मंगलवार, 6 मई 2025

Beacon of Hope (आशा का प्रकाश स्तंभ)

क्या वाम को सिर्फ एक नैतिक शक्ति मानना पर्याप्त है?

— अरुण माहेश्वरी


प्रभात पटनायक का लेख “
Beacon of Hope”, आज (7 मई 2025) के The Telegraph अख़बार में प्रकाशित हुआ है। यह लेख समकालीन वैश्विक संकटों के बीच समाजवाद की संभावना को एक नैतिक आलोक की तरह प्रस्तुत करता है। लेख की केन्द्रीय चिंता यह है कि नवउदार पूंजीवाद के भीतर उपजे सामाजिक विघटन, श्रमिक वर्ग की दरिद्रता और नव-फासीवादी उभारों से उबरने का मार्ग केवल समाजवाद ही है। विशेष रूप से भारत में, वे कॉर्पोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ को नव-फासीवाद की विशिष्ट अभिव्यक्ति के रूप में चिन्हित करते हैं।

यह आलोचना एक सीमा तक सही भी है, लेकिन प्रभात पटनायक की विश्लेषणात्मक दृष्टि प्रायः घटित के विवरण तक ही सीमित रह जाती है। वे विवरण को ही सैद्धांतिकता में रूपांतरित कर देने की एक स्थिर पद्धति के भीतर काम करते हैं — फलतः वे उन नवीन संघर्षों, विखंडनों और शक्ति-संयोजनों की पहचान नहीं कर पाते जो विश्व राजनीति की किसी भी धारा के लिए निर्णायक होते हैं।

उनकी एक बड़ी चूक यह है कि वे समकालीन नव-फासीवाद को बीसवीं सदी के तीस और चालीस के दशक के क्लासिकल फासीवाद की संरचना में ही समझने का प्रयास करते हैं। जबकि आज फासीवाद का कोई भी रूप, श्रमिक वर्ग के किसी सशक्त प्रतिरोध की अनुपस्थिति में, न तो संगठित जनचेतना को कुचलने की उसी पुरानी ऐतिहासिक भूमिका में दिखाई देगा, और न ही पुराने किस्म के अधिनायकवाद के साथ। इसके बजाय, आज का नव-फासीवाद वित्तीय पूंजी के अंतर्द्वंद्वों, तकनीकी अधिरचना, और वैश्विक असंतुलन की एक जटिल प्रतिक्रिया है। इसे भले ही सुविधा के लिए नव-फासीवाद कहा जाए, लेकिन इसके और क्लासिकल फासीवाद के बीच फर्क सिर्फ अस्सी वर्षों का समयांतर नहीं है। कोई भी ऐतिहासिक संरचना अपनी हूबहू पुनरावृत्ति में नहीं लौटती — वह समय की गति के साथ रूपांतरित होती है।

इसी क्रम में प्रभात पटनायक जिस प्रकार ट्रंप की टैरिफ़ नीति को ‘beggar-thy-neighbour’ रणनीति भर बताते हैं, वह भी परिस्थितियों का गतिशील विश्लेषण नहीं है। वास्तव में, ट्रंप की नीति, चीन और ग्लोबल साउथ की प्रतिक्रियाएँ, और यूरोपीय संघ की सीमित परंतु सघन होती आर्थिक एकता — ये सब केवल प्रतिद्वंद्वी मुद्रा युद्ध नहीं, बल्कि इनके अंदर से भी एक नये वैश्विक सत्ता-संतुलन के पुनर्संयोजन के तमाम संकेत मिलते हैं।

प्रभात पटनायक इस भौतिक गतिकी को समझने से चूकते हैं। उनका ध्यान मुख्यतः वित्त पूंजी और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण के समीकरण पर है; इसके भीतर वे उस बदलती भूराजनैतिक संरचना को नहीं पहचानते, जिसमें आज वाम को नए रूप में संगठित होने की जरूरत है।

वाम की भूमिका केवल नैतिक प्रतिरोध की नहीं हो सकती है। इसीलिए उसे चीन और अमेरिका के बीच तीव्र होते अंतर्विरोधों की रोशनी में देखने की ज़रूरत है। चीन आज एक ऐसी शक्ति है जो न केवल वैकल्पिक उत्पादन और पूंजी के संचय का नया मॉडल प्रस्तुत करता है, बल्कि पश्चिमी पूंजी और उसके नैतिक वर्चस्व की सार्वभौमिकता को भी वास्तविक चुनौती दे रहा है। उसके सामने अमेरिका अभी हाँफता हुआ दिखाई देता है। इसके बरअक्स रूस की स्थिति ज्यादा उलझी हुई है — वह एक आक्रामक विस्तारवादी राष्ट्र नज़र आता है।

चीन के ज़रिए मूर्त हो रहे वास्तविक वाम विकल्प के साथ वियतनाम और क्यूबा जैसे देश भी शामिल हैं, जो दशकों से समाजवादी परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। इसके अतिरिक्त, ग्लोबल साउथ के वे देश जो चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना से जुड़े हुए हैं — जैसे कि अफ्रीका, लातिन अमेरिका और दक्षिण एशिया के कई राष्ट्र — वे सब भी एक नई वैश्विक आर्थिक-संरचना के विकास की ओर बढ़ रहे हैं। यह भी एक प्रकार का वैश्विक वाम पुनर्गठन है — जो न केवल साम्राज्यवाद-विरोधी है, बल्कि विकासशील देशों के बीच वैकल्पिक व्यवहार की ज़मीन तैयार करता है।

इसलिए ज़रूरी है कि वाम को एक वैकल्पिक वैश्विक जैविक शक्ति के रूप में देखा जाए। वह सिर्फ़ नैतिकता या राज सत्ता की पारंपरिक वाम व्याख्याओं तक सीमित न रहे, बल्कि विकासशील राष्ट्रों की भू-राजनीतिक आर्थिक आकांक्षाओं के साथ गुँथी हुई भौतिक शक्ति के रूप में पहचानी जाए।

प्रभात पटनायक का नैतिक आग्रह सराहनीय है, पर उसकी सीमाएँ स्पष्ट हैं। यदि वाम को आज की दुनिया में सिर्फ़ नैतिक पुकार नहीं, बल्कि एक वास्तविक, संगठित और निर्णायक विकल्प बनना है — तो उसे संघर्षशील अंतर्विरोधों की गति को समझकर, नए वैश्विक गठबंधनों में सक्रिय हस्तक्षेप की भूमिका निभानी होगी।


2 टिप्‍पणियां:

  1. पटनायक अपने विश्लेषण में रूढ़िवादी वाम पंथी नजर आ रहे हैं। आपने विश्व परिप्रेक्ष्य के बदलते हुए समीकरणों की व्याख्या की है वह वर्तमान यथार्थ को समझने में मदद करती है। चीन के बारे में दक्षिण पंथी तो पूर्वाग्रह युक्त हैं ही, अधिकतर वामपंथी भी यथार्थ मूल्यांकन तक नहीं पहुंचना चाहते। समय आपके विश्लेषण को सही सिद्ध करेगा।

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  2. महेन्द्र नेह

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