शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

डा.नगेन्द्र का सार-संग्रहवाद



(कल Sudha Singh जी की वॉल पर हमने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के एक आयोजन के निमंत्रण पत्र को देखा । यह आयोजन आगामी 19-20 अगस्त 2025 को नगेन्द्र स्मृति व्याख्यानमाला के तहत हो रहा है जिसमें श्री नंद किशोर आचार्य मुख्य वक्ता होंगे । इसे देख कर अनायास हमें हिंदी के अध्यापन जगत के लगभग ‘प्रातः स्मरणीय’ नाम डा. नगेन्द्र के आलोचना कर्म की याद आगयी । हमने उस पोस्ट पर एक विस्तृत टिप्पणी की जिसे हम यहां मित्रों से साझा कर रहे हैं । यह अस्वाभाविक नहीं है कि कभी-कभी अपनी बात कहने के लिए ही अतीत के प्रेतों को जगाने की जरूरत पड़ जाती है । हमारी टिप्पणी इस प्रकार हैः)


बहुत बधाई आपके इस कार्यक्रम के लिए । वैसे हमारी नज़र में हिंदी में डा. नगेन्द्र अध्यापकीय सारसंग्रहवादी, असंश्लेषित आलोचना का एक टिपिकल नमूना पेश करते हैं । हमने उनकी अधिकांश पुस्तकों को गौर से देखा है और हमेशा बहुत निराशा हाथ लगी । यहाँ अपने नोट्स से निकाल कर ख़ास तौर पर सिर्फ एक प्रसंग का उल्लेख करना चाहूँगा । 

अपनी पुस्तक “भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की भूमिका” के अंत में वे लिखते हैं कि “प्रमाता सुंदर पदार्थ अथवा कृति को अपने संदर्भ में नहीं देखता, उसकी दृष्टि कृति के स्वरूप पर ही केन्द्रित रहती है । इस प्रकार वह स्व-पर की भावना अर्थात् व्यक्ति-संसर्गों अथवा रागद्वेष से सर्वथा मुक्त सार्वभौम होता है । सौन्दर्य-दृष्टि की एक अन्य विशेषता है तटस्थता । इसका अर्थ यह है कि प्रमाता विषय में लिप्त नहीं होता —उसके और भाव्यमान विषय के बीच एक प्रकार का अंतराल बना रहता है ।” 

उनके इस कथन का प्रमाता संबंधी भारतीय दर्शन के पूरे विमर्श से ज़रा सा भी मेल नहीं है, वरन् इससे प्रमाता के बारे में उनमें न्यूनतम धारणा के अभाव का संकेत मिलता है। बिल्कुल चलताऊ ढंग से उन्होंने जैसे खुद की तरह के सार-संग्रहवादी को ही प्रमाता मान लिया और उसकी एक मनमानी परिभाषा गढ़ दी । भारतीय दर्शन में जिस अवधारणा को केंद्र में रख कर सबसे गहन और दीर्घकालिक विमर्श मिलते हैं, डा. नगेन्द्र जैसे रस-सिद्धांत के सर्वमान्य “पंडित” जैसे उसे जानते ही नहीं थे, जबकि इसके बिना रस सिद्धांत की कोई समझ ही नहीं बनती है । यह प्रमाता की अवधारणा रस सिद्धांत के उत्पादन की ज़मीन है , न कि निष्पादन की । 

भारतीय दर्शन में प्रमाता आत्म-प्रकाशित चेतना का रूप है, वह भला विषय से तटस्थ कैसे हो सकता है ! विषय ही भाषा में प्रमातृत्व का रूप अर्थात् संकेतों का धारक बनता है । 

हमें लगता है कि यही सब उस अध्यापकीय जड़ता का कारण है जिसने प्रमाता से जुड़े गतिशील विमर्श की किसी धारा को हिंदी आलोचना में पनपने ही नहीं दिया । वे खुद रस सिद्धांत की सारी ख़ाक छान कर उसके मूल प्रमातृ स्वरूप की थाह नहीं पा सके और रस की उनकी समझ अनुभवगत स्वाद पर, फलों के रस पर अटक गई, जबकि भारतीय आचार्य उसे प्रमातृ-चेतना की परिपूर्णता के रूप में देखते हैं।रस और प्रमाता की चर्वणा के अभिन्न संबंध की वे कोई समझ ही विकसित नहीं कर पाए । 

वैसे, प्रमाता की इस अवधारणा और संस्कृत के ‘प्र’ उपसर्ग में निहित गतिशीलता पर गंभीर विचार से ही समझा जा सकता है कि किसी आलोचक की दृष्टि मात्र सार-संग्रह में अटकी है या वह स्वतंत्र चिंतक की तरह विषय को उसकी प्रक्रियामूलक गति में देख पा रहा है । इस पर कभी अलग से चर्चा की जायेगी ।

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