गुरुवार, 27 नवंबर 2025

बंगाल में दुर्गा पूजा !

 

-अरुण माहेश्वरी 





डा. शंभुनाथ इस उम्र में भी कोलकाता के पूजा पंडालों में घूमने का उत्साह और साहस रखते हैं, इसे उनकी फ़ेसबुक पोस्ट पर देख कर भारी प्रसन्नता हुई । हम उन्हें हृदय से बधाई देते हैं । 


उन्होंने इस पोस्ट में पंडाल-भ्रमण के अपने अनुभव का ब्यौरा दिया है और साथ ही दुर्गा पूजा की पुराण कथा के रूप में कृत्तिवासकृत रामायण में आए एक प्रसंग को बताया है । उन्होंने और भी धर्म-पुराण की कुछ बातें लिखी हैं जिन पर कुछ मित्रों ने कई प्रकार भी की टिप्पणियाँ की है । 


यह सच है कि दुर्गापूजा के पीछे की धार्मिक कथा के रूप में आम तौर पर 15वीं सदी के ‘कृत्तिवास रामायण’ में आए ‘अकाल बोधन’ प्रसंग की चर्चा की जाती है । कृत्तिवास की रामायण में लंका गमन के वक्त राम शिव के बजाय शक्ति की देवी दुर्गा की आराधना करते हैं । इस पर कृत्तिवास ने लिखाः


“अकाल बोधन कोरिला रघुवीर

शरत् काले देवी पूजिलेन धीर।”


कृत्तिवास ने राम के द्वारा देवी की इस प्रार्थना को ‘अकाल बोधन’ अर्थात् असामयिक पुकार कहा, क्योंकि आम तौर पर तो देवी की पूजा बसंत ऋतु में होती है, पर राम के लंका गमन के वक्त वसंत नहीं, शरत् ऋतु थी ।


बहरहाल, इसी प्रसंग में हमें याद आया कि अभिनवगुप्त के “तंत्रालोक” के प्रथमाह्निकम् में ही में शिव पुत्र गणेश और कार्त्तिक के बारे में श्लोक आता है - 


“गणेशस्कन्दसंज्ञाद्याः शक्तेः शक्त्युपजीविनः ।

तेऽपि तस्याः प्रसादेन सिद्धिं यान्ति स्वकां ध्रुवम् ॥”


जैसा कि सब जानते हैं, कश्मीरी शैवमत में शक्ति ही सर्वोच्च है जिसके बिना संसार में शिव शव के समान होते हैं। उपरोक्त श्लोक में कहा गया है कि शिव की संतानें गणेश और स्कन्द (कार्त्तिक) दुर्गा ( शक्ति) पर आश्रित है । इसी तरह ब्रह्मा-विष्णु की शक्तियां सरस्वती और लक्ष्मी भी उसी आदिशक्ति दुर्गा के ही अलग-अलग रूप है। इस प्रकार, आदि पराशक्ति दुर्गा और उस पर आश्रित शक्तियों का जो एक पूरा परिवार तैयार होता है वह ‘परिवार’ तंत्रशास्त्र में पुराणिक पारिवारिक संरचना के बजाय एक तांत्रिक एकता का प्रतीक बन कर आता है।


पता नहीं, हमें क्यों लगता हैं कि इस प्रकार बुराई से संघर्ष के मनुष्य के संकल्प की तांत्रिक एकाग्रता को ही आख्यान का रूप देते हुए, from logos to mythos की सत्तर्क क्रिया को विश्वास में बदलने की प्रक्रिया से एक युद्धरत परिवार की पौराणिक कथा का रूप दिया गया है । और शिवस्तोत्रों  की परंपरा से दुर्गा सप्तशती का चण्डीपाठ तैयार हुआ है । 


बहरहाल, जो भी हो, हमें बंगाल में सार्वजनिक दुर्गा पूजा की परंपरा का आधुनिक इतिहास इस पुराण चर्चा से कहीं ज्यादा दिलचस्प और मानीखेज लगता है । इससे जो सबसे बड़ी बात प्रमाणित होती है कि यह उत्सव जितना धार्मिक उत्सव रहा है, उससे कहीं ज्यादा इसका संबंध बंगाल में सत्ता के समीकरण से रहा है। औपनिवेशिक संक्रमण के काल में स्थानीय हिंदू जमींदारों ने अपने अस्तित्व के लिए एक अलग ही प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक उपकरण के रूप में इसे विकसित किया था । दुर्गा पूजा के इस जमींदारी रूप को समझे बिना इसके मर्म को शायद कभी भी पूरी तरह से नहीं समझा जा सकेगा । 


सन् 1757 में प्लासी युद्ध में सिराजुद्दौला की पराजय के बाद बंगाल में मुग़ल सल्तनत का सूरज तेज़ी से ढलने लगा और अंग्रेज़ों की ईस्ट इंडिया कंपनी का वर्चस्व स्थापित हुआ । तब बंगाल के जमींदार वर्ग की ज़रूरत थी कि वह मुग़ल दरबार के बजाय अंग्रेज़ों की नई सत्ता की छाया प्राप्त करें । अंग्रेज़ों के सामने अपनी सामाजिक शक्ति के वैभव का प्रदर्शन करें । 

तभी बारह ज़मींदार मित्रों ने मिल कर दुर्गा पूजा के एक भव्य उत्सव के आयोजन की परंपरा शुरू  की । इसीलिए दुर्गा पूजा का मूल नाम भी बारो-यारी पूजा था । कोलकाता शहर की राजबाड़ियों, शोभाबाज़ार राजबाड़ी, रानी रासमणि के परिवार में इसका आयोजन होने लगा । और इन आयोजनों में बड़े ताम-झाम के साथ अंग्रेज़ अधिकारियों और स्थानीय समाज दोनों को बुलाया जाने लगा । क्रमशः कोलकाता में यह पूजा एक प्रकार के सामाजिक दरबार का रूप लेती चली गई । बड़े-बड़े भोज आयोजित होने लगे जिसमें शहर के गणमान्य लोगों के साथ ही यूरोपीय अतिथियों को बड़े आदर से आमंत्रित किया जाता था । 


तभी से थियेटर, नृत्य, नौटंकी जैसी कलाओं का प्रदर्शन भी इस उत्सव से अभिन्न रूप में जुड़ गया। जमींदार अपनी धन-संपत्ति और भक्ति-भाव का इसमें खुल कर प्रदर्शन करते और खूब ख़र्च किया करते थे । इस सांस्कृतिक-धार्मिक वैभव और अपनी सामाजिक हैसियत के प्रदर्शन से वे अंग्रेज़ों के साथ निकटता बनाया करते । अंग्रेज़ अधिकारियों को बड़ी-बड़ी डालियां भेजी जाने लगी। 


और, अंग्रेज़ अधिकारियों के लिए दुर्गा पूजा का उत्सव स्थानीय कुलीन तबकों से जुड़ने का एक महत्वपूर्ण अवसर होता था। वे इन उत्सवों में भारी उत्साह से शामिल होते । इस प्रकार, दुर्गापूजा के मंच पर एक तरह की सांस्कृतिक कूटनीति भी चला करती थी। अंग्रेज़ इन आयोजनों में हर प्रकार का प्रशासनिक सहयोग भी दिया करते थे ताकि ज़मींदारों का उन्हें सहयोग और समर्थन मिलता रहे । 


इस प्रकार, बंगाल में दुर्गोत्सव का विकास शुरू से धर्म से अधिक राजनीतिक-सामाजिक संवाद के मंच के रूप में ही हुआ है। यह महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक के आह्वान पर शुरू हुए गणपति- उत्सव के ‘राष्ट्रवाद’ के बिल्कुल विपरीत रहा है। 


जहां तक आम जनता का सवाल है, उसके लिए जमींदारों की यह पूजा भक्ति और मनोरंजन दोनों का केंद्र हुआ करती थी । पर इस उत्सव का एक वर्गीय चरित्र बिल्कुल साफ था । पूजा का वैभव ऐसा था जिसे सामान्य लोग केवल दूर से ही देख सकते थे। रवीन्द्रनाथ की ठाकुरबाड़ी में देवेन्द्रनाथ ठाकुर के बाद से दुर्गा पूजा का आयोजन बंद हो गया था क्योंकि उनके ब्रह्मो समाज में उसकी मान्यता नहीं थी । उनके पहले द्वारकानाथ ठाकुर के काल तक जोड़ासांको की दुर्गापूजा सांस्कृतिक भव्यता के कारण ही शहर में आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र हुआ करती थी । रवीन्द्रनाथ के रचनाओं में शरद्-उत्सव के रूप में इसके सांस्कृतिक पहलू की गूँज मिलती है।  


काफी बाद के दिनों में, खास तौर पर आज़ादी के बाद से “बारो-यारी” पूजा ने “सार्वजनिक पूजा” का रूप ले लिया, जिसमें जनता स्वयं ही ऐसे सार्वजनिक उत्सव का आयोजक बनने लगी, इसमें लोकतांत्रिक भागीदारी बढ़ती चली गई । पर मज़े की बात यह है कि धार्मिकता के अतिरिक्त इसके साथ शुरू से ही सांस्कृतिक और कलात्मक वैभव का जो पहलू जुड़ गया था, वह न सिर्फ आगे भी बना रहा, बल्कि अब तो उसमें आश्चर्यजनक रूप से एक विस्फोटक विस्तार दिखाई देने लगा है । बंगाल की दुर्गा पूजा जितना धार्मिक उत्सव नहीं बची है, उससे कहीं ज्यादा बंगालियों के राष्ट्रीय उत्सव का रूप ले चुकी है । इसे आम तौर पर शारदोत्सव के रूप में ही ज्यादा जाना जाता है । 


इन दिनों तो दुर्गा पूजा के अभूतपूर्व कलात्मक स्वरूप के विकास और इसमें बढ़ती हुई जनता की भागीदारी ने इसे संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड हेरिटेज के रूप में मान्यता दिला दी है। 


हम लोग, जो बचपन से ही इस उत्सव के वैभव के साक्षी रहे हैं, हमें भी इसके वर्तमान रूप से भारी विस्मय होता है । इसकी तुलना ब्राज़ील के कार्निवाल आदि से होने लगी है । यहां भी अब क्रमशः डिजिटल युग की छाया दिखाई देने लगी है।  


पंडालों में उमड़ती भीड़ को देखते हुए हम तो इस उम्र में आज घूम-घूम कर उन्हें देखने का सोच भी नहीं सकते । यू ट्यूब के चैनलों से सब पता चल जाता है । पर हमारे बेटे के आवासन कम्प्लेक्स के आयोजन में हम जरूर शामिल हुए। 


यहां हम उसकी चंद तस्वीरें मित्रों से साझा कर रहे है । इसमें शामिल किए गए वीडियो के अंश में महाभारत के प्रारंभ के शांतनु-गंगा संवाद का वह अंश है जिसमें गंगा अपनी आठवीं संतान को शांतनु को सौंप देती है।

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