-अरुण माहेश्वरी
जगदीश्वर चतुर्वेदी जी की ‘ कंप्यूटर क्रांति और युवा ‘ विषय पर वार्ता से ऐसा आभास हो रहा था कि जैसे यह कोई महज एक नैतिक विचलन का सवाल हो जिसमें पूंजीवाद और उसके नव-उदारवाद के उपभोक्तावादी दलदल में मनुष्य, खास कर युवा फँसा हुआ है।
दरअसल, हम पूरे विषय को बिल्कुल भिन्न धरातल से देखते है। युवाओं के खास संदर्भ में जिस कंप्यूटर क्रांति की बात हो रही है, उसमें शुरू में ही यह भेद किया जाना चाहिए है कि वह क्रांति जो हमारे लिए तो एक माध्यम की तरह आई थी, युवाओं के लिए वह उसका परिवेश है ।
हमारी पीढ़ी के लिए कम्प्यूटर एक औज़ार था, एक बाहरी संरचना पर युवा वर्ग के लिए वह एक संपूर्ण डिजिटल संसार है, उसकी सामाजिकता का प्राथमिक क्षेत्र, बल्कि मैं तो कहूँगा, उसकी पहचान की जन्मभूमि । युवाओं का बाकी, आफलाइन जीवन अब क्रमशः किनारे खिसकता जा रहा है । उनके लिए क्रमशः डिजिटल में होना न होना, कोई आप्शन नहीं । उनके लिए महत्वपूर्ण यह है कि डिजिटल में वह किस रूप में मौजूद रहेगा।
पहले प्रमाता की पहचान वर्ग, परिवार, जाति या वैचारिक प्रतिबद्धता से बनती थी। अब युवा की पहचान उसका प्रोफ़ाइल है, एक स्टोरी है, उसकी एल्गोरिद्मिक उपस्थिति, visibility है। यह पहचान भी कोई स्थिर संरचना नहीं, बल्कि लगातार अद्यतन होने वाला समुच्चय है। युवा ‘मैं कौन हूँ’ से अधिक ‘मैं कैसा दिख रहा हूँ’ के प्रश्न में जीता है। लकानियन भाषा में, यह प्रमाता के चित्त के छविमूलक (Imaginary) पहलू का अभूतपूर्व विस्तार है। प्रमाता का होना, न होना उसके शरीर और उसकी छवि का द्वंद्व भी माना जा सकता है ।
लकान के यहाँ जहाँ चित्त का छविमूलक अंश (imaginary register) हमेशा प्रतीकात्मक (symbolic) के अधीन रहता था, लगता है जैसे अब डिजिटल संसार में यह क्रम उलटने लगा है। आज का युवा पहले दिखता है, फिर बोलता है, और कई बार बिना बोले ही अपनी पहचान बना लेता है ।
मनोविश्लेषण में प्रमाता की पहचान के लिए उसकी बात का अतीव महत्व रहा है, वह ‘बात’ अब गौण हो रही है । प्रमाता बोलने वाला नहीं, देखे जाने वाला बन रहा है । इससे प्रमाता की चिंता (anxiety) का नया रूप पैदा होता है, जो उसकी भाषा से नहीं उसके दिखने, न दिखने से तय होने लगता है जिसका हम शरीर और छवि के संदर्भ में उल्लेख कर चुके हैं। इसमें और भी अनोखा पहलू यह है कि पहले के जाति, धर्म, विचारधारा के सुपर स्ट्रक्चर के विपरीत वह क्या दिखेगा, किसे दिखेगा, कितनी बार दिखेगा, यह मशीनी एल्गोरिद्म तय करता है।
हमारे समय के प्रमुख दार्शनिक एलेन बाद्यू कहते हैं कि घटना वह होती है जो यथास्थिति को तोड़ती है। पर युवा डिजिटल संसार में तो स्थिति लगातार स्वयं बदलती रहती है, पर कोई घटना घटती नहीं। सब कुछ ट्रेंड, वायरल होकर खुद ही मिट भी जाता है। एक प्रकार का ऐसा सतत उल्लासोद्वेलन, जिससे किसी सत्य का संकेत आभासित नहीं होता । इससे एक अजीब से नई थकान जन्म लेती है, निरर्थक सक्रियता की थकान।
फिर भी हम कहेंगे कि युवा वर्ग के लिए कम्प्यूटर युग का अर्थ केवल उसकी लत, अस्थिरता या सतहीपन नहीं है। बल्कि यह एक संक्रमण काल है, जहाँ प्रमाता पहली बार बिना परम्परागत प्रतीकात्मक सहारे के, बिना स्थिर पहचान, बिना अपने साथ जुड़ी पुरानी पुरखों की अलौकिक कथाओं के जीना सीख रहा है। निश्चित रूप से यह जोखिम भरा है, पर इसमें एक संभावना भी छिपी है । बहुलताओं के बीच रहते हुए प्रमाता स्वयं को स्वतंत्र रूप से ज्यादा आसानी से पुनर्रचित कर सकता है।
दरअसल, यहीं से उस नए दर्शन की जन्मभूमि तैयार होती है जिसे ऐलेन बाद्यू की बहुलता के समुच्चित संसार, बहुल द्वंद्वों के भुवन के दर्शन की भूमि कहते हैं ।
हमारी पीढ़ी डिजिटल संसार की आलोचना कर सकती है। पर युवा वर्ग उसमें प्रयोग कर रहा है।इसीलिए युवा सिर्फ समस्या नहीं हैं, वे भविष्य की प्रयोगशाला हैं।
प्रश्न यह नहीं कि उन्हें डिजिटल से कैसे बचाया जाए, बल्कि यह है कि उन्हें मनुष्य के स्थायी भावों से सिंचित प्रमाता होने की भाषा से इस नये बहुल-समुच्चयी संसार में कैसे प्रशिक्षित किया जाए?
दरअसल, युवा का वर्तमान परिवेश ही भविष्य का सामान्य परिवेश होता है । वही कुछ समय बाद मनुष्य मात्र का परिवेश बनता है।यह बात हर युग में सच रही है।औद्योगिक युग में, फैक्टरी पहले युवाओं को खींचती है, फिर वही जीवन-लय पूरे समाज की बन जाती है।
इसी प्रकार, डिजिटल संसार पहले युवाओं का परिवेश है, पर वही शीघ्र ही मानव जीवन का सामान्य ढाँचा बनेगा, इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए । इस अर्थ में युवा पर विचार करना कोई विशेष बात नहीं, बल्कि मानवता के आगत सामान्य स्वरूप के अध्ययन जैसा ही है ।
जीवन में किसी भी क्रांति पर विचार उसके भावी प्रभावों के साथ ही संभव है। कोई भी क्रांति अपने वर्तमान रूप से नहीं, बल्कि उसके भविष्य के सामान्यीकृत स्वरूप से समझी जाती है। इसलिए लकान प्रमाता पर विचार की भाषा को अनिवार्यतः वर्तमान-निरंतर काल ( present continuous tense) की भाषा कहते हैं ।
कम्प्यूटर क्रांति को समझने के लिए हमें यह समझना चाहिए कि जब डिजिटल परिवेश कोई विशेष बात नहीं रहेगी, जब वह अदृश्य सामान्यता बन जाएगा, तब मनुष्य कैसा होगा? युवा इसी भविष्य का प्रयोग-स्थल है ।
इसीलिए हम फिर से दोहरायेंगे कि आज युवा-संदर्भ में विचार का औचित्य यह नहीं है कि युवा अलग हैं, या उनमें कोई नैतिक कमी है।इसका औचित्य इस बात में है कि युवा वह स्थान है जहाँ भविष्य अपने अधूरे, अस्थिर रूप में आभासित होता है। यह घटना के सत्य के प्रकटीकरण का स्थान है । युवा में जो अस्थिरता, चिंता, छविमूलकता, पहचान की तरलता दिखती है, वह उनका निजी दोष नहीं, बल्कि आने वाले सामान्य जीवन का प्रारूप है। यह अगर एक रोग हैं, तो हमारे सामान्य जीवन का ही रोग है ।
लकान के अनुसार, किसी भी क्रांति से जीवन की सारी संरचनाएँ एक साथ नहीं बदलतीं। सबसे पहले वह प्रमाता को अस्थिर, समस्याग्रस्त बनाती है, उसकी पहचान को हिलाती है, फिर प्रतीकात्मक व्यवस्था को झकझोरती है। युवा समुदाय इस अस्थिरता के वार का पहला निशाना होता है । इसलिए युवा का अध्ययन उनका निजी मनोवैज्ञानिक नहीं, समग्र रूप से समाज का संरचनात्मक अध्ययन भी है।
एलेन बाद्यू सत्य के स्वरूप के बारे में अपने UCE ( Universal Concrete Exception) की अवधारणा में यही संकेत देते हैं कि कोई स्थिति तभी ऐतिहासिक होती है जब उसका अपवाद ही सामान्य बन जाए। युवा आज डिजिटल युग के अपवाद नहीं, वे इसके सामान्यीकरण का पहला रूप हैं। कल यही स्थिति हर बुज़ुर्ग, मज़दूर, लेखक, नेता, आदि सबकी होगी ।
फलतः, युवा पर विचार इसलिए नहीं ज़रूरी है कि वे अलग हैं, बल्कि इसलिए ज़रूरी है कि वे सभ्यता के सत्य के आभास के प्रथम स्थल हैं।वे वह स्थान हैं जहाँ कम्प्यूटर-बहुलता का समुच्चय पहली बार मानव जीवन का परिवेश बन रहा है। युवा-संदर्भ में सोचना नैतिक उपदेश और पीढ़ियों के बीच फर्क का विषय नहीं, सभ्यता के भविष्य का दार्शनिक पूर्वानुमान है।
हम कंप्यूटर या डिजिटल युग को सभ्यता के विकासक्रम में एक अनोखे विच्छेद के रूप में साफ तौर पर देख सकते हैं । प्रारंभिक पाषाण, ताम्र और लौह युग में मनुष्य की रचनात्मकता का लक्ष्य प्रकृति के भीतर हस्तक्षेप था। इनमें औज़ार और तकनीक प्रकृति को मनुष्य की आवश्यकता के अनुसार ढालने के माध्यम थे।
कम्प्यूटर युग को हम इसमें एक निर्णायक विच्छेद के रूप में पाते हैं । यह वह पहला चरण है जब मनुष्य किसी पदार्थ को आधार बना कर अपने उत्पादन संबंधों का संसार नहीं रचता है , बल्कि स्वयं से ही एक स्वायत्त प्रति-संसार की संरचना को जन्म देता है; एक ऐसी संरचना को जो स्वयं में एक भुवन की तरह कार्य करती है ।
इस अर्थ में कम्प्यूटर युग औज़ारों का नहीं, संसारों का युग है। इसे बाग़ियों के भुवनों के तर्क से अच्छी तरह समझा जा सकता है जो व्यवस्था के अंदर ही एक स्वायत्त संसार रचते हुए स्थापित संसार को विस्थापित कर उसका स्थान लिया करता है । इस नये युग में सभ्यता का भौतिक आधार औज़ारों के बजाय संसारों, सत्यों के समुच्चयों, बहुलताओं के अपवाद-स्वरूप भौतिक स्वरूपों से निर्मित होता है ।
यह एक प्रकार से मनुष्यों का आत्म-विस्थापन है । इसमें मनुष्य पहली बार अपने ही संज्ञानात्मक और प्रतीकात्मक कार्यों को अपने से काट कर अलग कर देता है। स्मृति डाटा बन जाती है, निर्णय एल्गोरिद्म, संबंध नेटवर्क और इच्छा प्रोफ़ाइल ।
यह प्रक्रिया केवल तकनीकी नहीं, तात्विक (ontological) है। मनुष्य अपने ही भीतर की क्रियाओं को एक बाह्य संरचना में बदल देता है जिसमें वह स्वयं को ही पहचानने के लिए बाध्य होती है। मार्क्स ने इस स्थिति को ही ‘पूंजी’ में पण्यों के प्रति अंध श्रद्धा (commodity fetishism) से सबसे पहले व्याख्यायित किया था । यह स्थिति आत्म-प्रतिबिम्ब (self-reflection) की नहीं, बल्कि आत्म-विस्थापन (self-alienation) की है, जो पारम्परिक अर्थों में मार्क्स की 1844 की पांडुलिपियों में व्यक्त विच्छिन्नता (alienation) मात्र नहीं, बल्कि पण्यों के एक संसार के व्यापक ताने-बाने में प्रमाता को उसकी अपनी जगह से विस्थापित कर रोपित करने जैसा है। 1844 की पांडुलिपियों के युवा मार्क्स का ‘पूंजी’ के परिपक्व मार्क्स में अतिक्रमण होता हैं और वे सत्य के स्थानीय, ठोस, अपवाद-स्वरूप समुच्चयों के भुवन के आधुनिक दार्शनिक सिद्धांत की आधारशिला रखते हैं ।
जॉक लकान ने तो प्रतीकात्मक व्यवस्था (Symbolic Order) को पहले से ही प्रमाता से स्वतंत्र कहा है। भाषा, क़ानून और संरचना, सब प्रमाता से पहले मौजूद रहते हैं। कम्प्यूटर युग में यह प्रतीकात्मक व्यवस्था और प्रबल, स्वचालित और निर्णयात्मक (decisive) बन जाती है।प्रतीकात्मकता सिर्फ अर्थ का स्रोत नहीं, उसका कारक हो जाती है। हम देख सकते हैं कि इस नये रीयल में व्यवधान पैदा करने वाले रीयल का भी अपना विशेष रूप होगा जिसे एल्गोरिद्मिक गड़बड़ी, सिस्टम क्रैश, डेटा लीक आदि के रूप में वर्णित किया जा सकता है । ये वे बिंदु हैं जहां गणना विफल हो जाती है। इसमें हैकिंग या सिस्टम से खिलवाड़ की तरह की करतूतों को प्रमाता का जुएसॉंस कहा जायेगा।
कंप्यूटर क्रांति और उसका नया संसार वर्तमान की भांति ही न तो पूर्णतः प्रतीकात्मक है, न छविमूलक । यह भी रियल के लगातार हस्तक्षेप के लिए एक खुला क्षेत्र है, पर निस्संदेह अपने प्रकार का । यह उतना ही बहुल है जितना अभी का सामान्य संसार क्योंकि इसमें भी गणना में गड़बड़ की संभावना हमेशा रहेगी, अनंतता की ख़लल रोकी नहीं जा सकेगी, अर्थात् अभाव से जुड़ी इच्छा का जुएसॉंस तक का पहलू किसी न किसी रूप में बरकरार रहेगा । युवा कत्तई इसमें अनिवार्यतः गुलाम नहीं होता है ।
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