−अरुण माहेश्वरी
कर्नाटक चुनाव के पहले और कर्नाटक चुनाव के बाद की बीजेपी में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ आ चुका है । कर्नाटक चुनाव के पहले तक उसमें कमोबेस एक विश्व-विजेता का भाव था । आज उसके विपरीत, वह पूरी तरह से पर्युदस्त, युद्ध में धराशायी, पराजित के भाव में चली गई है । कर्नाटक युद्ध के पहले वह संभावित विजय के अभाव के प्रागभाव से चालित थी, आज कर्नाटक की पराजय के बाद विध्वंस से उत्पन्न अभाव के प्रघ्वंसाभाव में बुरी तरह से फँस चुकी है ।
हताश बीजेपी ने अलग-अलग राज्यों में फिर एक बार जिस प्रकार से नए-नए साथियों की तलाश शुरू कर दी है − पंजाब में अकाली दल को टटोल रही है, आंध्र में तेलुगू देशम को, यूपी में कुशवाहाओं को, कर्नाटक में जेडीएस और तमिलनाडू में हास्यास्पद ढंग से सेंगोर नामक डंड के सहारे को जिस प्रकार तलाश रही है − उसकी ये सारी ताबड़तोड़ गतिविधियां इस तथ्य की खुली स्वीकृति है कि मोदी की बीजेपी 2024 के चुनाव के पहले ही चारों खाने चित हो चुकी है । हिमाचल और कर्नाटक ने मोदी को सिर्फ एक झुनझुना साबित करके, अकेले मोदी की छंटा पर टिकी समूची बीजेपी के पैर के नीचे की जैसे ज़मीन खींच ली है । संसद में छाती पीट कर मोदी का यह कहना कि ‘एक अकेला सब पर भारी’ आज बीजेपी की ही सबसे बड़ी कमजोरी की घोषणा साबित हो रहा है ।
बीजेपी का करोड़ों-अरबों रुपयों का खजाना, लुटेरे पूंजीपतियों की बेशुमार दौलत का सहारा, गोदी मीडिया की कथित अगाध प्रचार शक्ति और दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहलाने वाला सांगठनिक ताना-बाना भी अब उसे जगत के मिथ्यात्व के वैराग्य भाव से बचा नहीं पा रहा है । जैसे उत्तर प्रदेश में मायावती अपने महल में दुबकी बैठी रहती है, बीजेपी भी अभी से अपनी उसी दशा के अंदेशे से दुबली हुई जा रही है ।
नफ़रत के खिलाफ प्रेम के नारे के साथ एक जन-आलोड़न का बिगुल बजा कर कांग्रेस ने बीजेपी के अस्तित्व को तात्विक स्तर पर ललकार दिया है । अब बीजेपी के पास सिवाय इसके कि वह पूरी नंगई के साथ अपने को असभ्य और जंगली घोषित करके मणिपुर की हिंसा की तरह की आग में समूचे देश को झोंक दे, दूसरा कोई सभ्य, धार्मिक और राजनीतिक प्रत्युत्तर भी नहीं बचा दिखाई देता है ।
राम मंदिर और उसके सामने साष्टांग मोदी की तस्वीरों पर बीजेपी को ही नहीं, आरएसएस को भी कोई भरोसा नहीं है । आरएसएस ने अभी से अपना मुंह छिपाने के लिए अपने मूलभूत गिरगिट-चरित्र का खुला प्रदर्शन करना शुरू कर दिया है । उसने अपने मुखपत्र में साफ कहा है कि मोदी नामक ईश्वर मर चुका है, और अब जब बीजेपी का ऐसा कोई ईश्वर नहीं बचा है, तब वह चाहता है कि बीजेपी के सभी लोग खुद से अपने-अपने ईश्वर की भूमिका अपना लें । उसने राज्यों के, और स्थानीय स्तर के नेतृत्व को खुद अपनी बागडोर थामने का आह्वान किया है ।
जाहिर है कि एकचालिकानुवर्तित्व की नीति-नैतिकता के परिवेश में निर्मित संघ और बीजेपी के नेताओँ-कार्यकर्ताओं से आज आरएसएस की ऐसी खुद-मुख्तारी की मांग, उनसे किसी आत्म-हत्या की मांग से कम नहीं है । सचमुच अवसादग्रस्त बीजेपी और आरएसएस इसी मृत्यु-उद्दीपन (death drive) के चक्र में फंस गये हैं ।
मोदी-शाह ही नहीं, आरएसएस को भी किसी कीमत पर पराजय स्वीकार्य नहीं है, और सच्चाई यह है कि जनतंत्र के वर्तमान कमजोर ढांचे में भी अब अपनी पराजय को, संसद में अल्पमत होने के भवितव्य को टालना उनके वश में नहीं रहा है । इस डर से पैदा हुई बदहवासी में अब वे क्रमशः जैसे फांसी के फंदे को चूम लेने की दिशा में बढ़ते जा रहे हैं ।
अमित शाह तमिलनाडु में अपने सहयोगी एआईडीएमके और उसकी नेता जयललिता तक को गालियां देते हुए सीधे लोगों से इस बात पर बीजेपी के लिए वोट मांगने लगे हैं कि उनके मोदी जी ने तमिलों के चोल वंश के एक कल्पित प्रतीक, सेंगोल कहे जाने वाले डंड को संसद की नई इमारत में स्थापित कर दिया है ! यही बात अकाली दल और तेलुगुदेशम से सटने की बीजेपी की कोशिशों पर भी लागू होती है । बदहवास बीजेपी चाहती हैं कि ये दल संसद में बीजेपी की सीटों को बढ़ाने के लिए अपना ही बलिदान कर दें ।
मोदी-शाह यह अच्छी तरह से जानते हैं कि यदि 2024 में बीजेपी को खुद से पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है तो अन्य सहयोगियों के बल पर उसका सत्ता पर लौटना असंभव होगा । और कांग्रेस की शक्ति में वृद्धि तथा विपक्ष की बढ़ती हुई एकता, बिहार, महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, बंगाल आदि की जमीनी सच्चाई को देखते हुए इन सभी राज्यों में बीजेपी की सीटों में भारी गिरावट को कोई रोक नहीं सकता है । ऐसी स्थिति में 2024 में मोदी की सत्ता के पतन को टालना असंभव है । इसीलिए बीजेपी बुरी तरह से आतंकित हैं और बदहवासी में मृत्यु के महाशून्य में छलांग लगाने की दिशा में बढ़ती जा रही है । उसके इन आत्मघाती कदमों को रोकना किसी के लिए भी संभव नहीं लगता है ।
कहा जा रहा है कि आरएसएस के वैचारिक दंडधारियों ने अंदर ही अंदर बीजेपी की इस दशा के लिए मोदी-शाह की प्रशासनिक अयोग्यता और राजनीतिक मूर्खताओं को कोसना शुरू कर दिया है । पर सच यह है कि आज की मोदी सरकार आरएसएस के शुद्ध विचारों का ही सामने उपस्थित एक ठोस रूप के अलावा कुछ नहीं है । सच कहा जाए तो संघ के ये मठाधीश वास्तव में मोदी-शाह को नहीं, खुद को ही कोस रहे हैं । आरएसएस के किसी प्रचारक की बुद्धि राम मंदिर, धारा 370, मुस्लिम-विरोध और जनतांत्रिक ताकतों के दमन से आगे जा ही नहीं सकती थी । मोदी ने अपने शासन से इन सब मामलों में अपनी योग्यता को अच्छी तरह से साबित किया है । पर शासन का मूल काम देश को एकजुट करके उसे विकास के आधुनिक रास्ते पर आगे ले जाना होता है, लोक कल्याण और न्याय की व्यवस्था कायम करना होता है − संघ के पूरे आंतरिक विमर्श में इन विषयों की कभी कोई जगह ही नहीं रही है ।
आरएसएस अपनी सार्वजनिक गतिविधियों में नाना प्रकार की ‘सांस्कृतिक’ चालाकियों का अभ्यस्त रहा है, लेकिन शायद उसने भी नहीं सोचा होगा कि उसकी तमाम चालाकियों के आवरण के पीछे का उसका नग्न स्वरूप इतना कुरूप और जुगुप्सा पैदा करने वाला होगा, जैसा मोदी शासन के रूप में सामने आया है ! आज पराजय के मुहाने पर पहुंच चुकी मोदी सरकार की यह सूरत संघ को ही डराने लगी है ।
तमिलनाडु में अमित शाह ने कहा बताते हैं कि देश का प्रधानमंत्री किसी गरीब तमिल को होना चाहिए । सवाल उठता है कि क्या मोदी तमिलनाडु से चुनाव लड़ने की सोच रहे हैं ? क्या अमित शाह ने मोदी जी की डिग्रियों की तरह ही उनके लिए तमिल होने का भी कोई प्रमाणपत्र जुटा लिया है ?
सचमुच गीदड़ की जब मौत आती है तो वह शहर की ओर भागता है !
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