— अरुण माहेश्वरी
दुर्दान्त नक्सली नेता अजिजुल हक़ नहीं रहे । 21 जुलाई के दिन उनका निधन हो गया । वे 83 साल के थे ।
सीपीआई(एम-एल) के जन्म (1969) के समय चारु मजुमदार के एक विश्वस्त और जुझारू सहयोगी के रूप में उन्हें जाना जाता था । अठारह साल जेल में बिताएँ । सत्तर के काल में ही ‘जेल पालानो, जेल विद्रोह’ (जेल तोड़ो, जेल विद्रोह) आंदोलन के नायक के रूप में उनकी एक पहचान बनी। जेल तोड़ कर भागे, और पकड़े भी गए । भारी यातनाएँ सही। पर जुझारूपन में रत्ती भर फर्क नहीं आया ।
जेल में अनेक हिंसक अपराधियों को उन्होंने कितना अपनी राजनीतिक विचारधारा से दीक्षित किया, यह तो कोई नहीं जानता, पर खुद उन्होंने ‘बंदूक़ की नली ही सत्ता का उत्स है’ वाली माओ की प्रसिद्ध उक्ति को साधने के फेर में उनकी ‘बहादुरी’ को अपने जीवन दर्शन में शामिल कर लिया ।
लकान की भाषा में कहें तो इस ‘बहादुरी’ का अपना कोई खाँचा नहीं था । न कोई दूसरी नैतिकता ही । सिर्फ लड़ाकूपन की ख़ास अधिकार-चेतना थी, जिससे कोई समझौता नहीं हो सकता था । यह ‘वीर-भाव’ इतना प्रबल था कि उसके रहते किसी नई नैतिकता के जन्म की संभावना ही नहीं बची थी ।
तीन साल के अंदर ही जब सीपीआई(एम-एल) का असंख्य गुटों में विभाजन शुरू होगया, अजिजुल हक़ भी एक चारु मजुमदार पंथी दुर्धर्ष संगठन ‘सेकेंड सेंट्रल कमेटी’ के नेता बने । उसने पश्चिम बंगाल में समानांतर क्रांतिकारी सरकार के गठन का ऐलान किया। कोलकाता में कई इलाक़ों को मुक्तांचल घोषित किया गया। सीपीआई(एम) से उनकी बड़ी शिकायत थी कि उसने बेईमानी की, अन्यथा 1968-69 में कोलकाता मुक्त हो गया होता। तत्त्वतः वे चीन के चेयरमैन को अपना चेयरमैन मानते थे; माओ की रेड बुक को गीता ।
वे बांग्ला भाषा के एक प्रभावशाली लेखक थे । अंतर के तीव्र आक्रोश और घृणा को कितने प्रभावशाली ढंग से रखते थे, उनकी किताब ‘कारागारे आठारो बछर’ (कारागार में अठारह साल) का हर शब्द इसका गवाह है ।
सन् 1989 में जब उन्हें दूसरी और अंतिम बार रिहा किया गया, तब भी वाम मोर्चा सरकार थी ।पहली बार भी उनकी रिहाई 1977 में वाम मोर्चा सरकार के गठन के ठीक बाद हुई थी । दोनों बार ज्योति बसु मुख्यमंत्री थे, जिनसे उनकी शिकायतों का अंत नहीं था । पर यह सच हैं कि वे ज्योति बसु को कभी षड़यंत्रकारी या ओछा आदमी नहीं मानते थे। सीपीआई(एम) के प्रमोद दाशगुप्ता, हरेकृष्ण कोणार, केष्टो घोष आदि से शुरू करके दिनेश मजुमदार, विमान बोस, अनिल विश्वास आदि अपने समवयस्क नेताओं तक को फूटी आँखों नहीं देखते और हमेशा गहरे तिरस्कार के भाव से ही उन्हें याद करते थे। जेल से रिहाई के बाद भी उनके इस भाव में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया था।
पर जब ममता बनर्जी के नेतृत्व में नंदीग्राम- सिंगूर का आंदोलन शुरू हुआ, उनके कान खड़े हो गए । उनकी मार्क्सवादी इतिहास चेतना ने इस नए प्रकार के जुझारूपन को पहचानने में चूक नहीं की और उसके साथ अन्य नक्सलियों की तरह अपने को नहीं जोड़ा। उन्होंने ममता की इस लड़ाई के अंजाम को समझा और यह सवाल उठाया कि इस प्रकार वाम मोर्चा सरकार को हटा कर हासिल क्या होगा ? जीवन के आख़िरी दिन तक वे ममता बनर्जी की सरकार के वे तीखे आलोचक बने रहे ।
सन् 2007 के बाद से अजिजुल हक़ के दृष्टिकोण में जिस नई वर्गीय राजनीतिक दृष्टि का आभास मिलने लगा, उसने पश्चिम बंगाल के वामपंथी आंदोलन की क़तार में उनके प्रति एक सकारात्मक भाव पैदा किया । उनके जुझारू उद्गारों ने शायद सीपीआई(एम) के वर्तमान युवा नेतृत्व को भी खींचा होगा । इसीलिए उनकी मृत्यु पर वाम हलकों में एक स्वाभाविक श्रद्धा का भाव देखा गया।
अजिजुल हक़ का आवेग जो उनके लेखन और वक्तव्यों से ज़ाहिर होता रहा है, उसमें उनके कथन और व्यक्तित्व के बीच कोई फर्क न होने का पता चलता है । कथनी और करनी की यह एकता क्रांतिकारी के रूमानी मन के जिस सौन्दर्य की सृष्टि करती है, वह अनमोल है । यह 24 कैरेट शुद्ध सोने की चमक थी जो कभी म्लान नहीं होती, पर यह सच है कि जिससे कोई गहना भी नहीं बनता ।
हम अजिजुल हक़ के इस प्रभावशाली व्यक्तित्व को याद करते हुए उन्हें अपनी आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।
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