(उल्लासोद्वेलन (Jouissance) बनाम शाम्भवोपाय (Homestatis)
−अरुण माहेश्वरी
आज की दुनिया में अमेरिका की एकध्रुवीय सत्ता को पहली बार एक ऐसी वास्तविक चुनौती मिली है जो न सिर्फ सैन्य या रणनीतिक स्तर पर, बल्कि बाजार के नाम से परिचित रोज़मर्रा के जीवन के बीच से उभर कर सत्ता के सर्वोच्च स्तरों से टकरा रही है । यह चुनौती चीन की चुनौती है । यह अब किसी अनुमान या रणनीतिक कल्पना का मामला नहीं रहा है, बल्कि जनजीवन और राष्ट्रों के जीवन से जुड़ा एक ठोस और प्रत्यक्ष यथार्थ है।
पिछले दस-बारह सालों में अमेरिका ने चीन को हर मोर्चे पर रोकने की भरसक कोशिशें की । टैरिफ़ युद्ध, तकनीकी पाबंदियाँ, सैन्य घेराबंदी, वैश्विक प्रचार, क्या-क्या नहीं किया गया । पर इन सब के बाद आज यह साफ़ है कि वह चीन को काबू नहीं कर पाया है । इसके चलते अमेरिकी प्रशासन में जो बदहवासी और उन्माद दिखाई देता है, ट्रंप का ताजा टैरिफ वॉर इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है।
चीन का नेतृत्व आज जितना दृढ़ और शांत नजर आता है, अमेरिका के ट्रंप उतना ही उद्वेलित और हाथ-पैर मारते नजर आते हैं । वे हर रोज कभी खुशी कभी गम के पीड़ादायी उद्वेलनों में पसीना-पसीना हो रहे हैं । यह वही अवस्था है जिसे हम प्रसिद्ध मनोविश्लेषक जॉक लकान के शब्दों में उल्लासोद्वेलन (jouissance) कहते हैं — जब सत्ता अपने आनंद के उन्माद में विवेक खो बैठती है और अपने ही बनाए नियमों को तोड़ते हुए खुद के लिए ही स्थायी पीड़ा का सबब बनती है। जॉक लकान ने इसीलिए प्रमाता को सदा अस्थिर, बेचैन रूप में देखा था ।
जाहिर है कि अमेरिका के बिल्कुल उलट चीन ने इस पूरे दौर को गहराई से समझते हुए बहुस्तरीय और सुचिंतित रणनीति अपनाई, जिसे आज आम तौर पर चीनी नेतृत्व की नैसर्गिक विशेषता भी कहा जाने लगा है कि उसका हमेशा दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य होता है । चीनी नेतृत्व भी चीन की सभ्यता के हवाले से कहा करता है कि हम तमाम उतार-चढ़ाव के बीच भी हजारों साल से अपने अस्तित्व पर कायम है और आगे भी रहेंगे ।
सत्तर के दशक में देंग श्याओ पिंग के चार आधुनिकीकरण और खुलेपन की नीतियों के जरिए चीन ने क्रमशः सारी दुनिया के निवेश को अपनी ओर आकर्षित किया और क्रमशः अपने देश को दुनिया के सबसे बड़े उत्पादन केंद्र के रूप में स्थापित कर लिया । उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर अत्यंत जटिल तकनीकी उत्पादों तक, हथियारों से लेकर पूंजीगत मशीनरी तक, हर क्षेत्र में भारी दक्षता प्राप्त कर ली । उसने न सिर्फ़ दुनिया को अपना सामान बेचने का गुर सीखा, बल्कि उन सब मशीनों का उत्पादन और निर्यात भी करने लगा जिनसे क्रमशः अन्य देशों का औद्योगिक विकास भी चीन के साथ नाभि-नालबद्ध होता चला गया ।
यानी चीन ने न सिर्फ सामान्य उपभोक्ताओं के जीवन में अपना स्थान बनाया बल्कि दुनिया के तमाम राष्ट्रों को भी अपने मालों के उपभोक्ताओं में तब्दील कर लिया । चीन दुनिया के तमाम देशों की राष्ट्रीय जरूरतों, आकांक्षाओं और सपनों का अंग बन गया ।
जिस ‘स्वतंत्र व्यापार’ के जरिये कभी अमेरिका ने दुनिया के सभी देशों को अपने पर आश्रित किया था, उसी रास्ते से चीन ने “राज्य-स्तर” की संधियों और समझौतों से तमाम राष्ट्रों के आम लोगों के जीवन में दाखिल हो गया । चीनी उत्पादों की क़ीमत, गुणवत्ता और पहुँच ने हर कोने में लोगों के जीवन को बदलने में एक बड़ी भूमिका अदा की है, इसमें कोई शक नहीं है ।
आज अफ़्रीका से लेकर लातिन अमेरिका तक, दक्षिण एशिया से लेकर मध्य एशिया तक, चीन केवल एक निर्यातक राष्ट्र नहीं, तमाम राष्ट्रों की विकास-संरचना का साझेदार बन चुका है। उसकी सड़कें, पुल, रेलवे, सौर ऊर्जा संयंत्र, और डिजिटल बुनियादी ढाँचा — ये सब अब तीसरी दुनिया के आम लोगों की आकांक्षाओं और राष्ट्रों के विकास के सपनों में शामिल हैं। पश्चिमी प्रचार-तंत्र चीन के इस फैलाव को उसका “कर्ज़-जाल” बताता है, लेकिन जो राष्ट्र चीन से जुड़ते हैं, वे भू-राजनीति के वर्तमान पटल में अमेरिका या आईएमएफ-विश्व बैंक के कर्ज़ की तुलना में चीन की भागीदारी को कहीं ज्यादा कम शर्तों वाली, सहज और सहयोगी पाते हैं।
ढांचागत सुविधाओं के विकास में चीन ने जो दक्षता हासिल की है वह तो अमेरिका और जापान जैसे सबसे विकसित आधुनिक तकनीक के राष्ट्रों के लिए भी किसी चमत्कार से कम नहीं है । समु्द्र से लेकर अंतरिक्ष तक, हार्डवेयर से लेकर साफ्टवेयर तक, शिक्षा और स्वास्थ्य तक में शोध और अनुसंधान के कामों में चीन का निवेश आश्चर्यचकित करने वाला है । सैन्य शक्ति और अधुनातन हथियारों की होड़ में भी अब क्रमशः चीन अमेरिका की तरह की महानतम शक्ति को गहरी चिंता में डाल दे रहा है । हाल में डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका की सुरक्षा के लिए जिस ‘गोल्डेन डोम’ प्रतिरक्षा परियोजना की घोषणा की है, चीन ने उसका विरोध किया है क्योंकि वह मानता है कि यह अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ को नयी ऊँचाई तक ले जायेगा जो मनुष्यता के हित में नहीं होगा । पर चीन बहुत अधिक व्यग्र भी नहीं है, क्योंकि उसे विश्वास है कि इस होड़ में भी वह अमेरिका से पीछे नहीं रहेगा ।
हमारे इस पूरे विवरण का तात्पर्य यहीं है कि अमेरिकी वर्चस्व को चीन की चुनौती अब कहीं से भी कोरी हवाई नहीं रह गई है । वह बिल्कुल प्रत्यक्ष, ठोस और हर किसी के दैनंदिन जीवन के अनुभवों से पुष्ट हैं । इसीलिए ट्रंप के कथित ‘टैरिफ़ वार’ का चीन ने दृढ़ता से मुक़ाबला करते हुए उसके अहंकार को जिस प्रकार लगभग तोड़ा सा दिया है, वह अपने को दुनिया का सम्राट मानने वाले व्यक्ति के लिए एक बिल्कुल असंभव अनुभव कहलायेगा । इसके चलते आज यूरोप और नाटो के देश भी चीन से शक्ति पाकर ट्रंप की स्वेच्छाचारिता का प्रतिरोध करने की तैयारी करने लगे हैं । कल तक जो प्रतिरोध असंभव प्रतीत होता था और जिसके अहसास से ट्रंप अहंकार में चूर था, वह प्रतिरोध अब बिल्कुल संभव और यथार्थ दिखाई दे रहा है ।
अर्थात् भू-राजनीति में चीन के उदय से पैदा हुआ यह बदलाव अब केवल राष्ट्रों के नीति-निर्माताओं के चयन के विषय तक सीमित नहीं रह गया है, यह सामान्य लोगों के जीवन तक पहुँच कर लगभग स्थायी रूप ले चुका है । जब एक ग़रीब देश का आम नागरिक सस्ती और टिकाऊ मोबाइल से लेकर घरेलू बिजली संयंत्र तक चीन से पाता है, तो वह चीन के साथ जो जीवंत संबंध बनाता है, वह संबंध केवल बाजार का नहीं, संभावना का भी होता है।
इस समूचे घटनाविकास के समानान्तर ही चीन ने दुनिया के राष्ट्रों को परस्पर व्यवहार के अमेरिकी मॉडल के बिल्कुल विपरीत एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तावित किया है । अमेरिकी मॉडल साम्राज्यों और बादशाहत का पुराना मॉडल रहा है जिसमें एक केंद्रीय महाशक्ति अन्य सभी शक्तियों को स्कूल के अध्यापक की छड़ी से अनुशासित करती है और विश्व में व्यवस्था बनाए रखती है । किसी भी संकट के वक्त उसका फरमान ही अंतिम होता है और सब उसे मानने के लिए मजबूर होते हैं । न मानने वाले को दंड भी मिलता है ।
चूँकि दुनिया के अधिकांश राज्य हमेशा से इसी साम्राज्यवादी मॉडल के अभ्यस्त रहे हैं, इसलिए किसी को भी इसे स्वीकारने में कोई खास दिक्कत नहीं महसूस हो रही थी । मजबूरी में जिसकी लाठी उसकी भैस के तिरस्कृत, जबरिया कब्जे को ही कानूनी अधिकार मानने वाले मूलभूत रोमन साम्राज्यवादी कानून को अब तक विश्व के कानून का आधार मान कर चला जा रहा था । आज जब दुनिया से उपनिवेशवाद के अंत का दावा किया जा रहा है, सारी दुनिया में सार्वभौम स्वतंत्र गणतंत्रों की स्थापना हो गई है, तब भी यह सच्चाई है कि राष्ट्र-राज्यों में जनतंत्र के मूलभूत स्वातंत्र्य का मूलभाव कोई पारमार्थिक स्थान नहीं ले पाया है ।
लगभग इसी परिस्थिति में सन् 1917 में सोवियत संघ के उदय ने न सिर्फ साम्राज्यवादी वैश्विक-संतुलन को, बल्कि उसकी प्रतीक-व्यवस्था (symbolic order) अर्थात् उसकी सभ्यता के मूल्यों को भी चुनौती दी थी। उसने गुट-निरपेक्ष और तीसरी दुनिया के राष्ट्रों के स्वतंत्र विकास की जगह बनाई । पर वह अंततः अपने आंतरिक आर्थिक और राजनीतिक संचालन की त्रुटियों के कारण ही विश्व जनगण के दैनंदिन जीवन से सीधा संपर्क कायम नहीं कर पाया । पश्चिमी उपभोक्ता सामग्रियों और उनकी संस्कृति ने उसे आम जनता से काट दिया । शीत युद्ध के नाम से परिचित एक दीर्घ संघर्ष में अंततः सोवियत संघ ने घुटने टेक दिये । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में स्वतंत्रता का झंडा उठा चुके युरोपीय देशों ने भी अमेरिका के सामने अपने झंडे झुका दिये ।
पर अब चीन इस साम्राज्यवादी वर्चस्व के सामने एक बिल्कुल भिन्न, मूलगामी वास्तविक चुनौती बन चुका है । जैसा कि हम बार-बार कह रहे हैं, उसने न सिर्फ विश्व जनगण के जीवन में अपना स्थान बनाया है बल्कि वह अपनी लगातार विकासमान तकनीकी क्षमताओं और विश्व वाणिज्य के जरिए धीरे-धीरे अर्जित विशाल वित्तीय शक्ति के बल पर पिछले तक़रीबन दस साल से ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना से दुनिया के तमाम देशों के सामने सार्वभौमिकता और समानता के नए सिद्धांतों पर अपने विकास की समस्याओं का सामना करने का एक वैकल्पिक रास्ता भी तैयार कर रहा है। दुनिया के तक़रीबन सवा सौ से ज़्यादा देश चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना का हिस्सा बन चुके हैं ।
भू-राजनीति के इस घटना-विकास के विश्लेषण से आज के मनोविश्लेषक सिद्धांतकार दुनिया के देशों को दो अलग-अलग श्रेणियों में बाटते हैं − Countries of Jouissance और Countries of Homeostasis ।1
जुएसॉंस, जैसा कि हम हमेशा चर्चा करते रहे हैं, प्रमाता के उल्लास का वह अतिरेकी रूप है जो आनंद सिद्धांत की सीमाओं को, अर्थात् किसी नियम-कायदे को नहीं मानना चाहता । जुएसॉंस में प्रमाता का उल्लास उसे हमेशा अस्थिर और खड़ग्-हस्त रखता है और इसीलिए उसमें आनंद के साथ एक बहुत गहरे आवेश और पीड़ा का भाव मौजूद रहता है । इस विषय पर अपने लेखन में हमने जुएसॉंस के लिए हिंदी में अभिनवगुप्त के तंत्रालोक से निःसृत उल्लासोद्वेलन पद का प्रयोग किया है जिसमें उल्लास हमेशा उद्वेलन से मिला होता है ।
और, जहां तक Homeostatis का सवाल है, यह एक प्रकार की परमानंद की, एक शांत चित्त की चिंतनशील स्थिति है जिसे हमारे शैव दर्शन की भाषा में प्रमाता का शांभवोपाय, अर्थात् उसकी स्वातंत्र्यशक्ति शिव के जरिये शांभवयोग की साधना का मार्ग कहा जा सकता है । अभिनवगुप्त अपने तंत्रालोक में स्वातंत्र्य को ही मोक्ष कहते हैं और प्रक्रिया को स्वातंत्र्य । अर्थात् शांभवोपाय ही प्रमाता का स्वातंत्र्य और उसका अंतिम लक्ष्य भी है ।
इस तरह Countries of Jouissance का अर्थ हुआ वे देश जहाँ अक्सर हिंसा और दमन के साथ सत्ता की भाषा आनंद की अति में रूपांतरित हो जाती है और Countries of homeostasis, वे देश जो स्वतंत्रता, संतुलन, विकास और सहयोग के आधार पर भू-राजनीतिक संरचना को पुनर्निर्मित कर रहे हैं । 2
इस दृष्टि से अमेरिका और चीन आज भू-राजनीति का जो पूरा परिदृश्य तैयार कर रहे हैं उसमें एक ओर Geopolitics of Jouissance (उल्लासोद्वेलित भू-राजनीति) है तो दूसरी ओर geopolitics of homeostasis (शांभवोपायी भू-राजनीति) के उदय की प्रक्रिया है । इसमें एक ओर एकध्रुवीय विश्व का सरताज कहलाने वाली महाशक्ति अमेरिका है तो उसी का हमसफर पुतिन का रूस, और इजरायल, मोदी के भारत जैसे उनके प्यादे हैं तो दूसरी ओर स्कैंडिनेवियन देशों से लेकर यूरोप, लातिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के तीसरी दुनिया के ढेर सारे देश हैं । चीन को हम अभी इस दूसरी श्रेणी में पूरी तरह से शामिल नहीं कर रहे हैं पर चीन की भूमिका को हम एक ऐसी भिन्न, इच्छाशक्ति की उस भूमिका में देखते हैं जिसके साथ इन दोनों ध्रुवों के त्रिकोणात्मक संबंध से ही सुन्दरतम विश्व की कोई आदर्श छवि बन सकती है । यह तंत्रालोक में अनुत्तर और आनन्द से इच्छाशक्ति के त्रिकोणात्मक संबंध का वह स्वरूप है जिसे वहां ‘विसर्ग और आमोद से सुन्दर’ बताया गया है ।3
चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना की पहलकदमी से हमें वैसी ही इच्छा शक्ति का परिचय मिलता है । यह रास्ता एक एषणायुक्त प्रमाता का रास्ता है — जो जानता है कि पूर्णता संभव नहीं, पर विकास और संतुलन के ज़रिए इच्छा की पूर्ति की राह बनाई जा सकती है। यह वह राह है जो युद्ध नहीं, साझेदारी और सम्मान को राजनीति की ताक़त मानती है। यह अस्थिर और उद्धत प्रमाता के लकानियन जुएसॉंस के स्वरूप के विरुद्ध उसके उल्लासमय स्वातंत्र्य के उन्मेषी शाम्भवोपाय से संचालित एक नई दिशा का सूचक है ।
जॉक लकान की चित्त की संरचना की बोरोमियन गाँठ की अवधारणा से, अमेरिका की शक्ति-वृत्ति में यथार्थ, भाषा, और छवि के तीन वृत्तों के बीच अब संतुलन नहीं बचा है । उस पर उसके विकृत यथार्थ का वर्चस्व उसकी भाषा को खोखला और उसकी छवि को उन्मादी बना रहा है। जबकि चीन में इनका संतुलन प्रतीत होता है । चीन यथार्थ को तकनीक और उत्पादन में, भाषा को संप्रभुता और सम्मान में, और छवि को साझेदारी और विश्वास में ढाल रहा है।
संदर्भ
1. Routledge से 2022 में प्रकाशित लातिन अमेरिकन लेखक पाओलो बोरक्वेस (Routledge के द्वारा 2022 में ही प्रकाशित लातिन अमेरिकन लेखक पाओलो बोरक्वेस (Paolo Bohorquez) और वेरोनिका गैरिबोटो (Veronica Garibotto) के द्वारा संपादित एक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है – Psychoanalysis as social and Political Discourse in Latin America and the Caribbean (लैटिन अमेरिका और कैरेबियन में सामाजिक और राजनीतिक विमर्श के रूप में मनोविश्लेषण) । इसमें कैलिफोर्निया-इर्विन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर होरेसियो लेग्रास (Horacio Legras) का पहला ही लेख है – Femicides, Psychoanalysis, and the Status of Social Desire in Our time ("स्त्रीहत्याएँ, मनोविश्लेषण और हमारे समय में सामाजिक कामना की स्थिति") । इस लेख में लेखक ने दुनिया को Countries of Jouissance and Countries of Homeostatis में बांट कर देखा है कि कैसे एक मेक्सिको में ही स्त्री हत्या की तरह के अपराध और नव-उदारवादी आर्थिक-सामाजिक नीतियां साथ-साथ चल रही है । ) और वेरोनिका गैरिबोटो (Veronica Garibotto) के द्वारा संपादित एक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है – “Psychoanalysis as social and Political Discourse in Latin America and the Caribbean” । इसमें University of California- Irvine के प्रोफेसर Horacio Legras का पहला ही लेख है – Femicides, Psychoanalysis, and the Status of Social Desire in Our time ("स्त्रियों की हत्याएँ, मनोविश्लेषण और हमारे समय में सामाजिक कामना की स्थिति") । इस लेख में लेखक ने दुनिया को Countries of Jouissance and Countries of Homeostatis में बांट कर देखा है और एक मेक्सिकन लेखक चार्ल्स बाउडन (Charles Bowden) की किताब Juarez- Laboratory of our future में मेक्सिको की उत्तरी सीमाओं के क्षेत्र में स्त्रीहत्याओं की एक बड़ी बीमारी पर शोध के हवाले से बताया है कि कैसे मेक्सिको में स्त्री हत्या की तरह के अपराध और नव-उदारवादी आर्थिक-सामाजिक नीतियां साथ-साथ बड़े आराम से चल रहे है । यह वैसे ही है जैसे हमारे देश में मोदी नव-उदारवाद और सांप्रदायिक फासीवाद को साथ-साथ चला रहे हैं ।
2. हमारे तंत्रालोक की भाषा में विचार करें तो हम कहेंगे उल्लासोद्वेलित देशों का रास्ता अनुत्तर (अर्थात् ईश्वरीय महाशक्ति) के स्पंद का रास्ता है जहां परमेश्वर के आदेश पर ही सब कुछ चलेगा, जबकि शांभवोपायी देशों का रास्ता उनके अपने अंतर के उच्छलित आनन्द का रास्ता है । अभिनवगुप्त इसे इस प्रकार कहते हैं कि एक में शिव की इच्छा है तो अन्य में शिव का उन्मेष । प्रमाता में इच्छा और उन्मेष के इस भेद के कारण ही उसकी गति की दो बिल्कुल विपरिगामी दिशाएं तैयार होती है ।
योऽनुत्तरः परः स्पन्दो यश्र्चानन्दः समुच्छलन्
ताविच्छोन्मेषसङ्घट्टाद्नच्छतोऽतिविचित्रताम् । (तंत्रालोक, तृतीयमाह्निकम् 93-94)
(जो अनुत्तर स्पन्द है और जो उच्छलित होता हुआ आनन्द है वे दोनों इच्छा और उन्मेष के सङ्घट्ट के कारण अत्यन्त विचित्र स्थिति को प्राप्त होते हैं । )
3. अभिनवगुप्त के तंत्रालोक के शब्दों में−
“अनुत्तरानन्दचिति इच्छाशक्तौ नियोजिते ।
त्रिकोणमिति तत्प्राहुविसर्गामोदसुन्दरम् ।। (तंत्रालोक, तृतीयमाह्निकम् 94-95)
(अनुत्तर और आनन्द जो कि चित्स्वरूप है, जब इच्छाशक्ति के साथ जुड़ते हैं तो (विद्वान) इसे त्रिकोण कहते हैं जो कि विसर्ग और आमोद से सुन्दर है ।
वैश्विक राजनीति और भूमंडलीकरण पर बहुत गहन अध्ययन और विस्तार पूर्वक विश्लेषण आलेख, जो कि संतुलित बुद्धिमत्ता एवं धैर्य की परिचायक होने की अनुभूति करवाता हैं। आपको बधाई एवं प्रणाम।
जवाब देंहटाएंपंकज त्रिवेदी
स्रोत सामग्री मूल्यवान है, निष्कर्ष पर राजनीतिक पक्षधरता हावी है। विस्तार में जाने का समय नहीं।
हटाएंबहुत धन्यवाद पंकज जी ।
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