह से अकारण नहीं है ।                     

कहना न होगा, एक ओर हिंदी के ‘वर्चस्व का भ्रम’ और दूसरी ओर अपने अस्तित्व मात्र की रक्षा के उसके वास्तविक संघर्ष की त्रासदी, भ्रम और यथार्थ के बीच की इस दरार से ही दरअसल हिंदी के साहित्य जगत के ऐसे तनावों को भी देखा जाना चाहिए जो अभी  प्रकाशक और लेखक के बीच के तनाव के रूप में सामने आया है । कोई भी अकेला लेखक इस तनाव में और भी ज्यादा कमजोर और बदहवास दिखाई देता है । लेखकों के संगठन और समूह भी इसमें उसकी एक हद तक ही मदद कर पाते हैं, क्योंकि वे भी समाज और साहित्य और भाषा की त्रयी के बीच के संबंधों के यथार्थ को बदलने में पूरी तरह से असमर्थ हैं । ऐसे तमाम मंचों पर होने वाले वैचारिक विमर्श ही इन संबंधों की मूलभूत जमीन को बदल सकते हैं, पर वह एक इतनी लंबी और दीर्घकालीन प्रक्रिया है कि मुँह से गालिब साहब की यह आह ही निकलती है कि : 

‘आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक

कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक ।’  


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