शुक्रवार, 16 जून 2023

टेलिग्राफ का संपादकीय पृष्ठ और जी एन देवी का लेख

 

 -अरुण माहेश्वरी


‘टेलिग्राफ’ अखबार के संपादकीय पृष्ठ में कुछ लेखकों के लेख अक्सर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं । उनमें उठाये गये विषयों में एक प्रकार की ताजगी होती है, किंचित विचारोत्तेजना और इतिहास के नाम पर कोरी कहानियों तथा आर्थिक आंकड़ों की फोटोग्राफिक तस्वीरों वाली जड़ता के बखान के बजाय हमारे आज के वैशिष्ट्य के बारे में कहीं ज्यादा मूलगामी दृष्टि पर आधारित एक गतिशील समझ के संकेत देने की कोशिश पाई जाती हैं । यहां हम खास तौर पर वरिष्ठ पत्रकार सुनंदा के. दत्ता-राय, प्रभात पटनायक, जी एन देवी, ए. रघुरामराजू और इधर चंद दिनों से ही लिखना शुरू करने वाले हिलाल अहमद का नाम लेना चाहेंगें । अक्सर उनके लेख हमें आगे टिप्पणी करने या उन लेखों की संस्तुति करने के लिए उकसाते हैं । 

यह सच है कि पढ़ने के लिए आकर्षित तो रामचंद्र गुहा के लेख भी करते हैं, पर उनमें किसी विचारोत्तेजना के बजाय इतिहास के कथामूलक ब्यौरों का आधिक्य होता है । इसी प्रकार रुचिर जोशी की मन की उड़ानों और उड्डालक मुखर्जी की ललित निबंधों वाली शैली का भी एक आकर्षण होता है । भाजपा के पूर्व सांसद स्वपन दासगुप्त को सिर्फ इसलिए पढ़ने की इच्छा होती है ताकि भारत में गोयेबल्सीय प्रचार की धारा की सूक्ष्मताओं की सिनाख्त की जा सके । अक्सर वे शुद्ध रूप से झूठी बातों को ही अपने ‘गंभीर टिप्पणियों’ का आधार बनाया करते हैं । गोपालकृष्ण गांधी के लेखों में तीक्ष्ण बौद्धिक दृष्टि के बजाय आदर्शवाद ज्यादा होता है । रेणु कोहली या उन जैसे ही आर्थिक विषयों के चंद लेखक परिशुद्ध आर्थिक टिप्पणीकार की नैतिक सीमाओं के कायल होने के कारण किसी भी क्रिया के दूरगामी, विपरीत सामाजिक-राजनीतिक प्रभावों की चर्चा से परहेज करते हैं और यही वजह है कि वे आर्थिक आंकड़ों का प्रयोग हमारे पूण्यप्रसून वाजपेयी की तरह लक्षणों के नए विश्लेषणों के बीच टिप्पणी के विस्तार के लिए भरती के माल की तरह न करने पर भी एक सीमित विषय पर सीमित दायरे में महज एक रनिंग कमेंट्री करते से जान पड़ते हैं ।

बहरहाल, आज के ‘टेलिग्राफ’ में जी एन देवी के लेख ‘भारत का विशिष्ट मिश्रित सर्वाधिकारवाद : प्रेत की वापसी’ (India’s totalitarianism is of a peculiar mix : The spectre returns) ने हमारा विशेष ध्यान आकर्षित किया है । उन्होंने इस टिप्पणी में भारत में नेहरू की मिश्रित अर्थनीति की तरह ही नरेन्द्र मोदी की मिश्रित तानाशाही की बात कही है । जैसे नेहरू समाजवाद के विस्तार के युग में जनतांत्रिक पूंजीवाद का प्रयोग कर रहे थे, देवी कह रहे हैं कि मोदी कृत्रिम बुद्धि (एआई) के युग में हिटलर-स्तालिन की दमनकारी, उन्मूलनवादी तानाशाही का प्रयोग कर रहे हैं । देवी दो लेखक हाना ओरंत और मेतिआस दिसमित की क्रमशः दो किताबों, The Origins of Totalitarianism (1951) और  The Psychology of Totalitarianism के उल्लेख से बताते हैं कि कैसे हिटलर और स्तालिन के जमाने में लोगों को ऐतिहासिक न्याय पाने के लिए आक्रामक बना कर एक चरम दमनकारी राज्य के प्रति स्वीकार्यता के लिए उन्हें तैयार किया जाता था और अब दुनिया में खुद के हितों के प्रति अति-सुरक्षा का भाव पैदा करके लोगों को अगाध डिजिटल नियंत्रण की शक्ति से लैस राज्य के हाथ में अपनी निजता और स्वायत्तता को सौंप देने के लिए तैयार किया जा रहा है । ये दोनों किताबें ही अलग-अलग समय में तानाशाही को स्वीकारने के लिए जनता के मनोविज्ञान को तैयार करने की पेशकश की कहानियां कहती हैं। देवी बताते हैं कि भारत में आज मोदी के तानाशाही शासन की विशेषता यह है कि वह तानाशाही के पक्ष में जन-मानस को तैयार करने के इन दोनों उपायों के एक अनोखे संकर का उदाहरण पेश कर रही है । जैसा कि नेहरू ने बताया था कि भारत में गोबर युग और राकेट युग साथ-साथ वास करते हैं, भारत में चल रहे तानाशाही शासन का सत्य उसी के सादृश्य है जिसमें दमन के आदिम और आधुनिकतम औजारों का साथ-साथ प्रयोग करने की कोशिश की जा रही है । इससे भारतीय राज्य के दमनकारी रूप के भावी विकास के बहुत गहरे संकेत पाए जा सकते हैं । यह भारतीय राज्य का अपना विशिष्ट रूप होगा । 

पिछले दिनों इसी प्रकार सुनंदा के. दत्ता-राय ने 10 जून के अपने लेख ‘Missing the sparks’ (चमक की कमी) में सेंगोल के संदर्भ में भारत में राजशाही की दमित आकांक्षाओं की ओर वैश्विक संदर्भ में जो संकेत किया था और इधर 12 जून को रघुरामराजु ने ‘Macaulay’s Trap’ (मैकाले का जाल) शीर्षक लेख में शिक्षा के क्षेत्र में परंपरा और आधुनिकता के बीच के द्वंद्व का जो चित्र रखा, जी एन देवी का लेख कुछ इसी प्रकार राज्य के स्वरूप के विकास के एक संक्रमण काल की सूरत पेश करता है ।     

जी एन देवी के इस लेख को भी जरूर पढ़ा जाना चाहिए :    

  https://epaper.telegraphindia.com/imageview/436842/191320601/71.html            


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