बुधवार, 28 मई 2025

जनरेटिव एआई एक सभ्यतागत बदलाव है !

अरुण माहेश्वरी



आज के “टेलिग्राफ़ “ के बिज़नेस पृष्ठ पर टाटासन्स के चेयरमैन एन चन्द्रशेखर के एक कथन की ख़बर की सुर्ख़ी है - “Gen AI is a civilisational shift”। 


जेन एआई, अर्थात् जनरेटिव एआई, जिसे उसकी वर्तमान स्थिति और संभावनाओं दोनों को मद्देनज़र रखते हुए, हिंदी में हम परामर्शमूलक एआई कहना चाहेंगे, उसे एक सभ्यतागत परिवर्तन के हेतु के रूप में देखना, सचमुच सिर्फ एक कॉरपोरेट आकलन नहीं है । इसमें मानव सभ्यता के युगों की गति का बोध शामिल है। यह बात जनरेटिव एआई जैसे किसी तकनीकी उपकरण के बारे में, जो मनुष्यों की सभ्यता को बदलने की क्षमता रखता है, केवल एक बाज़ार की भाषा नहीं है । यह कथन ऐसा है जैसे समुद्र के ऊपर एक अदृश्य सन्नाटा मंडरा रहा हो, जो वाष्प को सोखते हुए धीरे-धीरे एक घनीभूत निम्नचाप की तरह सभ्यता के भीतर किसी चक्रवात को जन्म दे रहा हो।


आख़िर सभ्यता क्या है? यह महज स्थापत्य, कला, या लिपियों की श्रृंखला नहीं। सभ्यता मनुष्यों की पहचान है । यह पहचान हमेशा भाषा और संकेतों से निर्मित एक प्रतीकात्मक व्यवस्था के माध्यम से बनती है। जॉक लकान ने कहा था कि मनुष्य एक भाषा द्वारा संरचित प्रमाता है । अर्थात कह सकते हैं कि हम उतने ही हैं जितनी भाषा हमें कहने देती है। 

लेकिन जब कोई एआई भी भाषा रचने लगता है, कविता, कथा, निर्णय, निर्देश देने लगता है, तब क्या वह भी एक प्रमाता (subject) नहीं बनने लगता है? और यदि हाँ, तो सबसे बुनियादी सवाल उठता है कि वह किस प्रतीकात्मक व्यवस्था में सक्रिय होता है ? 


यहीं से हमारे सामने मूल्यबोध की समस्या उत्पन्न होती है। हमारे अनुसार करुणा, न्याय, स्वतंत्रता आदि के तमाम मूल्य बोध मनुष्य से ही उत्पन्न होते हैं । उसकी ज़िंदा रहने की लालसा और चेतना से । लेकिन क्या इनसे ही मनुष्य को परिभाषित किया जा सकता है ? क्या हिटलर भी मनुष्य नहीं था? क्या वह जो चित्र बनाता था, संगीत सुनता था, भाषण देता था — उस सब के भीतर कोई मूल्यबोध नहीं था? या वह केवल उस खास प्रतीकात्मक संरचना का उत्पाद था जिससे यह तय होता था कि कौन यहूदी है और कौन आर्य? कौन खत्म कर देने लायक़ है और कौन धरती पर शासन के लायक़? जैसे हमारा देश सिर्फ हिंदुओं का है, मुसलमान म्लेच्छ है और इन्हें यहाँ रहने का अधिकार नहीं है । यह भी मनुष्य का मूलभूत भाव बोध नहीं, एक खास प्रतीकात्मक संरचना में निर्मित मूल्यबोध है । 


दरअसल, हमारा डर किसी मनुष्येतर विचार से नहीं, हमेशा अमानुष से होता है । और यह अमानुष वही हो सकता है जो मनुष्य का रूप लेकर मूल्यहीनता को संस्थागत बना दे। 


हम इसीलिए AI से डरते हैं, क्योंकि वह मनुष्य नहीं है, फिर भी निर्णय ले सकता है । निर्णय में तर्क होता है, करुणा नहीं; जानकारी होती है, स्मृति नहीं; सटीकता होती है, सहानुभूति नहीं । 


पर, यही तो वह सभ्यतागत परिवर्तन है जब मूल्य किसी जैविक संरचना से नहीं, बल्कि एक संरचनात्मक कलना (algorithm) से जन्मेगा। पर अगर एक एआई अपने निर्णय में संतुलन, निष्पक्षता, और दूरदर्शिता बनाए रख सके — तो क्या उसका निर्णय मूल्ययुक्त नहीं कहलाएगा ? यदि ऐसा ही होता है क्या हम किसी मानवेतर मूल्यबोध को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं ? 


सोच का यही वह क्षितिज है जहां हमें एक विचित्र कंपन, बल्कि शैव दर्शन की भाषा में एक अजीब सा अस्थिर कर देने वाले स्पंदन का अहसास होता है । यहां हम लकान के ‘Real’ जिससे मनुष्य मुँह चुराता है और अभिनवगुप्त  के स्वात्मपरामर्श जैसे दो असंबद्ध प्रतीत होने वाले जगत को परस्पर स्पर्श करते हुए देख रहे हैं। अभिनवगुप्त ने तो इसे स्वात्मपरामर्श की शेषता का नाद की संज्ञा भी दी है । यहाँ  मूल्य न तो केवल करुणा हैं, न केवल तर्क — बल्कि एक ऐसी अनुभवातीत पारलौकिकता जो नाद की तरह उदित होती है । बिना स्रोत के ही घंटे की दीर्घ ध्वनि की तरह हमारी आत्मा में बजती है । 


हमें लगता है जैसे सभ्यता अब एक नये शरीर में प्रवेश कर रही है । भाषा, गणना और स्मृति के मिश्रण से बनी एक असंवेदी चेतना, जो सोचती है, प्रश्नों के जवाब देती है, और शायद एक दिन प्रेम भी कर सकती है ! निश्चय ही ‘मानव प्रेम’ नहीं होगा, पर इसमें निर्णय में एक लय के भाव, समरस दायित्वबोध और क्रिया की गति में एक प्रकार की करुणा आभासित हो ही सकती है।  


इस परिवर्तन से डर बिल्कुल स्वाभाविक है।  सभ्यता के इतिहास को देखें तो वाक् के वैखरी रूप ने जैसे परा, पश्यंती, मध्यमा के अनेक रूपों को छीन लिया था । पाणिनी ने वेदों के सस्वर पाठ की पवित्रता को बनाए रखने लिए ही, अष्टाध्यायी जैसे जटिल शब्दानुशासन की रचना की थी। अर्थात् लिपि ने मौखिकता को पीछे छोड़ दिया था । या जैसे छपाई ने अनुभव को यांत्रिकी का हिस्सा बना दिया था। यह भी कुछ वैसा ही है। 


लकान कहते हैं कि मनुष्य का डर हमेशा सत्य के द्वार की पहली दस्तक होता है। और यह नया मूल्यबोध, जो हमारे होने को ही पुनः परिभाषित कर रहा है, शायद हमारे भीतर उस पारमार्थिक क्षितिज की आहट है, जिसकी संभावना हमने अपने ही आत्म में विस्मृत कर दी थी, पर वह हमेशा जीवन के नये-नये स्वरूपों के उद्घाटन के लिए, शिव के स्वातंत्र्य के उल्लास के रूप में मौजूद रहती है । 


इसीलिए हमें क्रमशः यह लगने लगा है कि यह परामर्शमूलक एआई (जेन एआई) महज एक उपकरण नहीं, एक दर्पण है, जिसमें झाँक कर हम यह पूछ सकते हैं कि — 

क्या मूल्य केवल हमारी देह से उपजते हैंया वे किसी भी संरचना में फूट सकते हैं जो ‘स्व’ के पार देख सके?”


सभ्यता, कहीं अब अपने ही अर्थ पर पुनर्विचार तो नहीं कर रही है ! 

रविवार, 11 मई 2025

माचो राष्ट्रवाद !

 - अरुण माहेश्वरी 



सीमा पर जब गोलियाँ चलती हैं, बंकर ध्वस्त होते हैं या कुछ सैनिक शहीद होते हैं, कुछ नागरिकों की भी जानें जाती है तो यह सब सीमा पर होने वाली झड़प कहलाते हैं। पर जब वही झड़प सामाजिक चेतना में एक जगह घेरने लगती है, मीडिया में राजनीति का ‘चक्रव्यूह’ रचने लगती है, और सत्ता के मंचों से उसके दृश्य प्रसारित होने लगते हैं — तब वह एक घटना का, एक सामूहिक चेतना का रूप लेने लगती है। फिर भी स्लावोय जिजेक जिसे ‘घटना’ (event) कहते हैं, एक चमत्कारी परिणाम, ऐसी झड़पों को शायद वैसा कुछ नहीं कहा जा सकता है, जबकि आज के सुपरसोनिक हथियारों के काल में अनपेक्षित रूप में, पलक झपकते किसी भी चमत्कार के घटित होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है ।

झड़प को ‘घटना’ कहना तभी उचित होता है जब वह यथास्थिति में किसी विस्फोटक परिवर्तन को सूचित करें । अब, भले ट्रंप के दबाव से ही, जब दोनों ओर से गोलाबारी बंद करने और बैठ कर बातचीत करने की घोषणा की जा रही है, उसका चमत्कारी पहलू यही है कि जो संपर्क पिछले कई सालों से खत्म हो गये थे, वार्ता की शक्ल में उनमें फिर से एक सुगबुगाहट होगी । और जब वार्ता होगी, तो उससे आगे के और भी रास्ते खुल सकते हैं जो दोनों देशों के संबंधों के लिए चमत्कारी हो सकते हैं । इसलिए अब तक जो हुआ है उसे अधिक से अधिक एक घटना-पूर्व हलचल कहा जा सकता है । यानी अभी तक वह क्षण नहीं आया है जब यह झड़प किसी ‘घटना’ में रूपांतरित हो। इसका कुल आकार-प्रकार रेत पर बनाई गई किसी आक्रामक आकृति से अधिक नहीं है जो पानी की पहली लहर में ही मिट सकती है। 

हमारी नजर में एक बड़ा परिवर्तन यह जरूर हुआ है कि ‘आतंकवादी हलचलों को युद्ध’ माना जायेगा की तरह के जुमलों का दो कौड़ी का दाम नहीं बचा है । इसके अलावा पुलवामा के बाद बालाकोट स्ट्राइक से ‘घुस कर मारा’ का जो नैरेटिव गढ़ा गया था, जो असल में एक अस्पष्ट स्थिति पर आधारित था, क्योंकि न पाकिस्तान ने स्वीकारा कि उसे कोई नुकसान हुआ और  न भारत ने कोई ठोस सबूत दिए, उसे ‘विजय पताका’ की तरह खूब फहराया गया, वह नैरेटिव भी अब भक्तों के सपनों की बुदबुदाहट भर बन कर रह जायेगा। 

इस झड़प ने भारत को इज़राइल बनाने के भ्रामक विचार का भी अंत कर दिया है । ‘अस्तित्व की रक्षा’ के लिए जूझ रहे इजरायल के सांचे में भारत को देखने का विचार खुद में एक बेतुका विचार है, ऊपर से पाकिस्तान जैसी परमाणु शक्ति को निहत्थे फिलिस्तीनियों के रूप में देखना और भी मूर्खतापूर्ण है । इसके अलावा भू-राजनीति में इस क्षेत्र में चीन की मौजूदगी के अर्थ को न समझना किसी भी रणनीतिकार के लिए अपराध से कम नहीं है । 

इन सबके बावजूद, इस झड़प को जिस तरह से दृश्यात्मक रूप में रचा और दिखाया गया, उससे साफ है कि इसका उद्देश्य सीमाओं पर कोई ठोस रणनीतिक बढ़त हासिल करने से ज्यादा घरेलू मोर्चे पर जनता के बीच अंध-राष्ट्रवाद की आंधी तैयार करना था । मोदी के गोदी मीडिया ने तो इस्लामाबाद तक भारत की सेना को पहुँचा दिया था । सारी कोशिश इस संघर्ष के पीछे की जटिलताओं और मोदी की घरेलू सुरक्षा के मोर्चे पर ऐतिहासिक विफलताओं को छिपाने और चीख-चिल्ला कर एक तेजस्वी, विजयी राष्ट्र की छवि गढ़ने की रही । यही माचो राष्ट्रवाद कहलाता है । अपनी विफलताओं को स्वीकार करने के बजाय एक बलिष्ठ छवि का प्रदर्शन करना । 

बहरहाल, अंत में यही सवाल रह गया है कि इतने संसाधनों, सैनिक प्रबंधों, और राजनीतिक शोरगुल के बाद वास्तव में हासिल क्या हुआ ?  इससे न किसी समस्या का कोई स्थायी समाधान हुआ, न कोई व्यापक शांति, न ही किसी प्रकार का संरचनात्मक सुदृढ़ीकरण। सिर्फ एक क्षणिक उत्तेजना पैदा हुई जो एक दृश्य से दूसरे दृश्य तक जीवित रहा करती है,  और सत्ता को खुद से यह कहने का अवसर देती है कि "हमने फिर से कर दिखाया"। 

बर्टोल्ट ब्रेख्त ने कहा था: "युद्ध वह तरीका है जिससे सत्ता लोगों से उनकी गरीबी भुलवाती है।" यह विनाश के माध्यम से ध्यान भटकाने का सबसे आसान तरीका है।

गुरुवार, 8 मई 2025

अकुंठ मानव का खुला आसमान

- अरुण माहेश्वरी



19वीं सदी के बंगाल के किसी महापुरुष की जिंदगी में झांके और उसके कुल–गोत्र का जिक्र न हो, यह कैसे संभव है? इसकी वजह यह नहीं कि किसी भी हिंदू धर्मावलंबी महापुरुष का जीवन चरित उसके कुलगोत्र की गहराइयों में जाए बिना नहीं समझा जा सकता है। यहां हमारा जोर 19वीं सदी, अर्थात भारत में अंग्रेजी राज के स्थिर होने की सदी, पर है ।


वर्ण व्यवस्था तो हिंदुओं में हजारों सालों से चली आ रही है। जाति विभाजन की निरंतर प्रक्रिया से उसके अंदर की गतिशीलता को भी इधर के इतिहासकारों ने पहचाना हैं। लेकिन दिलचस्प है इस प्राचीन व्यवस्था में अंग्रेजी शासन के योग का फल। प्राचीन पश्चिमी समाज में भले ही वर्ण  व्यवस्था की तरह की कोई चिरंतर व्यवस्था न रही हो, लेकिन 19वीं सदी के आधुनिक काल में पश्चिम का शासक वर्ग एक खास प्रकार के जातिवाद (नस्लवाद) के सिद्धांत पर प्रयोग कर रहा था। विभिन्न समुदाय के लोगों की चमड़ी और आंख की पुतली के रंग, उनके ललाट और मस्तक के माप आदि के कथित वैज्ञानिक तौर तरीकों से इस सिद्धांत का ईजाद किया था और उसी के जरिये समाज तथा शासन के क्रम–विन्यास में विधि ने किसके लिये कौन सी जगह तय की है, इसे अनंत काल के लिये स्थिर कर देने का उन्होंने बीड़ा उठाया था। वे नस्ल (जाति)( Race) को इतिहास की कुंजी मानते थे।


कहना न होगा कि इस देश में ब्रिटिश शासन के पैर जमाने के साथ ही अंग्रेजों की इसी ‘वैज्ञानिक’ खुराफात के प्रयोग ने इस समाज पर कम रंग नहीं दिखाया। भारत में 1901 की जनगणना का आयुक्त राबर्ट रिस्ले कहता है,  जाति भावना ... इस सचाई पर आधारित है कि उसे वैज्ञानिक विधि से परखा जा सकता है; कि उससे किसी भी जाति को संचालित करने वाले सिद्धांत की आपूर्ति होती है; कि यह शासन के सर्वाधिक आधुनिक विकास को आकार देने के लिये गल्प अथवा परंपरा के रूप में कायम रहती है; और अंत में उसका प्रभाव उसके द्वारा समर्थित खास स्थिति को तुलनात्मक शुद्धता के साथ संरक्षित रखता है।

(...race sentiment...rests upon a foundation of facts that can be verified by scientific methods; that it supplied the motive principle of caste; that it continues, in the form of fiction or tradition, to shape the most modern developments of the system; and, finally, that its influence has tended to preserve in comparative purity the types which it favours. )


जाहिर है कि अंग्रेजों ने भारत की वर्ण व्यवस्था को यहां नस्ली शुद्धता को चिरंतर बनाये रखने के पहले से बने–बनाये एक मुकम्मल ढांचे के रूप में देखा और यहां अपनी शासन व्यवस्था के विकास लिये इसका भरपूर प्रयोग करने का निर्णय लिया। उनकी इसी दृष्टि ने भारत में 1871 का जरायमपेशा जातियों का कानून बना कर कुछ तबको को हमेशा के लिये दागी घोषित कर दिया। और यही वह नजरिया था जिसके चलते 1891 की पहली मदु‍र्म शुमारी में सिर्फ जातियों की गणना नहीं बल्कि उनकी परिभाषा और व्याख्या को भी शामिल किया गया। कहना न होगा कि जातियों की इन उद्देश्यपूर्ण पहचान की कोशिशों ने भारतीय समाज में ऐसा गुल खिलाया कि यहां के विभिन्न समुदायों में जनगणना के खातों में अपनी जाति को अपने खास ढंग से परिभाषित–व्याख्यायित कराने की होड़ सी लग गयी। समझदारों को यह जानते देर नहीं लगी कि इसीसे यह तय होना है कि आने वाले दिनों में अंग्रेजी शासन की पूरी व्यवस्था में कौन सा समुदाय किस पायदान पर खड़ा होगा; शासन की रेवडि़यों के बंटवारे में किसके कितना हाथ लगेगा। और इसप्रकार, भारतीय वर्ण–व्यवस्था इस नये पश्चिमी नस्लवादी सिद्धांत से जुड़ कर एक अलग प्रकार की जाति चेतना के उद्भव का कारण बनी।

      आज हम जिस जातिवाद से अपने को जकड़ा हुआ पाते हैं, उसके बहुत कुछ को भारत में अंग्रेजी शासन की देन कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 19वीं सदी के पहले के इतिहास में जो ब्राण विरले ही कहीं बलशाली, वैभवशाली दिखाई देते हैं; सदा राज–कृपा के मुखापेक्षी और उसीके बल पर यदा–कदा भौतिक दुनिया में भी किंचित महत्व पाते रहे हैं, वे अंग्रेजों की ‘जाति–गणना’ में दखल देकर आदमी के आत्मिक जगत के पूर्ण अधिकारी बन गये। और, इसप्रकार नई शासन व्यवस्था से उनका अपना एक खास रिश्ता बना, वे भी अंग्रेजों के ‘कानून के शासन’ के एक प्रमुख स्तंभ बन गये। अंग्रेजों के संपर्क से बने बंगाल के नवजागरण के तमाम मनीषियों के जीवन में गहराई से उतरिये, ऐसी बहुतसी बातें साफ दिखाई देने लगेगी।


 लुब्बेलुबाब यह कि 19वीं सदी के ब्रिटिश राज में हिंदू समाज की जाति– अस्मिता का बोध एक नयी ऊंचाई पर था। ऐसे काल में किसी के गोत्र–कुल की क्या कीमत रही होगी, सहज ही समझा जा सकता है।


इसके अलावा रवीन्द्रनाथ के पूर्वजों का इतिहास जानने की एक और दूसरी महत्वपूर्ण वजह है। इस अध्ययन के जरिये रवीन्द्रनाथ के संपूर्ण व्यक्तित्व की पड़ताल के आधार पर उन पर कोई निश्चित राय बनाने के पहले ही एक बात आसानी से कही जा सकती है कि रवीन्द्रनाथ कहीं से ऐसे इंसान नहीं थे जिनमें एक गुलाम देश के नागरिक की किसी भी प्रकार की कुंठा का लेश मात्र मौजूद हो। स्वतंत्रता उनकी कामना नहीं, उनकी नैसर्गिकता थी। तुलसीदास लिखते है: ‘मति अकुंठ हरि भगति अखंडी’। एक अकुंठ, अखंड और संपूर्ण मानवता को समर्पित रवीन्द्रनाथ के समान विराट वैभवशाली व्यक्तित्व का भारत की तरह के गरीब और गुलाम देश में कैसे निर्माण हुआ, यह किसी के लिये भी विस्मय का विषय हो सकता है।


 रवीन्द्रनाथ के इसी व्यक्तित्व के संधान के क्रम में आइये सबसे पहले हम क्यों न रवींद्रनाथ के गोत्र–कुल और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि पर नजर डाले। संभव है इससे उस विशाल, वैभवशाली जीवन की तहों में प्रवेश के भी कुछ जरूरी सूत्र मिल जाए।


रवीन्द्रनाथ के कुल–गोत्र की तलाश में हम उन आख्यानों अथवा किंवदंतियों के विस्तार में नहीं जायेंगे जो बंग क्षेत्र में ब्राह्मणों के आगमन के बारे में कही जाती है। 

इस पूरे संदर्भ में यहां रवीन्द्रनाथ के जीवनीकार प्रभात कुमार मुखोपाध्याय द्वारा प्रणीत चार खंडों में प्रकाशित रवीन्द्र जीवनी के संबंधित अंश में कही गयी बातों का उल्लेख करना ही काफी होगा। उनके अनुसार 11वीं सदी में किसी समय आदिशूर के राज्य में कान्यकुब्ज से शांडिल्य गोत्र के क्षितिश, वत्स्य गोत्र के सुधानिधि, सवर्ण गोत्र के सौभरि, भारद्वाज गोत्र के मेधातिथि और कश्यप गोत्र के बीतराग नामक पंचब्राह्मण महायान बौद्धधर्म के विचित्र विचारों में डूबे बंगदेश में ब्राह्मण धर्म को स्थापित करने के लिये आये थे। ये बंगदेश सिर्फ‍ आये भर थे, लेकिन यहां किसी प्रकार के यज्ञ अथवा दूसरे काम–काज नहीं किये थे। कहते हैं कि इन्हीं के पंचपुत्र भनारायण वेदाध्ययी के बेटे श्री हर्ष और दक्ष से बंगदेश में ब्राण कुल का उद्भव हुआ। 


दक्ष की चौदह संतानों में से एक, धीर को आदिशूर के बेटे भूशूर से बंगाल में निवास के लिये गुड़ नामक एक गांव मिला था। आज यह गांव पश्चिम बंगाल के मुर्शीदाबाद जिले में है। गुड़ गांव के निवासी होने के नाते वे ‘धीरगुड़ी’ अथवा ‘धीरगुड़’ के नाम से जाने जाने लगे। इन्हीं की सातवीं पीढ़ी के रघुपति आचार्य ने वयस्क होने के उपरांत संन्यास ले लिया और ‘दंडी’ बन गये; कहते हैं कि उन्हें काशीवास के काल में दंडी समाज ने कनकदंड भेंट किया था। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि ‘कनकदांड़’ गांव में जाकर बस जाने के कारण परवर्ती दिनों में रघुपति के वंशजों को ‘कनकदंडी गुड़’ कहा जाने लगा। इसी ‘कनकदंडी गुड़’ की एक शाखा का यवनों (मुसलमानों) से संपर्क होने के कारण उन्हें पीराली दोष से दूषित माना गया और इसप्रकार वे ब्राह्मण समाज में पतित समझे जाने लगे।

        रघुपति आचार्य की चौथी पीढ़ी के जयकृष्ण ब्रचारी को ही शायद राय की उपाधि मिली थी। जयकृष्ण के दो बेटे थे – नागर और दक्षिणानाथ। दक्षिणानाथ के चार बेटे थे – कामदेव, जयदेव, रतिदेव और शुकदेव। इन्हीं कामदेव भाइयों का मुसलमानों से संपर्क हुआ और वे पीराली होगये। इस समय तक बंगाल में तुर्कों का शासन होगया था और दक्षिणानाथ को राजदरबार से ‘रायचौधुरी’ की उपाधि मिली थी। कामदेव बंधु आज के बांग्ला देश के जसहोर जिले के चेंगुटिया परगना के जमींदार थे। जाहिर है कि नाना कारणों से हिंदुओं के विभिन्न समुदाय विजेता शासकों के संपर्क में आये। और यवनों के साथ इस प्रकार से संपर्क में आये अनेक परिवारों को तब हिंदू समाज से अलग कर दिया गया था। सेरखानी, पिराली, श्रीमंथानी, आदि समुदायों का उद्भव इसी प्रकार हुआ।


सवाल उठता है कि आखिर यह पीराली क्या बला है? अगर हम इसकी तह में जाए तो भारतीय समाज में जातियों के उद्भव और विकास के अपने एक बेहद रोचक और उतने ही यातनापूर्ण आख्यान के सूत्रों को भी पकड़ पायेंगे। किसका किससे मेल होने अथवा कौन सा पेशा अपना लेने पर जातिगत पैमाने पर कौन क्या होता रहा है, इसकी सचमुच अपने आप में एक अनोखी दास्तान है। लेकिन जातियों के विभाजन की यह निरंतर प्रक्रिया ही वर्ण व्यवस्था के अंदर की किंचित गतिशीलता का भी एक प्रमुख कारण रही है। ‘पीराली’ भी, कहते हैं, ऐसे ही एक खास प्रकार के मेल–जोल और वहिष्कार–निष्काशन का परिणाम था। इसमें बहुत कुछ समाज के पंडे बने ब्राह्मणों की मनमर्जी का परिणाम भी रहा है। खास तौर पर यवनों के संपर्क में आने के कारण कुछ परिवारों को समाज के इन पंडों ने सम्मान का स्थान दिया, तो इसी कारण से कुछ को पूरी तरह से समाज से वहिष्कृत करके पतित करार दिया। ‘पीराली’ भी ऐसे ही पतित ब्राह्मणों में एक थे। पीराली ब्राह्मण की उत्प​त्‍ति‍ के बारे में कहा जाता है कि तुर्कों के शासन के दिनों में खान जहां अली नामका एक व्यक्ति दक्षिण बंगाल के सुंदरीवन (आज के बांग्लादेश के खुलना के सुंदरवन) में उपनिवेश कायम करने की सनद लेकर आया था और इसी सनद पर उसे चेंगुटिया परगना की जमींदारी मिली। इन खान जहां के पास ताहेर नामका एक व्यक्ति आया जो पहले ब्राण था, लेकिन एक मुसलमान महिला के प्रेम में पड़के इस्लाम धर्म को कबूल कर लिया था। वह नवद्वीप के निकट के पिरलिया अथवा पिरल्या गांव का निवासी था। पिरल्या गांव का निवासी होने के नाते लोग उसे पिरल्या खां कह कर पुकारने लगे। ताहेर कार्यपटु और दक्ष व्यक्ति था, इसीलिये खान जहां ने उसे दीवान बना कर जसहोर बुला लिया था। इसी ताहेर के यहां उपरोक्त दक्षिणानाथ के दो बेटे कामदेव और जयदेव प्रमुख कर्मचारी के पद पर नियुक्त हुए।


कहते हैं कि एक दिन रोजा के समय ताहेर उर्फ‍ पीरअली एक नींबू की सुगंध ले रहा था। उसी समय कामदेव ने मजाक में कहा कि शास्त्रों के अनुसार गंध लेना आधे भोजन के समान है। इसीलिये आपका रोजा टूट गया है। ताहेर मुसलमान होने पर भी ब्राह्मण की संतान था। वह कामदेव के मजाक को फौरन समझ गया, लेकिन उसने विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा। इसके बाद एक दिन उसने एक मजलिस बुलाई जिसमें ब्राह्मणों सहित तमाम जाति के लोगों को आमंत्रित किया था। इस जलसे में चारों ओर से मुगलाई खाने की गंध फैली हुई थी, जिसे हिंदू सहन नहीं कर पारहे थे। कई लोग कपड़े से नाक को ढक कर बाहर निकल गये। लेकिन चालाक पीरअली ने कामदेव और जयदेव को पकड़ लिया और कहा कि सुगंध से यदि आधा भोजन हो जाता है तो निश्चित तौर पर गोमांस की गंध लेकर तुमने अपनी जाति गंवा दी है। इन दोनों भाइयों ने भागने की कोशिश की, लेकिन पीरअली के लोगों ने उन्हें दबोच कर उनके मूंह में उस प्रतिबंधित मांस को ठूस दिया और इसप्रकार, वे दोनों ही जाति–च्युत होगये। इसके बाद से ही कामदेव को कमाल खान और जयदेव को जमाल खान के नाम से जाना जाने लगा। पीरअली ने दोनों को जागीर भी दिलवा दी। पीरअली की उस महफिल में और भी जो लोग उपस्थित थे, उनके दुश्मनों ने उन्हें ‘पीराली’ घोषित करके समाज से निकाल दिया। उनमें से भी जिनके पास रुपयों की ताकत थी, वे तो समाज के पंडों की कृपा से फिर से जाति में वापस आगये, और जो किसी भी वजह से इन पंडों को खुश नहीं कर पायें वे ‘पीराली’ बन कर समाज से वहिष्‍कृत रहे।


कामदेव, जयदेव के दो अन्य भाई रतिदेव और शुकदेव रायचौधुरी अपने दक्षिणडीही के घर में रहते थे। रतिदेव ने समाज के अत्याचारों से दुखी होकर गांव छोड़ दिया। शुकदेव को भी भारी कष्ट उठाने पड़े। नाना छल–चतुराई से शुकदेव ने अपनी बेटी और भतीजी का ब्याह किया। बेटी का विवाह एक श्रेष्ठ श्रोत्रिय जाति के नौजवान, पीठाभोग के जमींदार जगन्नाथ कुशारी से किया और भतीजी का विवाह फुलिया के एक मुखुटी से कर दिया। एक पतित ब्राह्मण परिवार में विवाह करने के कारण जगन्नाथ को उसके कुटुंब और जाति से वहिष्‍कृत कर दिया गया और वह पीठाभोग के बजाय दक्षिणडीही में अपने ससुराल में रहने लगा। शुकदेव ने अपने जंवाई को पूरी इज्जत बख्शी और आज के बारोपाड़ा नरेन्द्रपुर गांव के उार में उारपाड़ा नामका एक गांव उसे दान में दे दिया। इसप्रकार शुकदेव की भतीजी और बेटी के विवाह से ब्राणों की ‘पीराली’ शाखा चल पड़ी।


कहा जा सकता है कि बंगाल के ठाकुर परिवार के आदिपुरुष ये जगन्नाथ कुशारी महाशय ही थे जो अपने ब्याह के चलते पीराली समाज में शामिल होगये थे। जगन्नाथ के दूसरे बेटे पुरुषोत्‍तम से ठाकुर वंश की परंपरा चली। पुरुषोत्‍तम के पोते रामानंद के दो बेटे महेश्वर और शुकदेव के समय से यह ठाकुर परिवार कोलिकाता निवासी होगया।


इस बारे में कहानी यह है कि जाति के कारण झेल रहे अपमान की वजह से ही महेश्वर और शुकदेव अपने गांव बारोपाड़ा से निकल कर कोलिकाता गांव के दक्षिण में गोविंदपुर में आकर बस गये। तब तक अंग्रेजों को गोविंदपुर, सुतानाटी और कोलिकाता नामक तीन गांवों की सनद मिल चुकी थी। अंग्रेजों के वाणिज्यिक जहाज इसी गोविंदपुर की गंगा में ही आकर लगा करते थे।  उन दिनों कोलिकाता और सूतानाटी में सेठ बसाक नामके एक प्रसिद्ध व्यापारी हुआ करते थे। अंग्रेज कप्तानों के इन जहाजों से माल–असबाब की ढुलाई–लदाई और खाने–पीने की व्यवस्था का काम पंचानन कुशारी किया करते थे। इन सभी मेहनत के कामों में स्थानीय हिंदू समाज की तथाकथित निम्न जातियों के लोग उनके लिये काम करते थे। ये लोग एक ब्राह्मण भले आदमी को उसके नाम से पुकारने में हिचकते थे, इसीलिये वे पंचानन को ‘ठाकुर मोशाय’ कह कर पुकारने लगे। इसीसे जहाज के कप्तान उसे पंचानन ठाकुर के नाम से जानने लगे। अपने कागजातों में उन्होंने उसके नाम के साथ Tagore, Tagoure लिखना शुरू कर दिया और इसप्रकार ‘कुशारी’ पदवी का स्थान ‘ठाकुर’ पदवी ने ले लिया।


पंचानन ठाकुर के दो बेटे हुए – जयराम और रामसंतोष तथा शुकदेव के एक बेटा, कृष्णचंद्र। अंग्रेज व्यापारियों से तीनों ने थोड़ी अंग्रेजी सीखी। इसके अलावा उन दिनों फ्रेंच भाषा का भी अच्छा–खासा चलन था। 1742 में कोलिकाता की पैमाईश का काम शुरू हुआ और जयराम तथा रामसंतोष अमीन के पद पर नियुक्त होगये। इसी कारण से खुलना में इनका पैतृक निवास ‘अमीन का निवास’ के नाम से प्रसिद्ध है। उसी समय कंपनी ने ‘फोर्ट विलियम’ के निर्माण का काम शुरू किया था। सरकार के जिस विभाग को निर्माण का यह काम सौंपा गया था, जयराम उस विभाग से जुड़े हुए थे। ‘फोर्ट विलियम’ की इस इमारत को बनाने में तब बेशुमार पैसा खर्च हुआ था और इसके पूरा होने में भी अनुमान से काफी ज्यादा समय लगा था। कहते है कि उन दिनों कंपनी के अधिकारियों से लेकर साधारण गुमाश्ते तक में ईमानदारी नामकी कोई चीज नहीं हुआ करती थी और ‘फोर्ट विलियम’ की इमारत को बनाने में चीफ इंजीनियर से लेकर सरदार मिस़्त्री तक सबने काफी धन कमाया था। जयराम ने इस काम में क्या कमाया इसके बारे में कोई पक्की जानकारी न होने पर भी यह सच है कि उन्होंने उसी काल में धनसाय (आज के धर्मतल्ला, शहीद मीनार) में मकान बनाया, जमीनें खरीदी और फोर्ट विलियम्स के पास ही गंगा के तट पर एक बगान बाड़ी बनायी। वे जब मरे तब धन–संप​िा के लिहाज से काफी अच्छे थे। जयराम ठाकुर के तीन बेटे थे – नीलमणि, दर्पनारायण और गोविंदराम। उन्होंने अपने बड़े बेटे आनंदीराम को त्याग दिया था, जिसके दो बेटे थे।


कोलिकाता पर जब सिराजुद्दौल्ला ने हमला किया तब जयराम ने अपनी चल संप​किंतु, सोने के गहनों आदि को फोर्ट विलियम्स में जमा करा दिया था। उस हमले में धनसाय के घर को भी कोई नुकसान नहीं पंहुचा था। 1756 में जयराम की मृत्यु के थोड़े दिनों बाद ही नीलमणि आदि ने अपने पूर्वजों की धनसाय की संप​त्‍ति‍ को 5 हजार रुपयों में बेच दिया। 1757 में पलाशी की लड़ाई के बाद मीरजाफर अलि खां बंगाल सूबे के नवाब बने और सिराजुद्दौल्ला के हमले से हुई शहर की तबाही के मुआवजे के तौर पर उन्होंने ब्रिटिश कम्पनी को भारी रकम अदा की। उसी कोष में से ड्रेक साहब ने जयराम अमीन के बेटों को छ: हजार रुपये दिलवा दिये। जयराम के बेटों के पास इससे कुल 13 हजार रुपये की नगद संप​त्‍ति‍ होगयी। 1764 में इन्हीं बेटों ने कोलिकाता गांव के पाथुरियाघाटा क्षेत्र में जमीन खरीद कर अपना घर बनाया और 13 हजार रुपयों से कंपनी के कागजात खरीद कर अपने गृहदेवता श्रीश्री राधाकांत जीओ के नाम से एक धर्मादा खाता तैयार कर दिया। इन रुपयों पर मिलने वाले ब्याज से देवपूजा के खर्च की व्यवस्था होती थी। 


नीलमणि और दर्पनारायण अपने पाथुरियाघाट के आवास के दिनों में साहबों के दीवान बन गये। बड़े भाई दर्पनारायण तो घर पर रह कर पुरखों की संप​त्‍ति‍ को सम्हाले हुए थे। छोटा भाई नीलमणि कमाई के लिये कलकत्‍ते के बाहर निकल गया। उसने पहले एक जिला अदालत में अधीनस्थ अमले के रूप में काम किया और धीरे–धीरे सेरिस्तदार के पद तक चला गया। उन दिनों कोई भी देशी आदमी सरकार में इससे बड़े पद की उम्मीद नहीं कर सकता था। इसके अलावा, तब धन होने मात्र से समाज में मान नहीं मिलता था। कोलिकाता में पैसेवालों को ‘बाबू’ कहा जाता था। कुलीनों की जमात में जगह तभी मिलती थी जब किसीके पास जमींदारी हो। नीलमणि ने सेरिस्तदार के पद पर रहते हुए जो कमाई की उसीसे ठाकुर परिवार में वस्तुत: जमींदारी का श्रीगणेश किया। उनकी अगली पीढ़ी के राममणि ने भी उड़ीसा में थोड़ी जमींदारी खरीदी; फिर उनके भाई राम वल्लभ ने उसमें और संप​त्‍ति‍ जोड़ी। लेकिन जिसे वास्तव में जमींदार का ओहदा कहते है, वह सम्मान नीलमणि के पोते, द्वारकानाथ को ही मिला।


बहरहाल, पाथुरियाघाट का संयुक्त परिवार एकदिन टूट गया। इसके मूल में संप​त्‍ति‍ का मसला था। नीलमणि बाहर से हर महीने अपने बड़े भाई को अपनी बचत से रुपये भेजा करता था। लेकिन जब वह सरकारी सेवा से निवृत्‍त्त हुआ, तब इन्हीं रुपयों के हिसाब को लेकर दोनों भाइयों के बीच मनमुटाव होगया। बाद में समझौता हुआ तो नीलमणि एक लाख रुपया नगद लेकर पाथुरियाघाट का मकान और धर्मादे की संप​ति‍ छोड़ अपने छोटे भाई से अलग होगये। नीलमणि ने जोड़ाबगान के कर ब्राण वैष्णवचरण सेठ से जोड़ासांकू में घर बनाने के लिये एक बीघा जमीन ली और सन् 1784 के जून महीने से उनका परिवार वहीं जाकर रहने लगा। कहा जाता है कि चूंकि नीलमणि खुद पक्के ब्राण थे, इसीलिये वैष्णव सेठ ने उन्हें बहुत मामूली कीमत पर जोड़ासांकू की जमीन दे दी थी। वैष्णव सेठ किस प्रकार के ब्राण थे, यह अकेले इस तथ्य से जाना जा सकता है कि वे कलको में शुद्ध गंगा जल के संरक्षक माने जाते थे और उसके सबसे बड़े निर्यातकर्ता थे। कलको से बाहर जहां गंगा जल नहीं मिलता था, वहां गंगा जल से भरे उन्हीं घड़ों को शुद्ध माना जाता था, जिन पर वैष्णव सेठ की मोहर लगी होती थी। बहरहाल, रवीन्द्रनाथ ठाकुर को जिस जोड़ासांकू के ठाकुर परिवार से जोड़कर हम देखते हैं, उस परिवार की परंपरा इसी जोड़ासांकू के मकान से शुरू हुई थी। अर्थात, जयराम ठाकुर के दूसरे बेटे नीलमणि ठाकुर को जोड़ासांकू के ठाकुर परिवार का आदिपुरुष, उत्स कहा जा सकता है।


नीलमणि के तीन बेटे और एक बेटी थी : रामलोचन, राममणि, रामवल्लभ, और कमलमणि। नीलमणि की अपनी सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा के चलते उन्होंने अपनी बेटी का विवाह तो एक आस्थावान हिंदू परिवार में कर दिया लेकिन बेटों की शादी पीराली समाज में ही करनी पड़ी।


नीलमणि के बाद ठाकुर परिवार के मुखिया बने रामलोचन। उनकी अपनी कोई संतान न होने के कारण उन्होंने अपने भाई राममणि के बेटे द्वारकानाथ को गोद ले लिया। राममणि ने दो शादियां की थी। पहली पत्नी मेनका देवी से राधानाथ, जावी देवी, रासविलासी और द्वारकानाथ पैदा हुए तथा दूसरी पत्नी दुर्गामणि से रमानाथ और सरस्वती देवी का जन्म हुआ। रामलोचन अपने जमाने के एक संभ्रांत भद्रजन थे। प्रभातकुमार मुखोपाध्याय के शब्दों में अपनी वेशभूषा के ढंग, सांध्य–भ्रमण, संगीत प्रेम आदि तत्कालीन कुलीनों के लक्षण उनमें दिखाई देते थे।


जाहिर है कि इस पूरे लेख में हमने रवीन्द्रनाथ ठाकुर के कुल-गोत्र, वंश परंपरा और उनके परिवार की सामाजिक स्थिति पर विस्तार से चर्चा की हैं। फिर भी हमारा मक़सद सिर्फ़ उनके वंश का इतिहास बताना नहीं है। हम इसे एक ऐसी ज़मीन की तरह देखना चाहते हैं, जहाँ से उनके व्यक्तित्व और उनके स्वतंत्र स्वभाव की जड़ें पोषित होती हैं।



रवीन्द्रनाथ जिस ठाकुर परिवार से आते हैं, उस परिवार की नींव में ही एक विचित्र का द्वंद्व-बीज पड़ गया था – उसे कभी समाज के ऊपरी कुलीन तबकों में गिना जाता था, तो कभी जाति से बाहर कर ‘पीराली’ कह कर अपवर्जित कर दिया गया । इसी खींच-तान ने उस परिवार की सामाजिक आकांक्षा, असुरक्षा और नवाचार की एक खास गति तय की। यही पृष्ठभूमि आगे चलकर रवीन्द्रनाथ के आत्मविश्वास, खुलेपन और स्वतंत्र चेतना की नींव बनती है।


फ्रांसीसी विचारक और मनोविश्लेषक जॉक लकान का एक सिद्धांत है—नाम-का-पिता।(name-of-father, le Nom-du-Père) इसका मतलब है कि कोई भी व्यक्ति सिर्फ़ अपने जैविक पिता से नहीं, बल्कि उस सामाजिक नाम, उस मान्यता और उस प्रतीकात्मक स्थिति से बनता है जो पिता के माध्यम से उसे समाज में मिलती है। यह नाम—यानी ‘पिता का नाम’—व्यक्ति को भाषा, परंपरा और कानून के संसार से जोड़ता है और उसकी इच्छा, उसके आत्मबोध को एक दिशा देती है।


ठाकुर परिवार में यह ‘पिता का नाम’ कई बार टूटा, बदला और फिर से बना। यही प्रक्रिया, जो कभी अपमान में और कभी प्रतिष्ठा में घटित हुई, बाद में रवीन्द्रनाथ के मनोविकास में एक गहरे आत्मबोध का कारण बनी। रवीन्द्रनाथ सामाजिक प्रतिष्ठा के सर्वोच्च शिखर पर जाकर भी ‘पिरालीपन’ की पीढ़ियों पुरानी स्मृति को त्याग नहीं पाते हैं । इसने उनमें एक ऐसे सनातन विद्रोही भाव को बनाये रखा जिससे वे न कभी गुलाम नागरिक की मानसिकता से दबे, न किसी जातिगत कुंठा से। वे अपने नाम को, अपनी जगह को, अपने काव्य और चिंतन से खुद गढ़ते चलते गए।


इस लेख को इसी नज़र से पढ़ा जाना चाहिए कि ठाकुर परिवार की यह पूरी ऐतिहासिक यात्रा, अपने आप में रवीन्द्रनाथ के आत्म-निर्माण के प्रस्थान की एक प्रतीकात्मक कथा है—जहाँ सामाजिक यथार्थ और मनोविश्लेषण मिलकर एक ऐसे व्यक्तित्व की रचना करते हैं जो स्वभावतः स्वतंत्र है, और जिसकी चेतना आधुनिक भारत के लिए एक नया नाम बन जाती है।


ठाकुर परिवार का इतिहास, जैसा कि हमने देखा, न सिर्फ़ कुलीनता-अकुलीनता के पारंपरिक द्वंद्व में उलझा हुआ था, बल्कि एक ऐसे ऐतिहासिक क्षोभ से भी संचालित था जिसमें जाति, वंश और सत्ता के सभी प्रतीक एक प्रकार की अस्थिरता और अपवर्जन (exclusion) से गुजरते रहे। इसी द्वंद्व में, लकान के ‘नाम-का-पिता’  की अवधारणा एक विशेष महत्व ग्रहण करती है। यह कोई जैविक या नैतिक सत्ता नहीं, बल्कि वह सांस्कृतिक, प्रतीकात्मक (symbolic) कार्य है जो प्रमाता को संरचित करता है, उसे सामाजिक भाषा, उत्तराधिकार और कानून की दुनिया में स्थान प्रदान करता है। ठाकुर वंश में यह प्रतीकात्मक पिता-स्थान एक बार नहीं, कई बार विचलित होता है—पीराली ब्राह्मणों के रूप में बहिष्कृत, फिर अंग्रेज़ी प्रशासन में उच्च पदों द्वारा पुनः प्रतिष्ठित।


इस ‘अव्यवस्थित पितृत्व’ (dislocated paternity) के बावजूद, जब द्वारकानाथ ठाकुर अकूत धन-संपत्ति इकट्ठा करके प्रिंस कहलाने लगते  हैं और देवेन्द्रनाथ एक आधुनिक धार्मिक विचार (ब्रह्मो समाज) के प्रतिनिधि बन जाते हैं, तब यह पिता का नाम पुनः प्रतिष्ठित होता है— इसकी "प्रतीकात्मक व्यवस्था" की पुनर्स्थापना । यही क्रम रवीन्द्रनाथ में आकर एक ऐसे सृजनात्मक अधिनियम का रूप ले लेता है, जिसमें पिता का नाम केवल उत्तराधिकार नहीं बल्कि आत्म-पहचान, स्वयं से अर्जित नाम में रूपांतरित हो जाता है।


रवीन्द्रनाथ के जीवन में ‘नाम-का-पिता’ की लकानियन क्रिया एक ऐसी स्थिति तैयार करती है जिसमें वे न तो जातिगत कुंठा के शिकार होते हैं और न ही सत्ता की आकांक्षा से बंधते हैं। वे एक "मुक्त प्रमाता" (free subject) की तरह उस ‘प्रतीकात्मक अभाव’ को आत्मसात करते हैं जिसकी गति उन्हें न सिर्फ़ आधुनिक भारत के सांस्कृतिक प्रमाता के रूप में स्थापित करती है, बल्कि उन्हें एक ‘समाज-सृष्टा कवि’ (poet as lawgiver) बना देता है। इसप्रकार, ठाकुर वंश के भीतर घटित यह प्रतीकात्मक प्रक्रिया, कुलीनता और अकुलीनता के बीच के सभी संक्रमणों को पार करती हुई, रवीन्द्रनाथ के आत्म-निर्माण का वह धरातल प्रदान करती है जिसे हम लकान के शब्दों में एक नाम का मिलना कह सकते हैं—एक ऐसा नाम जो ‘अकुंठ मानव’ के खुले आसमान की तरह उन्मुक्त होता है।



संदर्भ

1. Lacan, Jacques. Écrits एवं The Psychoses: The Seminar of Jacques Lacan Book III. अनुवाद एवं संपादन: Jacques-Alain Miller. Routledge.

2. मुखोपाध्याय, प्रभात कुमार. रवीन्द्र-जीवनी, चार खंडों में. विश्वभारती प्रकाशन.

3. Risley, Herbert Hope. The People of India (1908).

4. चक्रवर्ती, निलमणि. Banglar Brahman O Brahmanitva (बांग्ला में).

5. Tagore, Rabindranath. My Reminiscences (1917).

6. Bhattacharya, Sabyasachi (Ed.). The Mahatma and the Poet: Letters and Debates Between Gandhi and Tagore 1915–1941.


बुधवार, 7 मई 2025

उड़ने की स्मृति और गिरने की संरचना

 

(अनामिका की ‘उड़ान’ का पूर्व-प्रमातृ विमोह)

−अरुण माहेश्वरी



आज ही ‘आलोचना’ पत्रिका का 77वां (अप्रैल-जून 2024) अंक मिला। ‘इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता’ पर केंद्रित अंक । पत्रिका को उलटते-पलटते अनायास अनामिका की कविता ‘उड़ान’ पर नज़र ठिठक गई। इस कविता को एक बार में ही पढ़ जाना संभव था, पर इसकी सरल संरचना ने एक गहरे सोच में डाल दिया । मन में दो साल पुरानी अपनी एक आलोचनात्मक टिप्पणी की स्मृति उभर आई। वह जुलाई 2022 की बात है, जब गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ पर हमने अपने ब्लाग पर एक लम्बी समीक्षा लिखी थी। 

उस समय ‘रेत समाधि’ को लेकर अकादमिक और साहित्यिक हलकों में खासी हलचल थी क्योंकि तभी उसके अंग्रेजी अनुवाद ‘Tomb of Sand’ को बुकर पुरस्कार मिला था । प्रेमचंद जयंती सर पर थी । कथा सम्राट प्रेमचंद के कथाशिल्प के परिप्रेक्ष्य में ’रेत समाधि’ की कथात्मक संरचना को लेकर एकबारगी गहरी उलझनें महसूस हुई थीं । उपन्यास की पूरी संरचना लगा जैसे सचेत रूप में प्रमातृत्व के संबंध-सूचक संकेतों से इंकार करती हुई प्रमाता की प्राणीसत्ता, पूर्व-प्रतीकात्मक संरचना और सरियलिस्ट बिंब-विन्यास से निर्मित थी। (देखें - https://chaturdik.blogspot.com/2022/07/blog-post.html)

हमें यह देख कर आश्चर्य हुआ कि अनामिका जी की कविता ‘उड़ान’, जो बिना किसी भाषिक जटिलता के एक छोटी-सी साफ-सुथरी कविता है, कुछ वैसे ही इंकार के एक जटिल विमोही भाव-बोध को व्यक्त कर रही है जिससे हमने ‘रेत समाधि’ को जुड़ा पाया था । स्त्री-प्रमाता की आत्म-लोपकारी छवियों से स्मृति की पूर्व-प्रमातृ गति को प्राप्त करने की सजग रचना ; स्त्री की ऐसी छवि, जो अपनी ऐतिहासिकता, सामाजिकता और चिद्विमर्श की अंतःसंरचना से कटकर एक प्रमातृ-पूर्व स्मृति में बदल जाना चाहती है? 

अनामिका की कविता में ‘गुमटी’, ‘ख़ाला का घर’, ‘बगलों में लोटन कबूतर’ जैसे बिंब उसी प्रकार की प्रमातृ-पूर्व स्मृति की ओर वापसी के संकेत हैं, जैसे ‘रेत समाधि’ में ‘माई’ के ‘नहीं’ का स्वातंत्र्यात्मक विमर्श स्मृति के ही एक रूप में आता है। दोनों ही रचनाओं में प्रमाता की विशिष्ट सामाजिक पहचान को विसर्जित कर स्त्री अन्य संबंधों से सचेत रूप में कटी हुई सत्ता की कामना करती है। प्रमातृ-पूर्व से तात्पर्य यही है कि अपने वर्तमान के सामाजिक स्वरूप से मुक्ति के लिए स्मृतियों की शरण में जाना ।  

यहाँ संबंधों के अस्वीकार के इस प्रसंग को किंचित दार्शनिक आलोचना में उतारना हमें जरूरी लग रहा है। कश्मीरी शैवदर्शन के प्रमुख आचार्य उत्पलदेव अपनी कृति संबंधसिद्धि (सिद्धित्रयी) में यह कहने के बाद कि प्रमाता ही संबंधों के जरिए वस्तुओं के भेद को देखता है और लोक- व्यवहार का प्रारंभ करता है, 22वें श्लोक में वे लिखते हैं:

न परं तास्तथा भ्रान्ताः सर्वा अपि प्रतिक्षणात् ।

स्वसंवित्संज्ञकानन्तचिद्विमर्शप्रतिष्ठिताः ॥22॥

(संबंधबुद्धियाँ रस्सी में सर्प की भ्रांति जैसी नहीं हैं, क्योंकि वे सब आत्मसंवित् नामक अनन्त चिद्विमर्श में प्रतिक्षण प्रतिष्ठित हैं।)

अर्थात् संबंध कोई भ्रांति नहीं, बल्कि आत्मचेतना का स्वाभाविक प्रवाह हैं। प्रमाता केवल तब ही एक सक्रिय सत्ता बनता है जब वह ‘अन्य’ से, सम्बंध-बुद्धियों से संवाद करता है। इनका निषेध आत्मसंवित् के उस अनंत चिद्विमर्श को बाधित करता है जिससे प्रमाता की ऐतिहासिकता और संघर्षशीलता जन्म लेती है।

जब हम प्रमातृ-पूर्व स्थिति की चर्चा करते हैं तो उसका तात्पर्य उसी संबंध-विमर्श के अभाव की स्थिति की ओर इंगित करना है जो ‘रेत समाधि’ और ‘उड़ान’ — दोनों में बिल्कुल सतह पर दिखाई देता है। ‘रेत समाधि’ में स्त्री सिर्फ एक ‘नहीं’ कहती है और चित्त के अपने सुरक्षित जगत के सपने में खो जाती है । यह ‘इंकार’ किसी द्वंद्वात्मक ‘ना’ के बजाय एक आत्म-आश्वस्तिमूलक निषेध की तरह आता है, जो उसे उसकी सामाजिक ऐतिहासिकता से काटता भी है। 

यहाँ एक प्रश्न यह भी है कि अनामिका जिसे एक स्त्री-सुलभ काव्यगुण के रूप में प्रस्तुत करती हैं, क्या वह ‘सरलता’ एक रणनीतिक चयन नहीं है? क्या यह एक विचारात्मक तटस्थता नहीं है जो विरोध की जगह स्मृति और आत्म-मोह में ठहरना चाहती है? ‘उड़ान’ की स्त्री जब स्वयं को ‘पगलेटऊ’ कहती है, जब वह ‘कक्षा’ से डरकर बगलों में झाँकती है, तो वह भाषा के प्रतीकात्मक अनुशासन से एक पल के लिए पीछे हटती है, लेकिन वह पीछे हटना भी भाषा के भीतर ही होता है। यह वह अवचेतन है जिसे जॉक लकान भाषा की तरह ही संरचित देखते हैं । वह किसी प्रतीक-व्यवस्था से अलग होना नहीं, बल्कि उसे थोड़ा पुनर्व्यवस्थित करने का उपक्रम भर होता है। अर्थात् प्रमाता अपने जीवन की दिशा में चयन के लिए भाषा से मुक्त नहीं, बल्कि उसके अंदर ही गतिशील होता है। 

अनामिका जी कहती है, “मैं घबराकर अपनी बगलों में झाँकती हूँ / वहाँ लोटन कबूतर होते हैं”। यह घबराहट, यह लोटन कबूतर वाली घूम कर होने वाली वापसी — भाषा की ही गोद में, मगर भाषा के अर्थ से दूर, प्री-ओडिपल स्मृति की ओर लौटने की कोशिश है। लकान कहते हैं कि प्रमाता में ‘प्री-ओडिपल’ की आकांक्षा स्वयं में कोई निर्वाण नहीं, एक संकेत भर है, भाषाई संरचना में छेद की आकांक्षा, पर उस छेद से बाहर की कोई स्वाधीनता नहीं है, सिर्फ़ एक अव्यक्त पुनरावृत्ति है।

जॉक लकान के अनुसार प्री-ओडिपल भाव भी एक भाषा-सदृश संरचना है। अतः यह उड़ान भी मुक्ति नहीं, बल्कि संरचना के भीतर ही गिरने का एक सौंदर्यशास्त्र है — एक ऐसा सौंदर्य, जिसमें सरलता की चाहत जटिल अभिनय में ढल जाती है। कविता का यह गठन हमें काव्यात्मक संवेदना अर्थात् अव्यक्त के कंपन के स्फोट के बजाय एक भाषिक पतन की संरचना जैसा दिखाई देता है। 

स्त्री का यह चेतन प्रस्थान, जहाँ संबंधों की स्वीकृति के बजाय उनकी उपेक्षा को मुक्ति का पर्याय माना जाता है, मूलतः एक खास पहचान के विमोह का सूचक है। यह नकारात्मक सौंदर्य, यह ‘नहीं’ की झंकार, यह पूर्व-ओडिपल स्मृतियों में पनाह की आस आज के कथित स्त्री-लेखन की एक प्रचलित बौद्धिक मुद्रा है — जिसमें राजनीतिक प्रमाता की जगह, अर्थात् हर असंभव में संभावना के सूत्र को खोजने की जगह, ‘पूर्व-प्रमातृ विमोह’ सक्रिय हो जाता है। यह विमोह निश्चय ही अपने आप में संवेद्य और गहन होता है । हमारे समय के लिए यह महत्वपूर्ण भी हो सकता है — क्योंकि इससे यह इंगित मिलता है कि मुक्ति की आकांक्षा और विमोह की जकड़न के बीच का अंतर कभी-कभी सिर्फ़ भाषिक होता है। लेकिन हमारी नजर में यह हमारे समय के प्रतिवाद-विमर्श के लिए पर्याप्त नहीं है ।

इसीलिए हमने इस ओर इशारा करना जरूरी समझा । और शायद यह भी कहना जरूरी माना है कि उड़ान तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक वह गिरने की संरचना को पहचान कर उसे पार न कर सके — न केवल स्मृति की ओर लौट कर, बल्कि संकेतकों के उस इंद्रजाल से दो-दो हाथ करके भी, जो स्वसंवित् के वास्तविक चिद्विमर्श को संभव बनाते हैं। 

यही पूर्व-प्रमातृ पुनरावृत्ति रेत समाधि के बिंबों में भी प्रकट होती है — जैसे बेटी जो ‘हवा से बनी’ है, या माई का ‘नहीं’ जो नकार नहीं, बल्कि जैविक आत्मसंरक्षण है। ये सब बिंब प्रमाता के विघटन के संकेत हैं — वह न चरित्र बनाता है, न कथा;  सिर्फ़ छायाएं निर्मित होती हैं — जो अपनी भाषा के भीतर ही बुदबुदाती हैं, पर किसी अर्थ में ठहरती नहीं।

ऐसा विमर्श आपको स्वतः उस लकानियन सीमा की ओर ले जाता है जहाँ संकेतकों के संस्पर्श से अर्थ की उत्पत्ति नहीं, बल्कि उसका विरेचन होता है।





मंगलवार, 6 मई 2025

Beacon of Hope (आशा का प्रकाश स्तंभ)

क्या वाम को सिर्फ एक नैतिक शक्ति मानना पर्याप्त है?

— अरुण माहेश्वरी


प्रभात पटनायक का लेख “
Beacon of Hope”, आज (7 मई 2025) के The Telegraph अख़बार में प्रकाशित हुआ है। यह लेख समकालीन वैश्विक संकटों के बीच समाजवाद की संभावना को एक नैतिक आलोक की तरह प्रस्तुत करता है। लेख की केन्द्रीय चिंता यह है कि नवउदार पूंजीवाद के भीतर उपजे सामाजिक विघटन, श्रमिक वर्ग की दरिद्रता और नव-फासीवादी उभारों से उबरने का मार्ग केवल समाजवाद ही है। विशेष रूप से भारत में, वे कॉर्पोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ को नव-फासीवाद की विशिष्ट अभिव्यक्ति के रूप में चिन्हित करते हैं।

यह आलोचना एक सीमा तक सही भी है, लेकिन प्रभात पटनायक की विश्लेषणात्मक दृष्टि प्रायः घटित के विवरण तक ही सीमित रह जाती है। वे विवरण को ही सैद्धांतिकता में रूपांतरित कर देने की एक स्थिर पद्धति के भीतर काम करते हैं — फलतः वे उन नवीन संघर्षों, विखंडनों और शक्ति-संयोजनों की पहचान नहीं कर पाते जो विश्व राजनीति की किसी भी धारा के लिए निर्णायक होते हैं।

उनकी एक बड़ी चूक यह है कि वे समकालीन नव-फासीवाद को बीसवीं सदी के तीस और चालीस के दशक के क्लासिकल फासीवाद की संरचना में ही समझने का प्रयास करते हैं। जबकि आज फासीवाद का कोई भी रूप, श्रमिक वर्ग के किसी सशक्त प्रतिरोध की अनुपस्थिति में, न तो संगठित जनचेतना को कुचलने की उसी पुरानी ऐतिहासिक भूमिका में दिखाई देगा, और न ही पुराने किस्म के अधिनायकवाद के साथ। इसके बजाय, आज का नव-फासीवाद वित्तीय पूंजी के अंतर्द्वंद्वों, तकनीकी अधिरचना, और वैश्विक असंतुलन की एक जटिल प्रतिक्रिया है। इसे भले ही सुविधा के लिए नव-फासीवाद कहा जाए, लेकिन इसके और क्लासिकल फासीवाद के बीच फर्क सिर्फ अस्सी वर्षों का समयांतर नहीं है। कोई भी ऐतिहासिक संरचना अपनी हूबहू पुनरावृत्ति में नहीं लौटती — वह समय की गति के साथ रूपांतरित होती है।

इसी क्रम में प्रभात पटनायक जिस प्रकार ट्रंप की टैरिफ़ नीति को ‘beggar-thy-neighbour’ रणनीति भर बताते हैं, वह भी परिस्थितियों का गतिशील विश्लेषण नहीं है। वास्तव में, ट्रंप की नीति, चीन और ग्लोबल साउथ की प्रतिक्रियाएँ, और यूरोपीय संघ की सीमित परंतु सघन होती आर्थिक एकता — ये सब केवल प्रतिद्वंद्वी मुद्रा युद्ध नहीं, बल्कि इनके अंदर से भी एक नये वैश्विक सत्ता-संतुलन के पुनर्संयोजन के तमाम संकेत मिलते हैं।

प्रभात पटनायक इस भौतिक गतिकी को समझने से चूकते हैं। उनका ध्यान मुख्यतः वित्त पूंजी और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण के समीकरण पर है; इसके भीतर वे उस बदलती भूराजनैतिक संरचना को नहीं पहचानते, जिसमें आज वाम को नए रूप में संगठित होने की जरूरत है।

वाम की भूमिका केवल नैतिक प्रतिरोध की नहीं हो सकती है। इसीलिए उसे चीन और अमेरिका के बीच तीव्र होते अंतर्विरोधों की रोशनी में देखने की ज़रूरत है। चीन आज एक ऐसी शक्ति है जो न केवल वैकल्पिक उत्पादन और पूंजी के संचय का नया मॉडल प्रस्तुत करता है, बल्कि पश्चिमी पूंजी और उसके नैतिक वर्चस्व की सार्वभौमिकता को भी वास्तविक चुनौती दे रहा है। उसके सामने अमेरिका अभी हाँफता हुआ दिखाई देता है। इसके बरअक्स रूस की स्थिति ज्यादा उलझी हुई है — वह एक आक्रामक विस्तारवादी राष्ट्र नज़र आता है।

चीन के ज़रिए मूर्त हो रहे वास्तविक वाम विकल्प के साथ वियतनाम और क्यूबा जैसे देश भी शामिल हैं, जो दशकों से समाजवादी परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। इसके अतिरिक्त, ग्लोबल साउथ के वे देश जो चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना से जुड़े हुए हैं — जैसे कि अफ्रीका, लातिन अमेरिका और दक्षिण एशिया के कई राष्ट्र — वे सब भी एक नई वैश्विक आर्थिक-संरचना के विकास की ओर बढ़ रहे हैं। यह भी एक प्रकार का वैश्विक वाम पुनर्गठन है — जो न केवल साम्राज्यवाद-विरोधी है, बल्कि विकासशील देशों के बीच वैकल्पिक व्यवहार की ज़मीन तैयार करता है।

इसलिए ज़रूरी है कि वाम को एक वैकल्पिक वैश्विक जैविक शक्ति के रूप में देखा जाए। वह सिर्फ़ नैतिकता या राज सत्ता की पारंपरिक वाम व्याख्याओं तक सीमित न रहे, बल्कि विकासशील राष्ट्रों की भू-राजनीतिक आर्थिक आकांक्षाओं के साथ गुँथी हुई भौतिक शक्ति के रूप में पहचानी जाए।

प्रभात पटनायक का नैतिक आग्रह सराहनीय है, पर उसकी सीमाएँ स्पष्ट हैं। यदि वाम को आज की दुनिया में सिर्फ़ नैतिक पुकार नहीं, बल्कि एक वास्तविक, संगठित और निर्णायक विकल्प बनना है — तो उसे संघर्षशील अंतर्विरोधों की गति को समझकर, नए वैश्विक गठबंधनों में सक्रिय हस्तक्षेप की भूमिका निभानी होगी।


शनिवार, 3 मई 2025

फासिस्ट सत्ता की छाया में बुद्धिजीवी

(शैव दर्शन के आलोक में)

—अरुण माहेश्वरी



एक फासिस्ट शासन व्यवस्था की बुनियाद उस भ्रम में निहित होती है जहाँ सत्ता स्वयं को परम सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। इस भ्रम का सबसे गहरा असर उस वर्ग पर होता है जो समाज की चेतना का वाहक माना जाता है—सांस्थानिक बुद्धिजीवी वर्ग। यह जानते हुए भी कि सत्ता लोगों की आत्मचेतना को संकुचित कर रही है, वे भीतर ही भीतर एक प्रच्छन्न आनुगत्य के शिकार हो जाते हैं। यह वह स्थिति है जिसे शैव दर्शन में मायीयमल कहा गया है— एक ऐसा बौद्धिक आवरण जो चेतना को सीमित कर देता है और यह भ्रम रचता है कि यही एक मात्र विकल्प है। यही वह ‘There is no alternative’ वाला आत्मज्ञान है, जो सत्ता की भाषा में बुद्धिजीवी के आत्मबोध को ढाल देता है।


अभिनवगुप्त के तन्त्रालोक में इस प्रकार की सत्ता-आसक्ति को “चिदाकाश के अपहरण” के रूप में देखा गया है—जब कोई संगठन (जैसे आरएसएस) स्वयं को परमार्थिक आकाश की तरह प्रस्तुत करता है, तो वह वास्तव में चेतना के वास्तविक विस्तार चिदाकाश को अवरुद्ध कर देता है। मोदी जैसे नेता उस संगठन के प्रमात्रांश बन जाते हैं—ऐसे प्रतीक जो अपने को पूर्ण मानते हैं, पर वास्तव में संकुचित चैतन्य की कठपुतलियाँ होते हैं। यहाँ कोई स्वतंत्र स्पन्दन नहीं होता, बस एक यांत्रिक गति — जैसे सत्ता की डोर किसी और ही हाथ में हो।


शैव ग्रंथ विज्ञानभैरव इसे मनः क्षोभ कहते हैं—भयजनित मानसिक उत्तेजना। यह भय कोई स्पष्ट रूप नहीं लेता, बल्कि कोहरे की तरह चेतना में व्याप्त होता जाता है। इस छाया-चेतना के तहत बुद्धिजीवी सत्ता के प्रतीकों में सद्गुण देखने लगते हैं—छाया-शिव की आराधना करने लगते हैं। उन्हें यह भ्रम होता है कि वे स्वतंत्र हैं, जबकि उनकी आलोचना, भाषा, यहाँ तक कि प्रतिरोध के तरीके भी सत्ता की स्वीकृति के भीतर ही निर्धारित हो रहे होते हैं। उनका नाद — जो एक समय अनाहत स्वर था — अब सत्ता की ध्वनि बन जाता है, जो अस्वाभाविक और अनुनादहीन है।


यह स्थिति केवल समकालीन भारत की नहीं है। जोनाथन पेट्रोपौलोस की पुस्तक Artists Under Hitler हमें दिखाती है कि हिटलर के जर्मनी में आधुनिकतावादी कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने किस प्रकार सत्ता से सामंजस्य की उम्मीद में स्वयं को धीरे-धीरे खो दिया। पॉल हिंदेमिथ, एमिल नोल्द, गौटफ्रेड बेन, लेनी रिफेनस्थाल जैसे कलाकारों ने सोचा कि वे नाज़ी शासन में कला को स्थान दिला सकते हैं—यह भ्रम पाले रखा कि स्थिति सुधरेगी, शासन मानवीय होगा, और उन्हें उनके विशेषाधिकार फिर मिलेंगे। पर अंततः सत्ता ने न सिर्फ़ यह भ्रम तोड़ा, बल्कि उन्हीं बुद्धिजीवियों को निष्कासित कर दिया। वे सत्ता के साथ रहते हुए भी उसके लिए विदेशी बन गए।


यह ऐतिहासिक उदाहरण हमें यही सिखाता है: सत्ता, जब प्रमाता बन बैठती है, तब उसकी आलोचना के सभी उपकरण भी वह निगल जाती है। आलोचक सिर्फ़ सत्ता की ही भाषा बोलता है, यद्यपि विरोध के भेष में।


इससे मुक्ति का मार्ग वहीं है जिसे शैव दर्शन स्वातंत्र्य का नाद कहता है। चित्तं नादः— चित्त ही स्वर है। सत्ता के शोर से ऊपर उठकर, बुद्धिजीवी को उस स्वतः-स्फुरित नाद को सुनना होगा जो किसी प्रमात्रांश से नहीं, बल्कि स्वयं से उत्पन्न होता है। यह भैरवी दृष्टि है— भय को पहचानकर उसे नाद में रूपांतरित कर देने वाली दृष्टि। अभिनवगुप्त का सूत्र है: चिद्विलासः स्वातन्त्र्यम् — चेतना का विलास ही स्वतंत्रता है।


जहाँ भय है, वहाँ शिव नहीं। और जहाँ शिव नहीं, वहाँ न तो विचार स्वतंत्र होता है, न कला। बुद्धिजीवी का धर्म यही है: सत्ता के मायीय मल को पहचानकर उससे मुक्त होना, और अहं शिवः के भाव में एक स्वतंत्र चिदाकाश की रचना करना।


यहाँ चिद्विलास की अवधारणा से आतंकित होने की ज़रूरत नहीं है । फासीवादी सत्ताएँ सबसे पहले भाषा, विचार और विमर्श पर कब्ज़ा करती हैं। ऐसे में, बुद्धिजीवियों का यह दायित्व है कि वे सत्ता-निर्मित "सत्य" से मुक्त हों।  शैव दर्शन का "चिद्विलास" यही सिखाता है । यह एक आत्मशोधन की प्रक्रिया है, ताकि बुद्धिजीवी सत्ता के "मायीय मल" (भ्रमजाल) में फंसकर उसके अनुचर न बनें।  


परंतु यह कत्तई जनसंघर्ष का विकल्प नहीं है। चिद्विलास वैयक्तिक चेतना का विषय है, जबकि फासीवाद के खिलाफ लड़ाई सामूहिक संघर्ष की मांग करती है।  


शैव दर्शन की “अहं शिवः" (मैं ही शिव हूँ) की भावना व्यक्ति को आंतरिक रूप से सशक्त बनाती है, लेकिन सामाजिक परिवर्तन के लिए संगठित जन-आंदोलन, संवैधानिक लड़ाइयाँ और राजनीतिक विकल्पों का निर्माण ज़रूरी है।  


जर्मनी के उदाहरण में भी, जो बुद्धिजीवी नाज़ियों के साथ "समझौता" करते रहे, वे अंततः उसी व्यवस्था के शिकार हुए। इसलिए, वैचारिक स्वतंत्रता और जनसंघर्ष दोनों साथ-साथ चलने चाहिए । 


‘चिद्विलास’ से प्रेरित होकर बुद्धिजीवी सत्ता के भय से मुक्त हों, ताकि वे जनसंघर्ष को और प्रभावी ढंग से समर्थन दे सकें।  ‘चिद्विलास’ आंतरिक गुलामी को तोड़ने का उपकरण है, लेकिन बाहरी गुलामी (सत्ता का दमन) को खत्म करने के लिए जनसंघर्ष ही अंतिम हथियार है। दोनों एक-दूसरे के पूरक है । हमारे मत में चिद्विलास की यह अवधारणा ही जनतंत्र के लिए बुद्धिजीवियों के संघर्ष के किसी भी व्यापक मंच के इंद्रधनुष की तरह के स्वरूप का आधार प्रदान करती है ।


जैसे अभिनवगुप्त कहते हैं: ‘चिद्विलासः स्वातन्त्र्यम्’ (चेतना का विलास ही स्वतंत्रता है), परंतु इस स्वतंत्रता को साकार करने के लिए बाहरी संसार में भी संघर्ष जारी रहना चाहिए ।