(अनामिका की ‘उड़ान’ का पूर्व-प्रमातृ विमोह)
−अरुण माहेश्वरी
आज ही ‘आलोचना’ पत्रिका का 77वां (अप्रैल-जून 2024) अंक मिला। ‘इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता’ पर केंद्रित अंक । पत्रिका को उलटते-पलटते अनायास अनामिका की कविता ‘उड़ान’ पर नज़र ठिठक गई। इस कविता को एक बार में ही पढ़ जाना संभव था, पर इसकी सरल संरचना ने एक गहरे सोच में डाल दिया । मन में दो साल पुरानी अपनी एक आलोचनात्मक टिप्पणी की स्मृति उभर आई। वह जुलाई 2022 की बात है, जब गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ पर हमने अपने ब्लाग पर एक लम्बी समीक्षा लिखी थी।
उस समय ‘रेत समाधि’ को लेकर अकादमिक और साहित्यिक हलकों में खासी हलचल थी क्योंकि तभी उसके अंग्रेजी अनुवाद ‘Tomb of Sand’ को बुकर पुरस्कार मिला था । प्रेमचंद जयंती सर पर थी । कथा सम्राट प्रेमचंद के कथाशिल्प के परिप्रेक्ष्य में ’रेत समाधि’ की कथात्मक संरचना को लेकर एकबारगी गहरी उलझनें महसूस हुई थीं । उपन्यास की पूरी संरचना लगा जैसे सचेत रूप में प्रमातृत्व के संबंध-सूचक संकेतों से इंकार करती हुई प्रमाता की प्राणीसत्ता, पूर्व-प्रतीकात्मक संरचना और सरियलिस्ट बिंब-विन्यास से निर्मित थी। (देखें - https://chaturdik.blogspot.com/2022/07/blog-post.html)
हमें यह देख कर आश्चर्य हुआ कि अनामिका जी की कविता ‘उड़ान’, जो बिना किसी भाषिक जटिलता के एक छोटी-सी साफ-सुथरी कविता है, कुछ वैसे ही इंकार के एक जटिल विमोही भाव-बोध को व्यक्त कर रही है जिससे हमने ‘रेत समाधि’ को जुड़ा पाया था । स्त्री-प्रमाता की आत्म-लोपकारी छवियों से स्मृति की पूर्व-प्रमातृ गति को प्राप्त करने की सजग रचना ; स्त्री की ऐसी छवि, जो अपनी ऐतिहासिकता, सामाजिकता और चिद्विमर्श की अंतःसंरचना से कटकर एक प्रमातृ-पूर्व स्मृति में बदल जाना चाहती है?
अनामिका की कविता में ‘गुमटी’, ‘ख़ाला का घर’, ‘बगलों में लोटन कबूतर’ जैसे बिंब उसी प्रकार की प्रमातृ-पूर्व स्मृति की ओर वापसी के संकेत हैं, जैसे ‘रेत समाधि’ में ‘माई’ के ‘नहीं’ का स्वातंत्र्यात्मक विमर्श स्मृति के ही एक रूप में आता है। दोनों ही रचनाओं में प्रमाता की विशिष्ट सामाजिक पहचान को विसर्जित कर स्त्री अन्य संबंधों से सचेत रूप में कटी हुई सत्ता की कामना करती है। प्रमातृ-पूर्व से तात्पर्य यही है कि अपने वर्तमान के सामाजिक स्वरूप से मुक्ति के लिए स्मृतियों की शरण में जाना ।
यहाँ संबंधों के अस्वीकार के इस प्रसंग को किंचित दार्शनिक आलोचना में उतारना हमें जरूरी लग रहा है। कश्मीरी शैवदर्शन के प्रमुख आचार्य उत्पलदेव अपनी कृति संबंधसिद्धि (सिद्धित्रयी) में यह कहने के बाद कि प्रमाता ही संबंधों के जरिए वस्तुओं के भेद को देखता है और लोक- व्यवहार का प्रारंभ करता है, 22वें श्लोक में वे लिखते हैं:
न परं तास्तथा भ्रान्ताः सर्वा अपि प्रतिक्षणात् ।
स्वसंवित्संज्ञकानन्तचिद्विमर्शप्रतिष्ठिताः ॥22॥
(संबंधबुद्धियाँ रस्सी में सर्प की भ्रांति जैसी नहीं हैं, क्योंकि वे सब आत्मसंवित् नामक अनन्त चिद्विमर्श में प्रतिक्षण प्रतिष्ठित हैं।)
अर्थात् संबंध कोई भ्रांति नहीं, बल्कि आत्मचेतना का स्वाभाविक प्रवाह हैं। प्रमाता केवल तब ही एक सक्रिय सत्ता बनता है जब वह ‘अन्य’ से, सम्बंध-बुद्धियों से संवाद करता है। इनका निषेध आत्मसंवित् के उस अनंत चिद्विमर्श को बाधित करता है जिससे प्रमाता की ऐतिहासिकता और संघर्षशीलता जन्म लेती है।
जब हम प्रमातृ-पूर्व स्थिति की चर्चा करते हैं तो उसका तात्पर्य उसी संबंध-विमर्श के अभाव की स्थिति की ओर इंगित करना है जो ‘रेत समाधि’ और ‘उड़ान’ — दोनों में बिल्कुल सतह पर दिखाई देता है। ‘रेत समाधि’ में स्त्री सिर्फ एक ‘नहीं’ कहती है और चित्त के अपने सुरक्षित जगत के सपने में खो जाती है । यह ‘इंकार’ किसी द्वंद्वात्मक ‘ना’ के बजाय एक आत्म-आश्वस्तिमूलक निषेध की तरह आता है, जो उसे उसकी सामाजिक ऐतिहासिकता से काटता भी है।
यहाँ एक प्रश्न यह भी है कि अनामिका जिसे एक स्त्री-सुलभ काव्यगुण के रूप में प्रस्तुत करती हैं, क्या वह ‘सरलता’ एक रणनीतिक चयन नहीं है? क्या यह एक विचारात्मक तटस्थता नहीं है जो विरोध की जगह स्मृति और आत्म-मोह में ठहरना चाहती है? ‘उड़ान’ की स्त्री जब स्वयं को ‘पगलेटऊ’ कहती है, जब वह ‘कक्षा’ से डरकर बगलों में झाँकती है, तो वह भाषा के प्रतीकात्मक अनुशासन से एक पल के लिए पीछे हटती है, लेकिन वह पीछे हटना भी भाषा के भीतर ही होता है। यह वह अवचेतन है जिसे जॉक लकान भाषा की तरह ही संरचित देखते हैं । वह किसी प्रतीक-व्यवस्था से अलग होना नहीं, बल्कि उसे थोड़ा पुनर्व्यवस्थित करने का उपक्रम भर होता है। अर्थात् प्रमाता अपने जीवन की दिशा में चयन के लिए भाषा से मुक्त नहीं, बल्कि उसके अंदर ही गतिशील होता है।
अनामिका जी कहती है, “मैं घबराकर अपनी बगलों में झाँकती हूँ / वहाँ लोटन कबूतर होते हैं”। यह घबराहट, यह लोटन कबूतर वाली घूम कर होने वाली वापसी — भाषा की ही गोद में, मगर भाषा के अर्थ से दूर, प्री-ओडिपल स्मृति की ओर लौटने की कोशिश है। लकान कहते हैं कि प्रमाता में ‘प्री-ओडिपल’ की आकांक्षा स्वयं में कोई निर्वाण नहीं, एक संकेत भर है, भाषाई संरचना में छेद की आकांक्षा, पर उस छेद से बाहर की कोई स्वाधीनता नहीं है, सिर्फ़ एक अव्यक्त पुनरावृत्ति है।
जॉक लकान के अनुसार प्री-ओडिपल भाव भी एक भाषा-सदृश संरचना है। अतः यह उड़ान भी मुक्ति नहीं, बल्कि संरचना के भीतर ही गिरने का एक सौंदर्यशास्त्र है — एक ऐसा सौंदर्य, जिसमें सरलता की चाहत जटिल अभिनय में ढल जाती है। कविता का यह गठन हमें काव्यात्मक संवेदना अर्थात् अव्यक्त के कंपन के स्फोट के बजाय एक भाषिक पतन की संरचना जैसा दिखाई देता है।
स्त्री का यह चेतन प्रस्थान, जहाँ संबंधों की स्वीकृति के बजाय उनकी उपेक्षा को मुक्ति का पर्याय माना जाता है, मूलतः एक खास पहचान के विमोह का सूचक है। यह नकारात्मक सौंदर्य, यह ‘नहीं’ की झंकार, यह पूर्व-ओडिपल स्मृतियों में पनाह की आस आज के कथित स्त्री-लेखन की एक प्रचलित बौद्धिक मुद्रा है — जिसमें राजनीतिक प्रमाता की जगह, अर्थात् हर असंभव में संभावना के सूत्र को खोजने की जगह, ‘पूर्व-प्रमातृ विमोह’ सक्रिय हो जाता है। यह विमोह निश्चय ही अपने आप में संवेद्य और गहन होता है । हमारे समय के लिए यह महत्वपूर्ण भी हो सकता है — क्योंकि इससे यह इंगित मिलता है कि मुक्ति की आकांक्षा और विमोह की जकड़न के बीच का अंतर कभी-कभी सिर्फ़ भाषिक होता है। लेकिन हमारी नजर में यह हमारे समय के प्रतिवाद-विमर्श के लिए पर्याप्त नहीं है ।
इसीलिए हमने इस ओर इशारा करना जरूरी समझा । और शायद यह भी कहना जरूरी माना है कि उड़ान तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक वह गिरने की संरचना को पहचान कर उसे पार न कर सके — न केवल स्मृति की ओर लौट कर, बल्कि संकेतकों के उस इंद्रजाल से दो-दो हाथ करके भी, जो स्वसंवित् के वास्तविक चिद्विमर्श को संभव बनाते हैं।
यही पूर्व-प्रमातृ पुनरावृत्ति रेत समाधि के बिंबों में भी प्रकट होती है — जैसे बेटी जो ‘हवा से बनी’ है, या माई का ‘नहीं’ जो नकार नहीं, बल्कि जैविक आत्मसंरक्षण है। ये सब बिंब प्रमाता के विघटन के संकेत हैं — वह न चरित्र बनाता है, न कथा; सिर्फ़ छायाएं निर्मित होती हैं — जो अपनी भाषा के भीतर ही बुदबुदाती हैं, पर किसी अर्थ में ठहरती नहीं।
ऐसा विमर्श आपको स्वतः उस लकानियन सीमा की ओर ले जाता है जहाँ संकेतकों के संस्पर्श से अर्थ की उत्पत्ति नहीं, बल्कि उसका विरेचन होता है।
आपकी लेखनी से निकली बातों को समझना इतना सरल नही होता जितना सरल आप लिखते हैं। सर खपाना पड़ता है।
जवाब देंहटाएंआपका नाम जान पाता तो अच्छा होता ।
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